ईसा मसीह
ईसा मसीह
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पूरा नाम | ईसा मसीह |
अन्य नाम | यीशु मसीह, जीज़स क्राइस्ट |
जन्म | 6 ई.पू.(संभवत) |
जन्म भूमि | बेथलेहेम |
मृत्यु | 30-36 ई.पू. |
अभिभावक | पिता- जोसेफ़ (यूसुफ़) और माँ- मरियम (मैरी) |
मुख्य रचनाएँ | बाइबिल |
प्रसिद्धि | ईसाई धर्म के प्रवर्तक के रूप में |
संबंधित लेख | गुड फ़्राइडे, ईस्टर संडे |
व्यक्तित्व | ईसा की आकृति का कोई भी प्रामणिक चित्र अथवा वर्णन नहीं मिलता, तथापि बाइबिल में उनका जो थोड़ा बहुत चरित्रचित्रण हुआ है उससे उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होने के साथ ही अत्यंत आकर्षक सिद्ध हो जाता है |
अन्य जानकारी | ईसा यहूदियों का धर्मग्रंथ (ईसाई बाइबिल का पूर्वार्ध) प्रामाणिक तो मानते थे किंतु वह शास्त्रियों की भाँति उसकी निरी व्याख्या ही नहीं करते थे, प्रत्युत उसके नियमों में परिष्कार करने का भी साहस करते थे। |
ईसा मसीह (अंग्रेज़ी:Jesus, जन्म- संभवत: 6 ई.पू., बेथलेहेम; मृत्यु- 30-36 ई.पू.) ईसाई धर्म के प्रवर्तक थे, जिन्हें 'जीसस क्राइस्ट' भी कहते हैं। इन्होंने लोक कल्याणार्थ अपनी जान तक दे दी थी।[1] ईसा इब्रानी शब्द येशूआ का विकृत रूप है, इसका अर्थ है मुक्तिदाता। यहूदी धर्मग्रंथ में मशीअह ईश्वरप्रेरित मुक्तिदाता की पदवी है, इसका अर्थ है अभिषिक्त, यूनानी भाषा में इसका अनुवाद ख्रीस्तोस है। इस प्रकार ईसा मसीह पश्चिम में येसु ख्रोस्त के नाम से विख्यात हैं।
जीवनी पर पर्याप्त प्रकाश
तासितस, सुएतोन तथा फ़्लावियस योसेफ़स जैसे प्राचीन रोमन तथा यहूदी इतिहासकारों ने ईसा तथा उनके अनुयायियों का तो उल्लेख किया है किंतु उनकी जीवनी अथवा शिक्षा का वर्णन नहीं किया। इस प्रकार की सामग्री हमें बाइबिल में ही मिलती है, विशेषकर चारों सुसमाचारों (गास्पेलों) में जिनकी रचना प्रथम शताब्दी ईसवी के उत्तरार्ध में हुई थी। सुसमाचारों का प्रधान उद्देश्य है ईसा की शिक्षा प्रस्तुत करना, उनके किए हुए चमत्कारों के वर्णन द्वारा उनके ईश्वरत्व पर विश्वास उत्पन्न करना, तथा मृत्यु के बाद उनके पुनरुत्थान का साक्ष्य देना। किंतु वे इन विषयों के साथ-साथ ईसा की जीवनी पर भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।
जन्म
बाइबिल के अनुसार ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाज़रेथ गाँव की रहने वाली थीं। उनकी सगाई दाऊद के राजवंशी यूसुफ़ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ही ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ़ ने उन्हें पत्नीस्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही। विवाह संपन्न होने के बाद यूसुफ़ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे, वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ़ मिस्र भाग गए। हेरोद 4 ई.पू. में चल बसे अत: ईसा का जन्म संभवत: 6 ई.पू. में हुआ था। हेरोद के मरण के बाद यूसुफ़ लौटकर नाज़रेथ गाँव में बस गए। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते रहे। सत्य को खोजने की वृत्ति उनमें बचपन से ही थी। बाइबिल में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे।[2] कुछ समय बाद ईसा ने यूसुफ़ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक उसी गाँव में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे।
बपतिस्मा
ईसा के अंतिम दो तीन वर्ष समझने के लिए उस समय की राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थिति ध्यान में रखनी चाहिए। समस्त यहूदी जाति रोमन सम्राट् तिबेरियस के अधीन थी तथा यहूदिया प्रांत में पिलातस नामक रोमन राज्यपाल शासन करता था। यह राजनीतिक परतंत्रता यहूदियों को बहुत अखरती थी। वे अपने धर्मग्रंथ में वर्णित मसीह की राह देख रहे थे क्योंकि उन्हें आशा थी कि वह मसीह उनको रोमियों की ग़ुलामी से मुक्त करेंगे। दूसरी ओर, उनके यहाँ पिछली चार शताब्दियों में एक भी नबी प्रकट नहीं हुआ, अत: जब सन् 27 ई. में योहन बपतिस्ता यह संदेश लेकर बपतिस्मा देने लगे कि 'पछतावा करो, स्वर्ग का राज्य निकट है', तो यहूदियों में उत्साह की लहर दौड़ गई और वे आशा करने लगे कि मसीह शीघ्र ही आने वाला है।
उस समय ईसा ने अपने औजार छोड़ दिए तथा योहन से बपतिस्मा ग्रहण करने के बाद अपने शिष्यों को वह चुनने लगे और उनके साथ समस्त देश का परिभ्रमण करते हुए उपदेश देने लगे। यह सर्वविदित था कि ईसा बचपन से अपना सारा जीवन नाज़रेथ में बिताकर बढ़ई का ही काम करते रहे। अत: उनके अचानक धर्मोपदेशक बनने पर लोगों को आश्चर्य हुआ। सब ने अनुभव किया कि ईसा अत्यंत सरल भाषा तथा प्राय: दैनिक जीवन के दृष्टांतों का सहारा लेकर अधिकारपूर्वक मौलिक धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं।
धर्म का आधार
ईसा यहूदियों का धर्मग्रंथ (ईसाई बाइबिल का पूर्वार्ध) प्रामाणिक तो मानते थे किंतु वह शास्त्रियों की भाँति उसकी निरी व्याख्या ही नहीं करते थे, प्रत्युत उसके नियमों में परिष्कार करने का भी साहस करते थे। 'पर्वत-प्रवचन' में उन्होंने कहा--
मैं मूसा का नियम तथा नबियों की शिक्षा रद्द करने नहीं, बल्कि पूरी करने आया हूँ।'
वह यहूदियों के पर्व मनाने के लिए राजधानी जेरुसलेम के मंदिर में आया तो करते थे, किंतु वह यहूदी धर्म को अपूर्ण समझते थे। वह शास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित जटिल कर्मकांड का विरोध करते थे और नैतिकता को ही धर्म का आधार मानकर उसी को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देते थे। ईसा के अनुसार धर्म का सार दो बातों में है-
- मनुष्य का परमात्मा को अपना दयालु पिता समझकर समूचे हृदय से प्यार करना तथा उसी पर भरोसा रखना।
- अन्य सभी मनुष्यों को भाई बहन मानकर किसी से भी बैर न रखना, अपने विरुद्ध किए हुए अपराध क्षमा करना तथा सच्चे हृदय से सबका कल्याण चाहना। जो यह भ्रातृप्रेम निबाहने में असमर्थ हो वह ईश्वरभक्त होने का दावा न करे, भगवद्भक्ति की कसौटी भ्रातृप्रेम ही है।
जनता इस शिक्षा पर मुग्ध हुई तथा रोगियों को चंगा करना, मुर्दो को जलाना आदि, उनके द्वारा किए गये चमत्कार देखकर जनता ने ईसा को नबी के रूप में स्वीकार किया। तब ईसा ने धीरे-धीरे यह प्रकट किया कि मैं ही मसीह, ईश्वर का पुत्र हूँ, स्वर्ग का राज्य स्थापित करने स्वर्ग से उतरा हूँ। यहूदी अपने को ईश्वर की चुनी हुई प्रजा समझते थे तथा बाइबिल में जो मसीह और स्वर्ग के राज्य की प्रतिज्ञा है उसका एक भौतिक एवं राष्ट्रीय अर्थ लगाते थे। ईसा ने उन्हें समझाया कि मसीह यहूदी जाति का नेता बनकर उसे रोमियों की ग़ुलामी से मुक्त करने नहीं प्रत्युत सब मनुष्यों को पाप से मुक्त करने आए हैं। स्वर्ग के राज्य पर यहूदियों का एकाधिकार नहीं है, मानव मात्र इसका सदस्य बन सकता है। वास्तव में स्वर्ग का राज्य ईसा पर विश्वास करने वालों का समुदाय है जो दुनिया के अंत तक उनके संदेश का प्रचार करता रहेगा। अपनी मृत्यु के बाद उस समुदाय के संगठन और शासन के लिए ईसा ने बारह शिष्यों को चुनकर उन्हें विशेष शिक्षण और अधिकार प्रदान किए।
प्राणदंड
स्वर्ग के राज्य के इस आध्यात्मिक स्वरूप के कारण ईसा के प्रति यहूदी नेताओं में विरोध उत्पन्न हुआ। वे समझने लगे कि ईसा स्वर्ग का जो राज्य स्थापित करना चाहते हैं वह एक नया धर्म है जो यरुशलम के मंदिर से कोई संबंध नहीं रख सकता। अंततोगत्वा उन्होंने (संभवत: सन् 30 ई.में) ईसा को गिरफ़्तार कर लिया। सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। उनके शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्वासघात किया। यहूदियों की महासभा ने उनको इसलिए प्राणदंड दिया कि वह मसीह तथा ईश्वर का पुत्र होने का दावा करते हैं। रोमन राज्यपाल ने इस दंडाज्ञा का समर्थन किया और ईसा को क्रूस पर मरने का आदेश दिया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। ईसा ने क्रूस पर लटकते समय ईश्वर से प्रार्थना की, 'हे प्रभु, क्रूस पर लटकाने वाले इन लोगों को क्षमा कर। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।'[2]
स्वर्गारोहण
ईसा की गिरफ़्तारी पर उनके सभी शिष्य विचलित होकर छिप गए थे। उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने राज्यपाल की आज्ञा से उनको क्रूस से उतारकर दफ़ना दिया। दफ़न के तीसरे दिन ईसा की क़ब्र ख़ाली पाई गई, उसी दिन से, आस्थावानों का विश्वास है, वह पुर्नजीवित होकर अपने शिष्यों को दिखाई देने और उनके साथ वार्तालाप भी करने लगे। उस समय ईसा ने अपने शिष्यों को समस्त जातियों में जाकर अपने संदेश का प्रचार करने का आदेश दिया। पुनरुत्थान के 40 वें दिन ईसाई विश्वास के अनुसार, ईसा का स्वर्गारोहण हुआ।
व्यक्तित्व
ईसा की आकृति का कोई भी प्रामणिक चित्र अथवा वर्णन नहीं मिलता, तथापि बाइबिल में उनका जो थोड़ा बहुत चरित्रचित्रण हुआ है उससे उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होने के साथ ही अत्यंत आकर्षक सिद्ध हो जाता है। ईसा 30 साल की उम्र तक मज़दूर का जीवन बिताने के बाद धर्मोपदेशक बने थे, अत: वह अपने को जनसाधारण के अत्यंत निकट पाते थे। जनता भी उनकी नम्रता और मिलनसारिता से आकर्षित होकर उनको घेरे रहती थी, यहाँ तक कि उनको कभी-कभी भोजन करने तक की फुरसत नहीं मिलती थी।
वह बच्चों को विशेष रूप से प्यार करते थे तथा उनको अपने पास बुला बुलाकर आशीर्वाद दिया करते थे। वह प्रकृति के सौंदर्य पर मुग्ध थे तथा अपने उपदेशों में पुष्पों, पक्षियों आदि का उपमान के रूप में प्राय: उल्लेख करते थे। वह धन दौलत को साधना में बाधा समझकर धनियों को सावधान किया करते थे तथा दीन दुखियों के प्रति विशेष रूप से आकर्षित होकर प्राय: रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान कर अपनी अलौकिक शक्ति को व्यक्त करते थे, ऐसा लोगों का विश्वास है। वह पतितों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने वाले पतितपावन थे तथा शास्त्रियों के धार्मिक आंडबर के निंदक थे। एक बार उन्होंने उन धर्मपाखंडियों से कहा- वेश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगी। वह पिता परमेश्वर को अपने जीवन का केंद्र बनाकर बहुधा रात भर अकेले ही प्रार्थना में लीन रहते थे।
सहृदय और मिलनसार होते हुए भी वह नितांत अनासक्त और निर्लिप्त थे। आत्मसंयमी होते हुए भी उन्होंने कभी शरीर गलाने वाली घोर तपस्या नहीं की। वह पाप से घृणा करते थे, पापियों से नहीं। अपने को ईश्वर का पुत्र तथा संसार का मुक्तिदाता कहते हुए भी अहंकारशून्य और अत्यंत विनम्र थे। मनुष्यों में अपना स्नेह वितरित करते हुए भी वह अपना संपूर्ण प्रेम ईश्वर को निवेदित करते थे। इस प्रकार ईसा में एकांगीपन अथवा उग्रता का सर्वथा अभाव है, उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से संतुलित है।
ईसा मसीह के शिष्य
यीशु के कुल बारह शिष्य थे-
- पीटर
- एंड्रयू
- जेम्स (जबेदी का बेटा)
- जॉन
- फिलिप
- बर्थोलोमियू
- मैथ्यू
- थॉमस
- जेम्स (अल्फाइयूज का बेटा)
- संत जुदास
- साइमन द जिलोट
- मत्तिय्याह
सूली के बाद ही उनके शिष्य ईसा की वाणी लेकर 50 ईस्वी में हिन्दुस्तान आए थे। उनमें से एक 'थॉमस' ने ही भारत में ईसा के संदेश को फैलाया। उन्हीं की एक किताब है- 'ए गॉस्पेल ऑफ़ थॉमस'। चेन्नई शहर के सेंट थामस माउंट पर 72 ईस्वी में थॉमस एक भील के भाले से मारे गए।[2]
बाइबिल
बाइबिल ईसाइयों का पवित्र धर्मग्रंथ है। इसमें पुराने सिद्धांत या नियम को भी शामिल किया गया है। इसमें यहूदी धर्म और यहूदी पौराणिक कहानियों, नियमों आदि बातों का वर्णन है। नए नियम के अंतर्गत ईसा के जीवन और दर्शन के बारे में उल्लेख है। इसमें ख़ास तौर पर चार शुभ संदेश हैं जो ईसा के चार अनुयायियों मत्ती, लूका, युहन्ना और मरकुस द्वारा वर्णित हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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