अभिनवगुप्त
अभिनवगुप्त बहुमुखी प्रतिभाशाली कश्मीरी संस्कृत-विद्वान् तथा कश्मीर शैवदर्शन के आचार्य थे। काव्यशास्त्रीय 'ध्वन्यालोक' पर इनकी टीका 'ध्वन्यालोक -लोचन' तथा 'नाट्यशास्त्र' की टीका 'अभिनवभारती' प्रसिद्ध हैं। 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' 'तंत्रालोक' इत्यादि इनकी प्रसिद्ध दार्शनिक कृतियाँ हैं। भारतीय समीक्षाशास्त्र एवं सौंदर्यमीमांसा पर अभिनवगुप्त की अमिट छाप है। साथ ही तत्व चिन्तन परम्परा में भी उनका रिक्थ[1] अविस्मरणीय है।
वंश परिचय
ऐसा माना जाता है कि कन्नौज के प्रब्रजित शैव मनीषी अविगुप्त, अभिनवगुप्त के प्रथम पूर्वज हैं। उसके अनन्तर लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक का कालखंड उस वंश परम्परा के विषय में मौन सा है। इसके पितामह वराहगुप्त का जन्म ईसा की दसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में माना जाता है। उनके पिता नरसिंह गुप्त उर्फ चुखुलक अत्यन्त मेधावी विद्वान, सर्वशास्त्रविद तथा परम शिव भक्त थे। उनकी माता विमलकला परमसाध्वी एवं धार्मिक महिला थीं। दुर्भाग्य से उनकी छाया इनके ऊपर से बचपन में ही उठ गई। माता-पिता के अतिरिक्त उनके परिवार में एक पितृव्य थे वामनगुप्त तथा एक अनुज मनोरथ और पांच पितृव्य ऋन्तनय-क्षेम, उत्पल, अभिनव, चक्रक तथा पद्मगुप्त। इसके अतिरिक्त उनकी एक महान् गुरु परम्परा थी, जिसमें (उनके पिता) नरसिंह गुप्त (व्याकरण), लक्षम गुप्त (क्रम तथा त्रिकदर्शन), भट्ट तौत (नाट्यशास्त्र) तथा भट्टेन्दुराज (साहित्य शास्त्र) प्रमुख थे। वह जहाँ भी गये उनकी प्रतिभा और विद्यानुराग को देखकर प्रत्येक गुरु ने बड़े प्रेम से उन्हें शिक्षा दी। वे उनकी कुशाग्र बुद्धि, धारणाशक्ति एवं प्रतिपादन शैली से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनको सर्वाचार्य घोषित कर दिया और आगे चलकर अपने शैवतत्त्व-चिन्तन तथा साधना के आधार पर वह महामाहेश्वराचार्य हो गए। उनकी ज्ञानपिपासा इतनी तीव्र थी कि वह उसको शान्त करने के लिए देश के कोने-कोने में घूमते रहे। इस सन्दर्भ में जालन्धर के आचार्य शम्भुनाथ का नाम लिया जा सकता है, जिनसे उन्होंने कुलशास्त्र का अध्ययन किया। यह भी कहा जाता है कि वस्तुत: इन्हीं के संसर्ग से अभिनव को शान्ति मिली और अन्ततोगत्वा आत्मसाक्षात्कार हुआ। कश्मीर के परिवारों में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि अपने जीवन का लक्ष्य पूरा करने के बाद वह एक दिन अपने बारह सौ शिष्यों सहित भैरव गुफ़ा में प्रविष्ट हो गए तथा फिर कभी बाहर नहीं निकले।
ऐतिहासिक संदर्भ
अभिनव का जो विराट व्यक्तित्व हमारे सामने उपस्थित होता है, उसमें उनकी आध्यात्मिक चेतना, गम्भीर चिन्तन एवं उन्मुक्त साधना अंतर्निहित है। वह वस्तुत: एक साधक तथा अध्यात्म पुरुष थे। अत: उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण करते समय उस समय का सारा ऐतिहासिक परिदृश्य मस्तिष्क में घूमने लगता है। अन्तरवेदी (कन्नौज) के शैव चिन्तक अत्रिगुप्त के वैदुष्य से प्रभावित कश्मीर नरेश ललितादित्य कन्नौज पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्हें अपने साथ कश्मीर ले जाता है और वहीं बसा देता है। वह पूरी की पूरी घाटी उनके पाण्डित्य एवं मनीषा से गूंज उठती है। शंकर के कश्मीर दर्शन से नागार्जुन का प्रयास ध्वस्त तथा विचारधारा निरस्त हो जाती है। वसुगुप्त द्वारा महादेव शिला पर उत्कीर्ण शिवसूत्रों के आधार पर आगम विद्या का नियमन तथा सिद्ध सोमानन्द द्वारा उनको दार्शनिक धरातल पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। आचार्य उत्पल की व्याख्याओं का संबल पाकर उस घाटी की प्राचीन आध्यात्म विद्या अपने नूतन एवं परिष्कृत रूप में पुन: जीवित हो उठती है। ऐसी स्थिति में अपने बौद्धिक वैभव एवं साहित्य कला-विलास के लिए प्रख्यात शारदा पीठ में अभिनवगुप्त का जन्म एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। सच तो यह है कि कश्मीर घाटी के लिए वह काल खण्ड एक आध्यात्मिक पुनरुत्थान एवं बौद्धिक क्रियाशीलता का युग था। वहाँ का बुद्धिजीवी सक्रिय हो उठा था तथा अवांछनीय तत्वों से जूझने के लिए सर्वांशत: तत्पर हो गया। स्पष्ट शब्दों में कहें तो बहुतत्ववादी प्राचीन धार्मिक विचारधारा में नागार्जुन के प्रयासों के परिणामस्वरूप जुड़े बौद्ध धर्म के वैयर्थ्य को वहाँ का विचारक समझ चुका था और उसके निराकरण के साथ एक उदार धर्म तथा समन्वयवादी दर्शन का उदय हो गया था। अत: पारिवारिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के बावजूद अभिनव को अपने परिवेश में एक ऐसी बौद्धिक चेतना, आध्यात्मिक संस्कार एवं वैदुष्यपूर्ण निर्देशन मिला कि आगे चलकर उनके चिन्तन तथा कृतित्व से साहित्य का कोना-कोना उद्दीप्त हो उठा। अत: यह कहना अनुपयुक्त अथवा असंगत न होगा कि महामाहेश्वर आचार्य अभिनवगुप्त के व्यक्तित्व के निर्माण में तत्कालीन जागृति, वैचारिक क्रान्ति तथा वैदुष्यपूर्ण परम्परा का पर्याप्त योगदान है।
गतिशील कृतित्व
बचपन में ही मातृस्नेह से वंचित हो जाने के कारण अभिनव अन्तर्मुखी हो गए। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और उसका पूरा निर्वाह किया। इसका एक लाभ यह हुआ कि उनमें एक अपूर्व संकल्प जागा। व्युत्पन्न वह थे ही, शक्ति का उन्मेष हुआ और एक महान् कृतित्व फूट निकला। अनेक शास्त्रों में निष्णात होने के कारण उनकी लेखनी ने विभिन्न आयाम लिये और एक समृद्ध रचना परम्परा का सूत्रपात हुआ, जिससे परिवर्ती अध्येता एवं गवेषक पर्याप्त रूप से लाभान्वित हुआ। अभिनवगुप्त के जीवन एवं साहित्य के प्रथम प्रामाणिक प्रणेता तथा व्याख्याकार शैव मनीषी और कलाशास्त्रविद स्वर्गीय डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने इनकी साहित्यिक साधना के तीन आयाम मानें हैं- तान्त्रिक काल, आलंकरिक काल एवं दार्शनिक काला।
तान्त्रिक काल
इनके क्रमस्तोत्र तथा भैरवस्तोत्र और सन्दर्भों एवं अन्य निर्देशों पर आधारित इनकी कृतियों के ऐतिहासिक क्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्होंने सर्वप्रथम अपनी लेखनी उस समय तक प्राप्त तंत्रों की शिवाद्वयवादी व्याख्या के क्षेत्र में चलाई। अभिनव की प्रथम प्राप्त रचना कमस्त्रोत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इन्होंने अपनी सर्जनयात्रा सर्वप्रथम इसी क्षेत्र से आरम्भ की थी। इस शाखा को लेकर उक्त स्तोत्र के अतिरिक्त इनकी एक अन्य रचना प्राप्त है- क्रमकेलि। इसके पश्चात् इनका ध्यान त्रिक की ओर आकर्षित हुआ। इस क्षेत्र की इनकी प्रमुख देन है- पूर्वपंचिका तथा अन्य पंचिकाएँ। पूर्वशास्त्र से अभिप्राय है- मालिनी विजय तंत्र, तथा पंचिका का अर्थ है- विस्तृत व्याख्या। अत: यह कृति निश्चित रूप से मालिनी विजय पर विस्तृत टीका रही होगी। दुर्भाग्य से यह कृति अब उपलब्ध नहीं है। कौलशास्त्र को लेकर इनकी अब तक दो रचनाएं प्राप्त हुई हैं- 'भैरवस्तव' तथा 'परात्रिशिका विवरण' इसी आयाम के अन्तिम चरण में अभिनव ने तंत्रालोक जैसी महत्त्वपूर्ण तथा विशद व्याख्यामूलक कृति दी। इसे कश्मीर एवं शैव दर्शन का विश्वकोश कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी, क्योंकि इसमें इस दर्शन के सभी समानान्तर प्रस्थानों की चर्चा हुई है। इसके साथ ही साथ इन्होंने तीन सार ग्रन्थों- तंत्रसार, तंत्रोच्चय तथा तंत्रवट धनिका की भी इसी काल में रचना की।
आलंकारिक काल
अंतर्मुखी अभिनव की दृष्टि केवल आध्यात्मिक ही नहीं थी। एकान्तसाधक चिन्तक कश्मीर की सुरम्य प्राकृतिक छटा तथा इस घाटी की लावण्यमयी तरुणियों के आकर्षण की उपेक्षा भी नहीं कर सका। अत: तंत्रालोक के अन्तिम खंड के अन्तिम भाग में हम एक रूखे दार्शनिक के नहीं अपितु सौंदर्य पारखी कवि के दर्शन करते हैं। व्याख्या के प्रसंग में ही इनके द्वारा वारुणी के वर्णन, स्वाद तथा मादक अनुभूति का विशद विवेचन, नगर सुन्दिरयों के आकर्षक वर्ण, सुन्दर मुखच्छवि तथा चंचल भंगिमा के पर्यवेक्षण का उल्लेख कश्मीर की सुरम्य छटा में विशेष अभिरुचि, वितस्ता नदी का मनोहारी वर्णन, तथा उनके स्थलों पर मदन की अदम्य शक्तियों का उल्लेख आदि बातें इस बात का स्पष्ट संकेत करती हैं कि अभिनव का अध्यात्म-पुरुष अब एक सौंदर्य प्रेमी कवि हो गया था। उनका सौंदर्यबोध जाग उठा था। उनके रचनाकार ने एक नया मोड़ ले लिया था। इनकी सर्जन यात्रा का दूसरा आयाम शुरू हो गया था। यह उनके जीवन का मध्याह्न था। इस काल की इनकी चार रचनाएं प्राप्त हैं, जिनमें काव्यकौतुक विवरण, ध्वन्यालोकलोचन, तथा अभिनव भारतीय प्रमुख हैं। किन्तु इन कृतियों में भी इनका दार्शनिक सा हो गया हो, ऐसा नहीं प्रतीत होता। विशेष रूप से अभिनव भारती में इनकी व्याख्या प्रणाली अत्यन्त तार्किक तथा दार्शनिक प्रतीकों से ओतप्रोत है। एक विशेष बात जो देखने को मिलती है, वह यह है कि इनका रचनाकार उत्तरोत्तर प्रौढ़ एवं गम्भीर होता जाता है।
दार्शनिक काल
ऐसा माना गया है अभिनव भारतीय की व्याख्या करते समय इनके लेखन में दार्शनिक विचारों का प्राबल्य रहा। यहाँ तक कि इनकी रस की व्याख्या विशुद्ध रूप से दार्शनिक है। इतना ही नहीं, अभिनव भारती के रचनाकाल में ही इन्होंने 'श्रीमद्भगवदगीतार्थ संग्रह' की रचना भी प्रारम्भ कर दी थी, जो जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, 'भगवदगीता' के ऊपर इनकी टीका है। इस प्रकार इनके कृतित्व का अन्तिम आयाम दार्शनिक है। इसी काल में इन्होंने दर्शन जगत् को अपनी दो अमर व्याख्याएं दी, जिनके आधार पर इनको प्रत्यमिज्ञादर्शन का प्रमुख आचार्य माना जाता है। ये हैं ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी तथा ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृतिविमर्शिनी। दूसरी को 'बृहती-विमर्शिनी' अथवा 'अष्टादशसहस्री' भी कहते हैं। ये दोनों आचार्य उत्पल की ईश्वरप्रत्यभिज्ञा की टीकाएं हैं। ये दोनों रचनाएं इनकी प्रौढ़तम कृतियां हैं तथा इनके बाद अभिनव की किसी अन्य रचना का उल्लेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। इस प्रकार अभिन्व गुप्त की रचनाधर्मिता में एक अप्रतिम गतिशीलता है, एक अदम्य उत्साह है, और है एक निश्चित दिशा। यही कारण है कि इनका रचनाकार निरनतर प्रौढ़ होता गया है और इनकी प्रत्येक कृति अपने में महत्त्वपूर्ण है। दार्शनिक कृतियों में इनकी मानवतावादी दृष्टि और आलंकारिक कृतियों में इनका सौंदर्यबोध तथा लोकरुचि का स्पष्ट परिचय मिलता है।
साधक अभिनवगुप्त
आगमसरणि से प्राप्त अध्यात्म विद्या ग्रहण कर अभिनव साधक बन गए। आत्म-तत्त्व-चिन्तन तथा यौगिक अनुशासन के साथ उनका साहित्यिक सर्जन भी चलता रहा। साधना की आंच में तप कर उनका वैदुष्य प्रगाढ़ एवं प्रखर होता गया। अपने परमार्थ चिन्तन को अभिनव अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। अत: सोमानन्द तथा उत्पल द्वारा दार्शनिक भूमि पर प्रतिष्ठित शिवाद्वयवाद को भारतीय जनमानस तक पहुँचाने का भार अभिनव गुप्त ने अपने ऊपर लिया। उनकी विस्तृत व्याख्याओं में जहाँ हम एक शैव सन्त और योगी के दर्शन करते हैं, वहीं एक परम प्रबुद्ध व्याख्याता के भी जो अपनी तार्किक शैली के द्वारा इस दर्शन को लोकसंवेद्य तथा सर्वग्राही बना देता है।
दार्शनिक सिद्धान्त
यद्यपि अभिनव गुप्त यह दावा नहीं करते कि उन्होंने किसी मौलिक दार्शनिक सिद्धान्त की उद्भावना अथवा प्रवर्तन किया है, तथापि गुरु परम्परा से प्राप्त क्रम, कुल एवं त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा शास्त्र को उनकी विस्तृत व्याख्याएं एक नए क्षितिज पर लाकर खड़ा कर देती हैं। इसी प्रकार यद्यपि यह उक्त तीनों शाखाओं और साहित्यशास्त्र पर भी अपनी लेखनी चलाते हैं तथापि उसे उनकी साहित्यिक साधना का संक्रमण काल माना जाना चाहिए। अत: यह कहना सर्वथा उपयुक्त होगा कि त्रिक उनका सर्वप्रिय दर्शन था और इस क्षेत्र को उनकी विशेष देन है। परम्परा से आभासवाद के रूप में पूर्ण प्रतिष्ठा देने का श्रेय अभिनव गुप्त को ही है। अत: इसे ही उनका मूल सिद्धांत मानना चाहिए।
विश्व के रहस्य को समझने का प्रयास ही वस्तुत: दर्शन है। इसी को दूसरे शब्दों में विश्व-रचना-बोध कहा जा सकता है। यह क्या है, विश्व यह अस्तित्व में कैसे आया तथा उसके पीछे कौन सी नियामक शक्ति कार्य करती है, आदि समस्याओं के समाधान के प्रयास ने अनेक दार्शनिक अवधारणाओं को जन्म दिया है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार यह विश्व छत्तीस तत्त्वों से मिलकर बना है। महेश्वर अर्थात् परम सत्ता, जिसे चिति भी कहा जाता है, अपनी स्वतंत्र इच्छा से अपने मानस पटल (भित्ति) पर इन्हीं तत्त्वों को कभी समवेत रूप में प्रकट कर देता है, और कभी अपने में समेट लेता है। इसी को दूसरे शब्दों में उन्मीलन तथा निमीलन कहते हैं और महेश्वर अथवा शिव के उस पूरे कार्य कलाप को पंचकृत्य (सृष्टि, स्थिति, संहति, विलय तथा अनुग्रह) की संज्ञा दी जाती है। चूंकि शिव यह सब कुछ अपनी इच्छा से करता है, इसलिए यह उसकी स्वातंत्रय शक्ति कहलाती है। इसी को माहेश्वर्य शक्ति अथवा विमर्श भी कहते हैं। विमर्श का अभिप्राय है- अर्थ-क्रियाकारिता, स्पष्ट शब्दों में सक्रियता। अर्थात् अद्वैत वेदान्त के ब्रह्म की भांति इस दर्शन की परमसत्ता, शिव, केवल प्रकाशमय ही नहीं अपितु प्रकाशविमर्शमय है। यह ज्ञान और क्रिया दोनों का अधिष्ठान तथा दोनों का स्रोत है। यह विश्व उसके लिए कोई नई रचना नहीं, बल्कि पूर्वत विद्यमान वस्तु का बहिष्करण उन्मीलन अथवा प्रकटीकरण है। निष्कर्ष यह है कि यह दर्शन न तो किसी वस्तु को मिथ्या मानता है और न ही क्षणिक। इसकी दृष्टि में प्रत्येक वस्तु की अपनी सत्ता हैं, बल्कि सत्ता ही वस्तु की नियामक है। अर्थात् यदि वस्तु है तो उसकी सत्ता अवश्य होगी और यदि उसकी सत्ता नहीं है तो वह वस्तु ही नहीं है। इनके अनुसार तो वस्तु, वस्तु का कर्ता और वस्तुबोध का माध्यम तीनों ही यथार्थ हैं। यही शैव स्वातंत्रयवाद है और इसी की स्थापना आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने गूढ़ चिन्तन द्वारा की और इस प्रकार शंकर के मिथ्यात्ववाद तथा बौद्धों के क्षणिकवाद दोनों को ही निरस्त कर दिया।
इसी प्रकार आत्मतत्त्व-बोध के साधन के लिए जो मार्ग इस दर्शन ने सुझाया है, वह केवल ज्ञान नहीं अपितु प्रत्यभिज्ञान है। ज्ञान तो किसी अज्ञात वस्तु का होता है। इसके विपरीत, प्रत्यभिज्ञान का अभिप्राय है किसी पूर्व वस्तु की पहचान। शंकर वेदान्त और त्रिकशास्त्र की आत्मतत्त्व-विमर्श सम्बन्धी धारणा में यही मौलिक अन्तर है। एक तो आत्मतत्त्व के ज्ञान का प्रतिपादन करता है और दूसरा आत्मज्ञान का, अर्थात् अज्ञान अथवा मोहवश जीवन (पशु) अपने वास्तविक स्वरूप (शिव) को भूल बैठता है, किन्तु जैसे ही मोह का पर्दा हटता है, जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है। यही दूसरे शब्दों में आत्मपरामर्श कहलाता है। इस प्रकार सोमानन्द तथा उत्पल द्वारा सूत्र रूप में प्राप्त इन अवधारणाओं को अभिनव ने अपनी तर्क प्रधान शैली के द्वारा प्रतिष्ठित किया है।
अभिनवगुप्त का अवदान
यों तो अभिनव गुप्त शैवागर्मी एवं तंत्रों से अनुस्यत क्रम, त्रिक एवं कुल तीनों प्रस्थानों तथा काव्यशास्त्र एवं कलाशास्त्र के प्रमुख व्याख्याता हैं, किन्तु प्रत्यभिज्ञादर्शन एवं कलाशास्त्र को इनकी देन बेजोड़ है। उत्पल की ईश्वरप्रत्यभिज्ञा पर दो विस्तृत व्याख्याएं तथा तंत्रालोक जैसा बृहद् ग्रन्थ देकर अभिनव गुप्त ने मानवता की जो सेवा की है वह चिरस्मरणीय रहेगी। इसी प्रकार ध्वनयालोकलोचन और त्यभिनभारती की रचना करके इन्होंने भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के लिए चिन्तन मार्ग प्रशस्त कर दिया। उत्पल ने प्रत्यभिज्ञाशास्त्र का उपनिबन्धन लोक कल्याण की भावना से किया था, किन्तु अभिनव ने अपनी विस्तृत तथा स्पष्ट व्याख्याओं के द्वारा उसे सामान्यजन तक पहुँचाने का प्रयास किया। अपनी विवृतिविमर्शिनी की रचना के पीछे उनका लक्ष्य उत्पलदेव के विचारों को उजागर करना मात्र रहा है। इस प्रकार अपने पूरे के पूरे क्रिया काल में में उन्होंने उत्पल के सिद्धान्तों का ही अनुसरण किया है तथा कहीं अपने सिद्धान्त जोड़ने का प्रयास नहीं किया है। किन्तु इतना हम निसंकोच कह सकते हैं कि प्रत्यभिज्ञाशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र के विषय में हम जो कुछ भी जानते हैं, उस सब का श्रेय उनकी विस्तृत व्याख्याओं को ही जाता है। सोमानन्द, उत्पल तथा भारत के ग्रन्थों की शैली इतनी सूत्रात्मक एवं पांडित्यपूर्ण थी कि अभिनव की व्याख्याओं के बिना इन्हें समझना एक दुष्कर कार्य होता। अत: अपने पूर्व आचार्यों के प्रति श्रद्धालु तथा उनके विचारों के प्रति प्रतिबद्ध होने के बावजूद अभिनव ने भारतीय दर्शन, समीक्षाशास्त्र एवं कलाशास्त्र को जो युक्तिमूलक तथा लोकानुभुतिपरक व्याख्या शैली दी, वह अपने में ही एक समर्थ अवदान है। साथ ही स्वातंत्र्यवाद के सिद्धान्त को जनमानस तक पहुंचाकर उन्होंने मानव जाति को एक अभूतपूर्व जीवन मूल्य से परिचित कराया, जिसका महत्व चिरस्थायी एवं शास्वत है। भारत का आस्थावादी समाज तथा बुद्धिजीवी वर्ग समान रूप से इस साधक दार्शनिक का चिरकाल तक ऋणी रहेगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रिक्थ - उत्तराधिकारी में प्राप्त धन सम्पति