असुर
असुर | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- असुर (बहुविकल्पी) |
असुर देवताओं के सबसे प्रबल शत्रुओं में गिने जाते थे। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भी असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। असुरों ने भारत में अनेकों वर्ष तक शासन किया था। इसके बाद उन्होंने ईरान के निकटवर्ती राज्यों पर विजय प्राप्त की और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया। ईसाईयों की धार्मिक पुस्तक 'बाईबल' मे भी असुर राजाओं का उल्लेख यहुदियों को क़ैद कर उन्हें दास बनाने के रूप में हुआ है। भारत में भी जाति प्रथा को आरम्भ करने वाले असुर थे। असुर लोग आर्य धर्म के विरोधी और निरंकुश व्यवस्था को अपनाने वाले थे।
असुर का अर्थ
असुर शब्द 'असु' अर्थात् 'प्राण', और 'र' अर्थात् 'वाला' (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) से मिलकर बना है। बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके रहस्यमय गुणों का पता लगाता है। किंतु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुर देवों के बड़े भ्राता हैं एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं।
देवताओं से संघर्ष
असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और इनमें से कई युद्धों में वे प्राय: विजयी भी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें ही असुरों ही दुष्ट दैत्य कहा गया है, किंतु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगु के पुत्र शुक्राचार्य थे, जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।
ग्रंथों में उल्लेख
महाभारत एवं अन्य प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं। 'कथासरित्सागर' की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेम पूर्ण कथा में किसी असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है। संस्कृत के धार्मिक ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अंतर नहीं दिखाया गया है, किंतु प्रारम्भिक अवस्था में दैत्य एवं दानव असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे। दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' के पुत्र थे।
पुराणों में आये उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण के उदय से पूर्व कंस ने यादव गणतंत्र के प्रमुख अपने पिता और मथुरा के राजा उग्रसेन को बंदी बनाकर निरंकुश एकतंत्र की स्थापना करके अपने को सम्राट घोषित किया था। उसने यादव व आभीरों को दबाने के लिए इस क्षेत्र में असुरों को भारी मात्रा में ससम्मान बसाया था, जो प्रजा का अनेक प्रकार से उत्पीड़न करते थे। श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही आभीर युवकों को संगठित करके इनसे टक्कर ली थी। ब्रज के विभिन्न भागों में इन असुरों को जागीरें देकर कंस ने सम्मानित किया। मथुरा के समीप दहिता क्षेत्र में दंतवक्र की छावनी थी, पूतना खेंचरी में, अरिष्ठासुर अरोठ में तथा व्योमासुर[1] कामवन में बसे हुए थे। परंतु कंस वध के फलस्वरूप यह असुर समूह या तो मार दिया गया या फिर ये इस क्षेत्र से भाग गये।[2]
अन्य पर्याय
देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में 'असुर' का अर्थ होगा- "जो सुर नहीं है"[3] अथवा "जिसके पास सुर नहीं है"। असुरों के अन्य पर्याय निम्नलिखित हैं-
- दैत्य
- दैतेय
- दनुज
- इन्द्रारि
- दानव
- शुक्रशिष्य
- दितिसुत
- पूर्वदेव
- सुरद्विट्
- देवरिपु
- देवारि
- रामायण में असुरों की उत्पत्ति अलग प्रकार से बतायी गयी है-
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा[4] इत्यभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
कथा
हिन्दुओं अधिकांश तीर्थ देवों के नाम पर हैं और उनकी पूजा-आराधना के लिए हैं। किन्तु प्रसिद्ध तीर्थ स्थान 'गया', जहाँ लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए जाते हैं, का नाम असुर 'गय' यानी 'गयासुर' के नाम पर है। सम्भवत: इस तीर्थ का मूल वैदिक काल में हो, जब असुर इतने बुरे नहीं थे। असुर गयासुर के विषय में एक कथा निम्न प्रकार है-
प्राचीन काल में गय नामक असुर भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या कर रहा था। जब भगवान विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वर देने के लिए आए, तब गयासुर ने केवल यही वर माँगा कि उसका शरीर सभी तीर्थों से अधिक पवित्र हो जाए। भगवान ने उसे यह वर प्रदान कर दिया। इस वरदान का बड़ा ही अप्रत्याशिक फल हुआ। असुर गय को देख कर ही लोग मुक्ति पा जाते थे। इस कारण देवताओं के लिए यज्ञ होने बन्द हो गए। यज्ञ के बिना देवताओं को हविष्य मिलना बन्द हो गया और उनकी शक्ति भी क्षीण होने लगे। वे घबरा कर ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी असुर गय के पास गए और उन्होंने कहा- "यज्ञ के लिए कुछ पवित्र स्थल चाहिए और इसके लिए गय के शरीर जैसा पवित्र स्थल कहीं नहीं है।" गय के सिर पर एक विशालकाय शिला रखी गई और ब्रह्मा, शिव आदि देवता शिला पर बैठ कर यज्ञ करने लगे, किन्तु गय का शरीर अभी भी चलायमान था। अन्त में जब विष्णु भी शिला पर बैठ गये, तब गय स्थिर हो गया और उसने कहा कि जब तक यह धरती, ये पर्वत, सूर्य, चन्द्र और तारे हैं, तब तक ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस शिला पर विराजेंगे। इस तीर्थ का नाम मेरे नाम पर ही 'गया' होगा। इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। यह माना जाता है कि गया में जिसका श्राद्ध हो गया हो, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। इसीलिए गया में श्राद्ध और पिंडदान के बाद फिर श्राद्ध की आवश्यकता नहीं होती।[5]
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