आगम

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आगम एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है- "ज्ञान का अर्जन"। यह शास्त्र साधारणतया 'तंत्रशास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसंगानुसार 'आगम' भारत के किसी भी धर्म, मत या परंपरा के धर्मग्रंथ या अधिकृत उद्धरण से संदर्भित हो सकता है। कभी-कभी वर्तमान जीवन या पूर्व जीवन में किसी व्यक्ति द्वारा सचेतन या प्राकृतिक रूप से अर्जित ज्ञान के लिए भी 'आगम' शब्द का उल्लेख किया जाता है। निगमागममूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम ( =वेद) है, उसी प्रकार आगम ( =तंत्र) भी है। दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक हैं। निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। इसीलिए वाचस्पति मिश्र ने 'तत्ववैशारदी' (योगभाष्य की व्याख्या) में 'आगम' को व्युत्पत्ति इस प्रकार की है :-

आगच्छंति बुद्धिमारोहंति अभ्युदयनि:श्रेयसोपाया यस्मात्‌, स आगम:।

आगम का मुख्य लक्ष्य 'क्रिया' के ऊपर है, तथापि ज्ञान का भी विवरण यहाँ कम नहीं है। 'वाराहीतंत्र' के अनुसार आगम इन सात लक्षणों से समवित होता है :-

  1. सृष्टि,
  2. प्रलय,
  3. देवतार्चन,
  4. सर्वसाधन,
  5. पुरश्चरण,
  6. षट्कर्म, (=शांति, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण)
  7. साधन तथा ध्यानयोग।

'महानिर्वाण' तंत्र के अनुसार कलियुग में प्राणी मेध्य (पवित्र) तथा अमेध्य (अपवित्र) के विचारों से बहुधा हीन होते हैं और इन्हीं के कल्याणार्थ महादेव ने आगमों का उपदेश पार्वती को स्वयं दिया। इसीलिए कलियुग में आगम की पूजापद्धति विशेष उपयोगी तथा लाभदायक मानी जाती है:-

कलौ आगमसम्मत:।

भारत के नाना धर्मों में आगम का साम्राज्य है। जैन धर्म में मात्रा में न्यून होने पर भी आगमपूजा का पर्याप्त समावेश है। बौद्ध धर्म का वज्रयान इसी पद्धति का प्रयोजक मार्ग है। वैदिक धर्म में उपास्य देवता की भिन्नता के कारण इसके तीन प्रकार है:-

  1. वैष्णव आगम (पाँचरात्र तथा वैखानस आगम),
  2. शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा
  3. शाक्त आगम

द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। अनेक आगम वेद मूलक हैं, परंतु कतिपय तंत्रों के ऊपर बाहरी प्रभाव भी लक्षित होता है। विशेषत: शाक्तागम के कौलाचार के ऊपर चीन या तिब्बत का प्रभाव पुराणों में स्वीकृत किया गया है। आगमिक पूजा विशुद्ध तथा पवित्र भारतीय है। 'पंच मकार' के रहस्य का अज्ञान भी इसके विषय में अनेक भ्रमों का उत्पादक है।[1](ब.अ.)

व्याख्या

'ब्राह्मणवाद' या हिन्दू धर्म में 'आगम' आमतौर पर वेद और स्मृति को कहा जाता है। बौद्ध धर्म में यह 'त्रिपिटक'; जैन धर्म में 'अंग' और कुछ उपांग की ओर इंगित करता है। लेकिन इस शब्द का अधिक निकट संबंध उन धार्मिक-दार्शनिक परंपराओं से है, जो किसी समय में वेद आधारित परंपरा से अलग माने गए हैं। इसके फलस्वरूप कभी-कभी निगम, श्रुति और वेदों से आगम की भिन्नता को भी दर्शाया जाता है। विशेष रूप से 'आगम' मध्यकालीन भारत के हिन्दू तांत्रिक लेखों में से किसी वर्ग से संबद्ध हो सकता है, जो शैव मत के अनुयायियों का पवित्र साहित्य है। इस प्रकार की आगम रचनाओं को प्राय: अधिक सैद्धांतिक तथा गूढ़ शास्त्रों से अलग समझा जाता है। शैव मत में ये सर्वप्रमुख हैं और संकीर्ण अर्थों में ये वैष्णव संहिताओं तथा शाक्त तंत्रों के समान हैं।[2] ये ज़्यादातर भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती के बीच संवाद के रूप में है। इनका आविर्भाव संभवत: आठवीं शताब्दी में हुआ था। वैचारिक सुविधा के लिए विद्वान् इन्हें चार शैव मतों में बांटते हैं-

  1. शैवसिद्वांत का संस्कृत मत
  2. तमिल शैव
  3. कश्मीरी शैव
  4. वीरशैव (जो 'लिंगायत' भी कहलाता है)

धार्मिक विधि-विधान का स्रोत

'आगम' मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण तथा धार्मिक विधि-विधान के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। अधिकांश हिंदू धार्मिक साहित्य के समान यह साहित्य न तो भलि-भांति सूचीबद्ध है और न ही इसका विस्तृत अध्ययन किया गया है। आगमी शैवों (शिव के उपासक, जो अपने आगम यानी पारंपरिक साहित्य का अनुसरण करते हैं) के संप्रदायों में शैव मत की दार्शनिक भूमिका और निष्कर्षों को स्वीकार करने वाले उत्तरी क्षेत्र के संस्कृत शैव सिद्धांत मतावलंबी और दक्षिण भारत के 'लिगांयत' या 'वीरशैव' (वीर, शब्दार्थ नायक; शिवलिंग भगवान शिव का प्रतीक है और प्रतिमा के स्थान पर इसी की पूजा जाती है) शामिल हैं।

शैव सिद्धांत

पांरपरिक रूप से शैव सिद्धांत में 28 आगम और 150 उप-आगम हैं। मुख्य पाठ का काल निर्धारित करना कठिन है। संभवत: वे आठवीं शताब्दी से पहले के नहीं हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, शिव इस संसार के चेतन सिद्धांत हैं, जबकि पदार्थ अचेतन है। देवी के रूप में मानवीकृत शिव की शक्ति बंधन और मुक्त प्रदान करती है। शक्ति एक चमत्कारी 'शब्द' (मंत्र) भी है, जिसके द्वारा ध्यान लगाकर शिव की प्रकृति को जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। कश्मीरी शैव मत की शुरुआत शिव के नए स्वरूप 'शिव सूत्र' या शिव से संबंधित सूत्रों (लगभग 850 ई.) से हुई। इसमें 'सोमनंद' (950 ई.) के 'शिवदृष्टि' (शिव की दृष्टि) को विशेष महत्त्व दिया गया है, जिसमें शिव की सतत पहचान पर बल दिया गया है; यह संसार शक्ति के माध्यम से शिव का प्रकटीकरण है। इस पद्धति को 'त्रिक' (त्रयी) कहते हैं, क्योंकि इसमें शिव, शक्ति और वैयक्तिक आत्मा के तीन सिद्धांतों को मान्यता दी गई है।

वीरशैव ग्रंथ

वीरशैव ग्रंथों की शुरुआत लगभग 1150 में बसव के 'वचनम' (वचन) से हुई। यह मत शुद्धतावादी है और इनमें केवल शिव की आराधना की जाती है। इसने सामाजिक संगठन को स्वीकारा और सामाजिक वर्ग व्यवस्था को नकारा जाता है तथा यह मठों व गुरुओं के माध्यम से अत्यंत संयोजित है।

जैन आगम

'आगम' शब्द का जैन धर्म में विशिष्ट स्थान है। जैन साहित्य के दो विभाग हैं, आगम और आगमेतर। केवल ज्ञानी, मनपर्यव ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, चतुर्दशपूर्व के धारक तथा दशपूर्व के धारक मुनियों को आगम कहा जाता है। कहीं कहीं नवपूर्व के धारक को भी आगम माना गया है। भगवान महावीर के उपदेश जैन धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है। वे अर्ध-मागधी प्राकृत भाषा में हैं। उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं। वैदिक संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे। महावीर के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था। 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' शाखाओं में जहाँ अनेक बातों में मतभेद था, वहीं आगमों को लिपिबद्ध न करने में दोनों एक मत थे। कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध तो किया गया; किन्तु लिखित रूप की प्रमाणिकता इस धर्म के दोनों संप्रदायों को समान रूप से स्वीकृत नहीं हुई। श्वेताम्बर संप्रदाय के अनु्सार समस्त आगमों के छ: विभाग हैं-

  1. 'अंग'
  2. 'उपांग'
  3. 'प्रकीर्णक'
  4. 'छेदसूत्र'
  5. 'सूत्र'
  6. 'मूलसूत्र'
  • जब तक आगम बिहारी मुनि विद्यमान थे, तब तक इनका इतना महत्व नहीं था, क्योंकि तब तक मुनियों के आचार व्यवहार का निर्देशन आगम मुनियों द्वारा मिलता था। जब आगम मुनि नहीं रहे, तब उनके द्वारा रचित आगम ही साधना के आधार माने गए और उनमें निर्दिष्ट निर्देशन के अनुसार ही जैन मुनि अपनी साधना करते हैं।
  • जैन धर्म में 'एकादश अंग सूत्र' सबसे प्राचीन माने जाते हैं। दिगम्बर संप्रदाय उपयुक्त आगमों को नहीं मानता है। इस संप्रदाय का मत है, अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के पश्चात् आगमों का ज्ञान लुप्त प्राय हो गया था।
  • आगम साहित्य भी दो भागों में विभक्त है: अंगप्रविष्ट और अंगबाह्म। अंगों की संख्या 12 है। उन्हें गणिपिटक या द्वादशांगी भी कहा जाता है:

1- आचारांग 5- भगवती 9 -अनुतरोपपातिकदशा

2- सूत्रकृतांग 6- ज्ञाता 10- प्रश्न व्याकरण

3- स्थानांग 7- उपासक दशांग 11- विपाक

4- समवायाँग 8- अंतकृत्‌ दशा 12- दृष्टिवाद

  • इनमें दृष्टिवाद का पूर्णत: विच्छेद हो चुका है, शेष ग्यारह अंगों का भी बहुत सा अंग विच्छित हो चुका है, उपलब्ध ग्रंथों का अंश परिमाण इस प्रकार है:

1-आचारांग श्रुतस्कंध अध्ययन उद्देशक चूलिका श्लोक

(2) (25) (51) (3) (2,500)

(जिसमें सातवें 'महापरिज्ञ' नामक अध्ययन का विच्छेद हो चुका है।)

2-सूत्रकृतांग श्रुतस्कंध अध्ययन उद्देशक श्लोक

2) (23) (15) (2,100)

3-स्थानांग स्थान उद्देशक श्लोक

(10) (28) (3,770)

4-समवायाँग श्रुतस्कंध अध्ययन उद्देशक श्लोक

(1) (1) (1) (1,667)

5-भगवती शतक उद्देशक श्लोक

(40) (1,923) (15,752)

6-ज्ञाता श्रुतस्कंध वर्ग उद्देशक श्लोक

(2) (10) (225) (15,752)

7-उपासक दशांग अध्ययन श्लोक

(10) (812)

8-अतंकृत्‌ दशा श्रुतस्कंध वर्ग उद्देशक श्लोक

(1) (8) (90) (900)

9-अनुत्तरोपपा- वर्ग अध्ययन श्लोक

तिकदशांग (3) (33) (1,292)

10-प्रश्न व्या- श्रुतस्कंध अध्ययन श्लोक

करण (2) (10) (1,250)

11-विपाक श्रुतस्कंध अध्ययन श्लोक

(2) (20) (1,216)

अंगबाह्म

इसके अतिरिक्त जितने आगम हैं वे सब अंगबाह्म हैं, क्योंकि अंगप्रविष्ट केवल गणधरकृत आगम ही माने जाते हैं। गणधरों के अतिरिक्त आगम कवियों द्वारा रचित आगम अंगबाह्म माना जाता है। उनके नाम, अध्ययन, श्लोक आदि का परिमाण इस प्रकार है:- उपांग

1 औपपातिक अधिकार श्लोक

(3) (1,200)

2 राजप्रश्नीय श्लोक

(2,078)

3 जीवाभिगम प्रतिपाति लोक

(9) (4,700)

4 प्रज्ञापना पद श्लोक

(36) (7,787)

5 जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति अधिकार श्लोक

(10) (4,186)

6 चंद्रप्रज्ञप्ति प्राभृत श्लोक

(20) (2,200)

7 सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत श्लोक

(20) (2,200)

8 कल्पिका अध्ययन

(10)

9 कल्पावंतसिका (10)

10 पुष्पिका (10)

11 पुष्पचूलिका (10)

12 वंद्दिदशा (10)

(इन पाँचों उपांगों का संयुक्त नाम 'निरयावलिका' है। श्लोक 1,109)

च्छेद

1निशीथ उद्देशक श्लोक

(20) (815)

2महानिशीथ अध्ययन चूलिका श्लोक

(7) (2) (4,500)

3बृहत्कल्प उद्देशक श्लोक

(6) (473)

4व्यवहार उद्देशक श्लोक

(10) (600)

5दशाश्रुतस्कंध अध्ययन श्लोक

(10) (1,835)

अध्ययन चूलिका श्लोक

मूल 1दशवैकालिक (10) (2) (901)

2उत्तराथ्ययन (26) (2,000)

3नंदी (700)

4अनयोगद्वार (1,600)

5आवश्यक (6) (125)

6ओधानिर्युक्ति (1,170)

7पिंडनिर्युक्ति (700)

प्रकीर्णक 1चतु:शरण (10) (63)

2आतुर प्रत्याख्यान (10) (64)

3भक्त प्रत्याख्यान (10) (172)

4संस्तारक (10) (122)

5तंदुल वैचारिक (10) (400)

6चंद्रवैघ्यक (10) (310)

7देवेंद्रस्तव (10) (200)

8गणिविद्या (10) (100)

9महाप्रत्याख्यान (10) (134)

10समाधिमरण (10) (720)

  • आगमों की मान्यता के विषय में भिन्न भिन्न परंपराएँ हैं। दिगंबर आम्नाय में आगमेतर साहित्य ही है, वे आगम लुप्त हो चुके, ऐसा मानते हैं। श्वेतांबर आम्नाय में एक परंपरा 84 आगम मानती है, एक परंपरा उपर्युक्त 45 आगमों को आगम के रूप में स्वीकार करती है तथा एक परंपरा महानिशीथ ओषनिर्युक्ति, पिंडनिर्युक्ति तथा 10 प्रकीर्ण सूत्रों को छोड़कर शेष 32 को स्वीकार करती है।

विषय के आधार पर आगमों का वर्गीकरण:

भगवान महावीर से लेकर आर्यरक्षित तक आगमों का वर्गीकरण नहीं हुआ था। प्रवाचक आर्यरक्षित ने शिष्यों की सुविधा के लिए विषय के आधार पर आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया।

1-चरणकरणानुयोग

2-द्रव्यानुयोग

3-गणितानुयोग

4-धर्मकथानुयोग

चरणकरणानुयोग

इसमें आचार विषयक सारा विवेचन दिया गया है। आचार प्रतिपादक आगमों की संज्ञा चरणकरणानुयोग की गई है। जैन दर्शन की मान्यता है कि नाणस्स सारो आयारो ज्ञान का सार आचार है। ज्ञान की साधना आचार की आराधना के लिए होनी चाहिए। इस पहले अनुयोग में आचारांग, दशवैकालिक आदि आगमों का समावेश होता है।

द्रव्यानुयोग

लोक के शाश्वत द्रव्यों की मीमांसा तथा दार्शनिक तथ्यों की विवेचना करनेवाले आगमों के वर्गीकरण को द्रव्यानुयोग कहा गया है।

गणितानुयोग

ज्योतिष संबंधी तथा भंग (विकल्प) आदि गणित संबंधी विवेचन इसके अंतर्गत आता है। चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम इसमें समाविष्ट होते हैं।

धर्मकथानुयोग

दृष्टांत उपमा कथा साहित्य और काल्पनिक तथा घटित घटनाओं के वर्णन तथा जीवन-चरित्र-प्रधान आगमों के वर्गीकरण को धर्म कथानुयोग की संज्ञा दी गई है।

  • इन आचार और तात्विक विचारों के प्रतिपादन के अतिरिक्त इसके साथ साथ तत्कालीन समाज, अर्थ, राज्य, शिक्षा व्यवस्था आदि ऐतिहासिक विषयों का प्रासंगिक निरूपण बहुत ही प्रामाणिक पद्धति से हुआ है। भारतीय जीवन के आध्यात्मिक, सामाजिक तथा तात्विक पक्ष का आकलन करने के लिए जैनागमों का अध्ययन आवश्यक ही नहीं, किंतु दृष्टि देनेवाला है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-आर्थर एवेलेन: शक्ति ऐंड शास्त्र, गणेश ऐंड कं., मद्रास, 1952; चटर्जी: काश्मीर शैविज्म, श्रीनगर, 1916; बलदेव उपाध्याय: भारतीय दर्शन, काशी,1957।
  2. भारत ज्ञानकोश, खण्ड-1 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 116 |
  3. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 350-52 |

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