इमाम
इमाम अली के बेटों की उपाधि है।[1] इमाम शब्द का अरबी अर्थ है नेता या निर्देशक।
- इस्लामी संप्रदायों की शब्दावली में 'इमाम' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थो में होता है -
- सुन्नी मुसलमान इमाम या 'पेश इमाम' शब्द का प्रयोग सामूहिक प्रार्थनाओं के नेता के लिए करते हैं।
- सुन्नी क़ानून की पुस्तकों में 'इमाम' शब्द का प्रयोग 'राज्य के स्वामी' के लिए हुआ है।
- सुन्नी मुसलमान इमाम शब्द का प्रयोग अपनी न्यायपद्धति के महान् अधिष्ठाताओं के लिए भी करते हैं। ये प्रमुख न्यायशास्त्री महान् अब्बासी ख़लीफाओं के समय[2] में अवतरित हुए थे, तथापि शिष्टाचारवश इमाम की पदवी से कभी कभी इन लोगों के बाद के प्रमुख न्यायवेत्ताओं को भी विभूषित कर दिया जाता है।
- शिया इमाम शब्द का प्रयोग अपनी 12 पवित्र इमामों के लिए करते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं -
- हजरत अली
- हसन
- हुसैन
- अली जैनुल आब्दीन
- मुहम्मद बाकर
- ज़ाफर सादिक
- मूसा काज़िम
- अलीरज़ा
- मुहम्मद तक़ी
- अली नकी
- हसन असकरी और
- मुहम्मद अल मुतज़र (इमाम मेंहदी)
- इन 12 में से अंतिम इमाम मेंहदी अपने बाल्यकाल में ही एक गुफा में जाकर अदृश्य हो गए और शिया तथा सुन्नी दोनों ही वर्गो की मान्यता है कि वे वापस आएँगे।
- शिया मुसलमान अपने इमामों के तीन अधिकार मानते हैं -
- ये पैंगबर के राज्य के अधिकृत उत्तराधिकारी थे और इनको इस अधिकार से अनुचित रूप से वंचित कर दिया गया,
- इमामों ने अत्यंत पवित्र और पापरहित जीवन व्यतीत किया, तथा
- उनको समस्त जाति को निर्देश देने का अधिकार है। निर्देश का यह अधिकार मुजतहिदों को भी प्राप्त है। शिया मुजतहिद उस धार्मिक अध्यापक को कहते हैं जिसके पास मूलत: किसी इमाम द्वारा प्रदत्त प्रमाणपत्र हो।
- शिया मुसलमानों के इस्माइली दल के लोग इमाम को एक अवतार या ईश्वरीय व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार करते हैं। वह क़ुरान में प्रतिपादित आस्था को तो समाप्त नहीं कर सकता, किंतु वह क़ुरान के क़ानून को पूर्णत: या आंशिक रूप से समाप्त या परिवर्तित कर सकता है। इस अधिकार के पक्ष में दिया जाने वाला तर्क यह है कि क़ानून में देश और काल के अनुसार परिवर्तन आवश्यक है और इमाम, जो एक 'अवतार' है, इस परिवर्तन को कार्यन्वित करने के लिए एकमात्र उपयुक्त व्यक्ति है। इस प्रकार इस्माइली लोग अपने इमाम को पैगंबर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। इस्माइली धार्मिक शियाओं के केवल प्रथम छह इमामों को मानते हैं। छठे इमाम ज़ाफर सादिक ने अपने पुत्र इस्माइल को उत्तराधिकार से वंचित कर दिया, किंतु इस्माइली लोग इसको उत्तराधिकार के ईश्वरीय नियमों में अवैधानिक हस्तक्षेप मानते हैं।
- मध्ययुग में इमाम
मध्ययुग में धर्मपरायण मुसलमानों ने इस्माइलियों का अत्यंत निर्दयता से विनाश किया। प्रत्युत्तर में इस्माइलियों ने गुप्त आंदोलन प्रारंभ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने इस्माइलियों के अनेक सिद्धांतों को ग़लत समझा और व्यक्त किया। इस्माइली इमाम सर्वविदित [3] भी हो सकता है, जैसे - मिस्र के फ़तिमी ख़लीफ़ा[4] तथा ईरान में अलमुत के इमाम [5], और अप्रकट या गुह्य [6] भी। गुह्य इमाम की स्थिति केवल उसके प्रतिनिधि [7] को ज्ञात होती है। यह प्रतिनिधि इमाम की ओर से कार्यसंचालन करता है, किंतु इसको इस्लामी संस्थाओं में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं होता। इस्माइली मुसलमानों के अनेक दलों में, जैसे - भारत के दाउदी और सुलेमानी बोहरे, शताब्दियों से केवल इमाम के प्रतिनिधि [8] ही अवतरित हुए हैं।[9]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 562, परिशिष्ट 'घ' |
- ↑ 750 - 842 ई.
- ↑ अलनी
- ↑ 910 - 1171 ई.
- ↑ 1164 - 1256
- ↑ मखफ़ी
- ↑ दाई
- ↑ दाई
- ↑ बेर्नर लीविस: इस्लामिस्म / इवोनोफ़ : क़लम-ए-पीर, (फारसी के मूल तथा अनुवाद सहित, बंबई); द फ़ाटिमैट कलिफ़ैट।