आस्तिकता

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आस्तिकता (थीज्म)-भारतीय दर्शन में ईश्वर, ईश्वराज्ञा, परलोक, आत्मा आदि अदृष्ट पदार्थों के अस्तित्व में, विशेषत: ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास का नाम आस्तिकता है। पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास का ही नाम थीज्म है। संसार के विश्वासों के इतिहास में ईश्वर की कल्पना अनेक रूपों में की गई है और उसके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अनेक युक्तियां दी गई हैं। उनमें मुख्य ये हैं:

  1. ईश्वर का स्वरूप - मानवानुरूप व्यक्तित्वयुक्त ईश्वर (परसनल गाड)। इस संसार का उत्पादक (स्रष्टा), संचालक और नियामक, मनुष्य के समान शरीरधारी, मनोवृत्तियों से युक्त परमशक्तिशाली परमात्मा है। वह किसी एक स्थान (धाम) पर रहता है और वहीं से सब संसार की देखभाल करता है, लोगों को पाप पुण्य का फल देता है एवं भक्ति और प्रार्थना करने पर लोगों के दु:ख और विपत्ति में सहायता करता है। अपने धाम से वह इस संसार में सच्चा धार्मिक मार्ग सिखाने के लिए अपने बेटे पैगंबरों, ऋषिमुनियों को समय-समय पर भेजता है और कभी स्वयं ही किसी न किसी रूप में अवतार लेता है। दुष्टों का दमन और सज्जनों का उद्धार करता है। इस मत को पाश्चात्य दर्शन में थीज्म कहते हैं।
  2. सृष्टिकर्ता मात्र ईश्वरवाद - (डीज्म) कुछ दार्शनिक यह मानते हैं कि ईश्वर तो सृष्टिकर्ता मात्र है और उसने सृष्टि रच दी है कि वह स्वयं अपने नियमों से चल रही है। उसको अब इससे कोइ मतलब नहीं। जैसे घड़ी बनानेवाले को अपनी बनाई हुई घड़ी से, बनने के पश्चात्‌, कोई संबंध नहीं रहता। वह चलती रहती है। इस मत की कुछ झलक वैष्णवों की इस कल्पना में मिलती है कि भगवान्‌ विष्णु क्षीरसागर में सोते रहते हैं और शैवों की इस कल्पना में कि भगवान्‌ शंकर कैलास पर्वत पर समाधि लगाए बैठे रहते हैं और संसार का कार्य चलता रहता है।
  3. सर्व खलु इदं ब्रह्म - यह समस्त संसार ब्रह्म ही है (पैथीज्म), इस सिद्धांत के अनुसार संसार और भगवान्‌ कोई अलग-अलग वस्तु नहीं हैं। भगवान्‌ और संसार एक ही हैं। जगत्‌ भगवान्‌ का शरीर मात्र है जिसके कण-कण में वह व्याप्त है। ब्रह्म=जगत्‌ और जगत्‌=ब्रह्म। इसको अद्वैतवाद भी कहते हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रकार के मत का नाम पैथीज्म है।
  4. ब्रह्म जगत्‌ - से परे भी है। इस मतवाले, जिनको पाश्चात्य देशों में 'पैन ऐनथीस्ट' कहते हैं, यह मानते हैं कि जगत्‌ में भगवान्‌ की परिसमाप्ति नहीं होती। जगत्‌ तो उसके एक अंश मात्र में है। जगत्‌ शांत है, सीमित है और इसमें भगवान्‌ के सभी गुणों का प्रकाश नहीं है। भगवान्‌ अनादि, अनंत और अचित्य हैं। जगत्‌ में उनकी सत्ता और स्वरूप का बहुत थोड़े अंश में प्राकट्य है। इस मत के अनुसार समस्त जगत्‌ ब्रह्म है, पर समस्त ब्रह्म जगत्‌ नहीं है।
  5. अजातवाद, अजातिवाद अथवा जगद्रहित शुद्ध ब्रह्मवाद - (अकास्मिज्म) इस मत के अनुसर ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सत्ता ही नहीं है। सर्वत्र ब्रहा ही ब्रह्म है। जगत्‌ नाम की वस्तु न कभी उत्पन्न हुई, न है और न होगी। जिसको हम जगत्‌ के रूप में देखते हैं वह कल्पना मात्र, मिथ्या भ्रम मात्र है जिसका ज्ञान द्वारा लोप हो जाता है। वास्तविक सत्ता केवल विकाररहित शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म की ही है जिसमें सृष्टि न कभी हुई, न होगी।

आस्तिकता के अंतर्गत एक यह प्रश्न भी उठता है कि ईश्वर एक है अथवा अनेक। कुछ लोग अनेक देवी देवताओं को मानते हैं। उनको बहुदेववादी (पोलीथीस्ट) कहते हैं। वे एक देव को नहीं जानते। कुछ लोग जगत्‌ के नियामक दो देवों को मानते हैं-एक भगवान्‌ और दूसरा शैतान। एक अच्छाइयों का स्रष्टा और दूसरा बुराइयों का। कुछ लोग यह मानते हैं कि बुराई भले भगवान की छाया मात्र है। भगवान्‌ एक ही है, शैतान उसकी मायाशक्ति का नाम है जिसके द्वारा संसार में सब दोषों का प्रसारहै, पर जो स्वयं भगवान्‌ के नियंत्रण में रहती है। कुछ लोग मायारहित शुद्ध ब्रह्म की सत्ता में विश्वास करते है। उनके अनुसार संसार शुद्ध ब्रह्म का प्रकाश है, उसमें स्वयं कोई दोष नहीं है। हमारे अज्ञान के कारण ही हमको दोष दिखाई पड़ते हैं। पूर्ण ज्ञान हो जाने पर सबको मंगलमय ही दिखाई पड़ेगा। इस मत को शुद्ध ब्रह्मवाद कहते हैं। इसी को अद्वैतवाद अथवा ऐक्यवाद (मोनिज्म) कहते हैं।[1]

आस्तिकता के पक्ष में युक्तियाँ-पाश्चात्य और भारतीय दर्शन में आस्तिकता को सिद्ध करने में जो अनेक युक्तियां दी जाती हैं उनमें से कुछ ये हैं:

  1. मनुष्यमात्र के मन में ईश्वर का विचार और उसमें विश्वास जन्मजात है। उसका निराकरण कठिन है, अतएव ईश्वर वास्तव में होना चाहिए। इसको आंटोलॉजिकल, अर्थात्‌ प्रत्यय से सत्ता की सिद्धि करनेवाली युक्ति कहते हैं।
  2. संसारगत कार्य-कारण-नियम को जगत्‌ पर लागू करके यह कहा जाता है कि जैसे यहां प्रत्येक कार्य के उपादान और निमित्त कारण होते हैं, उसी प्रकार समस्त जगत्‌ का उपादान और निमित्त कारण भी होना चाहिए और वह ईश्वर है (कास्मोलॉजिकल, अर्थात्‌ सृष्टिकारण युक्ति)।
  3. संसार की सभी क्रियाओं का कोई न कोई प्रयोजन या उद्देश्य होता है और इसकी सब क्रियाएं नियमपूर्वक और संगठित रीति से चल रही हैं। अतएव इसका नियामक, योजक और प्रबंधक कोई मंगलकारी भगवान्‌ होगा (टिलियोलोजिकल, अर्थात्‌ उद्देश्यात्मक युक्ति)।
  4. जिस प्रकार मानव समाज में सब लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए और अपराधों का दंड एवं उपकारों और सेवाओं का पुरस्कार देने के लिए राजा अथवा राजव्यवस्था होती है उसी प्रकार समस्त सृष्टि को नियम पर चलाने और पाप पुण्य का फल देनेवाला कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और न्यायकारी परमात्मा अवश्य है। इसको मॉरल या नैतिक युक्ति कहते हैं।
  5. योगी और भक्त लोग अपने ध्यान और भजन में निमग्न होकर भगवान्‌ का किसी न किसी रूप में दर्शन करके कृतार्थ और तृप्त होते दिखाई पड़ते है (यह युक्ति रहस्यवादी, अर्थात्‌ मिस्टिक युक्ति कहलाती है)।
  6. संसार के सभी धर्मग्रंथों में ईश्वर के अस्तित्व का उपदेश मिलता है, अतएव सर्व-जन-साधारण का और धार्मिक लोगों का ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास है। इस युक्ति को शब्दप्रमाण कहते हैं। नास्तिकों ने इन सब युक्तियों को काटने का प्रयत्न किया है (द्र. 'अनीश्वरवाद')।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 474-75 |
  2. सं.ग्रं-वावने: थीज्म; फ्लिंट: थीज्म; फिलासफ़ी ऑव थीज्म; विलियम जेम्स: द विल टु बिलीव; थ्राू नेचर टु गॉड; उदयन: न्यायकुसुमांजलि।

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