उज्जैन

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उज्जैन
विवरण प्रकृति की गोद में क्षिप्रा नदी के किनारे बसा उज्जैन मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख धार्मिक नगर है।
राज्य मध्य प्रदेश
ज़िला उज्जैन ज़िला
मार्ग स्थिति यह शहर सड़कमार्ग द्वारा भोपाल लगभग 75 कि.मी. दूरी पर स्थित है।
प्रसिद्धि इसको कालिदास की नगरी भी कहा जाता है‎
कैसे पहुँचें किसी भी शहर से बस और टैक्सी द्वारा पहुँचा जा सकता है।
हवाई अड्डा भोपाल हवाई अड्डा,
रेलवे स्टेशन उज्जैन रेलवे स्टेशन
क्या देखें उज्जैन पर्यटन
एस.टी.डी. कोड 0176
गूगल मानचित्र, हवाई अड्डा
अन्य जानकारी उज्जैन साहित्य जगत कि अमूल्य धरोहर हैं।
उज्जैन उज्जैन पर्यटन उज्जैन ज़िला

उज्जैन भारत में क्षिप्रा नदी के किनारे बसा मध्य प्रदेश का एक प्रमुख धार्मिक नगर है। यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिये हुआ एक प्राचीन शहर है। उज्जैन महाराजा विक्रमादित्य के शासन काल में उनके राज्य की राजधानी थी। इसको कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। उज्जैन में हर 12 वर्ष के बाद 'सिंहस्थ कुंभ' का मेला जुड़ता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक 'महाकालेश्वर' इसी नगरी में है। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध नगर इन्दौर से यह 55 कि.मी. की दूरी पर है। उज्जैन के अन्य प्राचीन प्रचलित नाम हैं- 'अवन्तिका', 'उज्जैयनी', 'कनकश्रन्गा' आदि। उज्जैन मन्दिरों का नगर है। यहाँ अनेक तीर्थ स्थल है। इसकी जनसंख्या लगभग 4 से 5 लाख के लगभग है।

इतिहास

उज्जैन का प्राचीन इतिहास काफ़ी विस्तृत है। यहाँ के गढ़ क्षेत्र में हुई खुदाई में ऐतिहासिक एवं प्रारंभिक लौह युगीन सामग्री अत्यधिक मात्रा में प्राप्त हुई है। महाभारतपुराणों में उल्लेख है कि वृष्णि संघ के कृष्णबलराम उज्जैन में गुरु संदीपन के आश्रम में विद्या प्राप्त करने आये थे। कृष्ण की पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की राजकुमारी थीं और उनके दो भाई 'विन्द' एवं 'अनुविन्द' ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की तरफ़ से युद्ध किया था। उज्जैन का एक अन्य अत्यंत प्रतापी राजा हुआ है, जिसका नाम चंडप्रद्योत था। भारत के अन्य राजा भी उससे ड़रते थे। ईसा की छठी सदी में वह उज्जैन का शासक था। उसकी पुत्री वासवदत्ता एवं वत्स राज्य के राजा उदयन की प्रेम कथा इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है। बाद के समय में उज्जैन मगध साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया था।

कालीदास की प्रिय नगरी

उज्जयिनी के इतिहास प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में महाकवि कालिदास प्रमुख थे। कालिदास को उज्जयिनी अत्यधिक प्रिय थी। इसी कारण से कालिदास ने अपने काव्य ग्रंथों में उज्जयिनी का अत्यधिक मनोरम और सुंदर वर्णन किया है। महाकवि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के आश्रय में रहकर काव्य रचना किया करते थे। कालिदास ने उज्जयिनी में ही अधिकतर प्रवास किया और उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को बढ़ते देखा। पर कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। यहाँ रहकर महाकवि ने वैभवशाली ऐतिहासिक अट्टालिकाओं को देखा, उदयन और वासवदत्ता की प्रेमकथा को अत्यन्त भावपूर्ण लिपिबद्ध किया। भगवान महाकालेश्वर की संध्या कालीन आरती को और क्षिप्रा नदी के पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व से भली-भांति परिचित होकर उसका अत्यंत मनोरम वर्णन किया, जो आज भी साहित्य जगत् कि अमूल्य धरोहर है।

अपनी रचना 'मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का बहुत ही सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि- "जब स्वर्गीय जीवों को अपना पुण्य क्षीण हो जाने पर पृथ्वी पर आना पड़ा, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग भूमि का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चलते हैं। वही स्वर्ग खंड उज्जयिनी है।" महाकवि ने लिखा है कि- "उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है, जहाँ के वृद्धजन इतिहास प्रसिद्ध अधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्णत: प्रवीण हैं। कालिदास कृत 'मेघदूत' में वर्णित उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलुप्त हो गया हो, परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है। साथ ही उज्जयिनी ज्योतिष के क्षेत्र में भी प्रसिद्ध है। सात पुराणों में वर्णित प्रसिद्ध नगरियों में उज्जयिनी प्रमुख स्थान रखती है। उज्जयिनी में प्रत्येक बारह वर्षों में सिंहस्थ कुम्भ नामक महापर्व का आयोजन होता है। कुम्भ के पावन अवसर पर देश-विदेश से करोडों श्रद्धालु, भक्तजन, साधु-संत, महात्मा एवं अखाड़ों के मठाधीश प्रमुख रूप से उज्जयिनी में कल्पवास करके मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं।

प्रमाणिक इतिहास

उज्जयिनी का प्रमाणिक इतिहास ई. सन 600 वर्ष के लगभग का मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में सोलह महाजनपद थे। उनमें से अवंति जनपद भी एक था। अवंति जनपद उत्तर एवं दक्षिण दो भागों में विभक्त था। उत्तरी भाग की राजधानी उज्जयिनी थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी 'महिष्मति' थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नाम का राजा सिंहासन पर था। इस प्रद्योत राजा के वंशजों का उज्जयिनी पर लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी तक शासन रहा था।

मौर्य शासक

'भारतीय इतिहास' में प्रसिद्ध मौर्य काल का सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी यहाँ आया था और उसका पौत्र अशोक उज्जयिनी का राज्यपाल भी रहा था। उसकी एक पत्नी देवी से महेंद्र और 'संघमित्रा' नामक पुत्र और पुत्री हुई थी, जिन्होंने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार किया था। मौर्य साम्राज्य के स्थापित होने पर मगध के सम्राट बिन्दुसार का पुत्र अशोक उज्जयिनी का शासक नियुक्त हुआ था। बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक ने उज्जयिनी का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में सम्भाला। यह उज्जयिनी के सर्वांगीण विकास का समय था। सम्राट अशोक के बाद उज्जयिनी ने अनेकों सम्राटों का पतन और उत्थान देखा।

मौर्य साम्राज्य का पतन

मौर्य साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक अशोक के बाद उज्जयिनी शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का मुख्य केंद्र बन गई। शकों के पहले आक्रमण को उज्जयिनी के वीर शासक विक्रमादित्य ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था, किन्तु कालांतर में विदेशी शकों ने उज्जयिनी पर अपना अधिकार कर लिया। चस्टनरुद्रदामन शक वंश के प्रतापी व लोकप्रिय महाक्षत्रप हुए थे।

गुप्त साम्राज्य

चौथी शताब्दी ई. में गुप्त और औलिकरों ने मालवा से शकों की शासन सत्ता समाप्त कर दी। शक और गुप्तों के काल में उज्जयिनी क्षेत्र का आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ। छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन कलचुरियों, मैत्रकों, उत्तर गुप्तों, पुष्यभूतियों, चालुक्यों, राष्ट्रकूटोंप्रतिहारों की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा।

अन्य राजवंशों का अधिकार

सातवीं शताब्दी में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसके समय में उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास हुआ। सन 648 ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद नवीं शताब्दी तक उज्जैन परमार शासकों के आधिपत्य में आया, जिनका शासन गयारहवीं शताब्दी तक चलता रहा। इस समय में उज्जैन की क्रमिक उन्नति होती रही। परमारों के बाद उज्जैन पर चौहान और तोमर राजपूतों ने अधिकारों कर लिया। सन 1000 से 1300 ई. तक मालवा पर परमार राजाओं का शासन रहा और बहुत समय तक परमार राजाओं की राजधानी उज्जैन रही। इस समय में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन जैसे अनेक महान् शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की उन्नति में अपना समय लगाया।

दिल्ली सल्तनत

इसी समय दिल्ली के दास एवं ख़िलजी वंश के शासकों ने मालवा पर आक्रमण किया, जिससे परमार वंश का पतन हो गया। सन 1235 ई. में दिल्ली का शासक शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा पर विजय प्राप्त करके उज्जैन की और आया और उस क्रूर शासक ने उज्जैन को बहुत बुरी तरह लूटा और यहाँ के प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव भी नष्ट कर दिया। सन 1406 में मालवा दिल्ली सल्तनत से आज़ाद हो गया। ख़िलजी व अफ़ग़ान सुल्तान स्वतंत्र रूप से राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब मालवा को अपने अधिकार में लिया तो अकबर ने उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया। मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँऔरंगजेब ने यहाँ शासन किया।

मराठों का अधिकार

सन 1737 ई. में उज्जैन पर सिंधिया वंश का अधिकार हो गया। सन 1880 ई. तक यहाँ सिंधिया शासकों का एकछत्र राज्य रहा, जिसमें उज्जैन का विकास होता रहा। सिंधिया शासकों की राजधानी उज्जैन बनी। महाराज राणोजी सिंधिया ने 'महाकालेश्वर मंदिर' का जीर्णोद्धार कराया। सिंधिया वंश के संस्थापक शासक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने आजकल उज्जैन में स्थित महाकाल के मंदिर का निर्माण कराया। सन 1810 में सिंधिया शासक राज्य की राजधानी को ग्वालियर में ले आये, किन्तु उसके बाद भी उज्जैन का विकास होता रहा। 1948 में ग्वालियर को नवीन मध्य भारत में मिला लिया गया।

आज भी उज्जयिनी में अनेक धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक मंदिर और भवन हैं, जिनमें भगवान महाकालेश्वर मंदिर, चौबीस खंभा देवी, गोपाल मंदिर, काल भैरव, बोहरो का रोजा, विक्रांत भैरव, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिद्धि माँ का मंदिर, गढ़कालिका देवी का मंदिर, मंगलनाथ का मंदिर, सिद्धवट, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि की गुफ़ा, पीर मछन्दरनाथ की समाधि, कालिया दह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।

आधुनिक उज्जैन

उज्जैन नगर विंध्य पर्वतमाला के पास और पवित्र क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से 1678 फीट की ऊंचाई पर 23 डिग्री .50' उत्तर देशांश और 75 डिग्री .50' पूर्वी अक्षांश पर है। नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है। यहाँ की भूमि उपजाऊ है। महाकवि कालिदास और महान् रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की ख़ूबसूरती को बहुत ही सुन्दर रूप से वर्णित किया है। महाकवि कालिदास लिखते है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में स्थित हैं और समुद्रों के पास केवल जल ही बचा है। उज्जैन नगर की प्रमुख और आंचलिक बोली मीठी मालवी बोली है। हिन्दी का भी प्रयोग किया जाता है।

उज्जैन भारत के इतिहास के अनेक बड़े परिवर्तनों का गवाह है। क्षिप्रा के अंतस्थल में इस ऐतिहासिक नगर के उत्थान और पतन की अनोखी और स्पष्ट अनुभूतियां अंकित है। क्षिप्रा के प्राकृतिक घाटों पर प्राकृतिक सौन्दर्य की अनोखी छटा बिखरी हुई है, जहाँ असंख्य लोगों का आवागमन रहता है, चाहे रंगों से परिपूर्ण कार्तिक मेला हो या भीड़ से भरा सिंहस्थ कुम्भ का मेला या साधारण दिनचर्या में क्षिप्रा का स्नान। नगर को तीन और से घेरे क्षिप्रा सबके मन को आकर्षित करती है। क्षिप्रा के घाट सुबह-सुबह महाकाल और हरसिध्दि मंदिरों की स्तुति का स्वागत करते हैं।

क्षिप्रा नदी जब उफान पर आती है तो गोपाल मंदिर की देहरी को छू लेती है। दुर्गादास की छत्री से थोडा ही आगे चल कर नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के पास घूम जाती है। भर्तृहरि जी की गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका माँ का मंदिर पार करके नदी भगवान मंगलनाथ जी के पास पहुंचती है। मंगलनाथ जी का मंदिर सान्दीपनि आश्रम के पास ही है और पास में ही श्री राम-जनार्दन मंदिर के पास सुंदर दृश्य हैं। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुडकर क्षिप्रा कालियादह महल को घेरते हुई लगभग सभी ऐतिहासिक स्थानों पर होकर शान्त भाव से उज्जैन से आगे अपनी यात्रा की ओर बढ़ जाती है। कवि, भक्त, साधु, कलाकार, संत हों या पर्यटक, क्षिप्रा के मनोरम तट पग-पग पर मंदिरों से युक्त सभी श्रद्धालुओं के लिए सम्मान और प्रेरणा के आधार है।

उज्जयिनी नगरी

प्राचीन समय में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती आदि अनेक नामों से जाना जाने वाला नगर ही आज उज्जैन के नाम से प्रसिद्ध है। सभ्यता के उदय से ही यह नगर भारत के प्रमुख तीर्थ-स्थल के रूप में जाना गया । पवित्र क्षिप्रा के दाहिने तट पर स्थित इस नगर को भारत की 'सप्तपुरियों' में से एक माना जाता है।

पर्यटन

महाकालेश्वर मंदिर

महाकालेश्वर मन्दिर, उज्जैन

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का पुराणों और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान मालवा क्षेत्र में स्थित क्षिप्रा नदी के किनारे विद्यमान है। जब सिंह राशि पर बृहस्पति ग्रह का आगमन होता है, तो यहाँ प्रत्येक बारह वर्ष पर महाकुम्भ का स्नान और मेला लगता है। उज्जैन नगर के महाकालेश्वर की मान्यता बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक की है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिद्ध कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोगों के मानस में महाकाल मंदिर की परम्परा अनादि काल से है। प्राचीन काल से ही उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु है और श्री महाकाल उज्जैन नगर के अधिपति आदिदेव माने जाते हैं।

भारतीय इतिहास के प्रत्येक काल में शुंग, कुषाण, सातवाहन, गुप्त, परिहार तथा मराठा काल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जाता रहा है। आधुनिक मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के समय में मालवा के सूबेदार श्री रामचंद्र बाबा शेणवी ने कराया था। आजकल भी मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं सुविधा विस्तार का कार्य चलता रहता है। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक पूजा में दक्षिणमुखी पूजा का महत्त्व बारह ज्योतिर्लिंगों में से केवल बाबा महाकालेश्वर को ही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति की तरह ओंकारेश्वर शिव जी की प्रतिष्ठा है। तीसरे भाग में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी के दिन को ही होते हैं। महाराजा विक्रमादित्य और राजा भोज की महाकाल पूजा के लिए लिखी गयीं शासकीय सनदें महाकाल मंदिर में प्राप्त होती रही है। आजकल यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित व सुरक्षित है।

श्री बड़े गणेश मंदिर

श्री श्री महाकालेश्वर मंदिर के पास हरसिध्दि मार्ग पर बडे गणेश जी की भव्य और कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति को पद्मविभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के पिता, विख्यात विद्वान् स्व. पं. नारायण जी व्यास ने निर्मित कराया था। मंदिर के परिसर में सप्तधातु से बनी पंचमुखी हनुमान जी की प्रतिमा के साथ ही साथ नवग्रह मंदिर और श्रीकृष्ण और यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजमान हैं।

मंगलनाथ मंदिर

मंगलनाथ मंदिर, उज्जैन

पुराणों में यह वर्णन आया है कि उज्जयिनी नगरी मंगल की जननी है। वह व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल की दशा भारी रहती है, वह लोग अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए पूजा-पाठ करवाने के लिए उज्जैन नगर आते हैं। वैसे देश में मंगल भगवान के अनेक मंदिर हैं, किन्तु उज्जैन में मंगल का जन्मस्थान होने के कारण इस जगह की पूजा को अधिक महत्त्व दिया जाता है। मान्यता है कि यह मंदिर बहुत ही पुराना है। सिंधिया राजघराने ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल का नगर कहा जाता है, अतएव यहाँ मंगल भगवान की शिव रूपी प्रतिमा की श्रद्धा भावना के साथ पूजा की जाती है। प्रत्येक मंगलवार को मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है।

हरसिध्दि मंदिर

उज्जैन नगर के प्राचीन धार्मिक स्थलों में हरसिध्दि देवी का मंदिर प्रमुख है। श्री चिन्तामण गणेश मंदिर से कुछ ही दूरी पर और रुद्रसागर तालाब के किनारे पर स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिध्दि देवी की पूजा की थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य देवी रही हैं। शिव पुराण के अनुसार राजा दक्ष के द्वारा किये गये यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहाँ पर गिरी थी।

क्षिप्रा घाट

उज्जैन नगर के धार्मिक नहरी होने में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दायें किनारे पर, जहां उज्जैन नगर स्थित है, सीढ़ीबध्द घाट हैं। इन घाटों पर अनेक देवी-देवताओं के नये व पुराने मंदिर है। क्षिप्रा के घाटों की सुन्दरता सिंहस्थ कुम्भ के समय देखते ही बनती है, जब लाखों-करोडों श्रध्दालु यहाँ भक्ति और श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं।

गोपाल मंदिर

द्वारकाधीश गोपाल मंदिर, उज्जैन

उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बड़ा 'मंदिर गोपाल' मंदिर माना जाता है। यह मंदिर नगर के व्यस्ततम भाग में स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने सन् 1833 के लगभग कराया था। इस मंदिर में नाम के अनुसार कृष्ण (गोपाल) की प्रतिमा है। इस मंदिर के चांदी के द्वार आकर्षण का केन्द्र हैं।

गढ़कालिका देवी

उज्जैन में स्थित गढ़कालिका देवी का मंदिर वर्तमान उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में हैं। महाकवि कालिदास गढ़कालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का महाराजा हर्षवर्धन द्वारा जीर्णोद्धार कराने का उल्लेख भी मिलता है। माँ कालिका के इस मंदिर में दर्शन के लिए रोज़ हज़ारों भक्तों की भीड़ एकत्र होती है। देवी कालिका तांत्रिकों की देवी मानी जाती हैं । इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारत काल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सत्य युग की है। बाद में इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराजा हर्षवर्धन द्वारा कराए जाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। ग्वालियर के महाराजा ने भी इसका पुनर्निर्माण कराया था।

भर्तृहरि गुफा

भर्तृहरि गुफ़ा

ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर के अवशेष को भर्तृहरि की गुफा कहा जाता है, जिसका समय समय पर जीर्णोद्धार होता रहा ।

काल भैरव

उज्जैन नगर में काल भैरव मंदिर प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह मंदिर शिव जी के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है। आज भी मंदिर के अंदर काल भैरव की एक विशाल प्रतिमा है। किंवदन्ती है कि प्राचीन काल में इस मंदिर का निर्माण राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

सिंहस्थ कुम्भ

सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन का महान् स्नान पर्व है। यह पर्व बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है, उस समय सिंहस्थ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान का महात्यम चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ हो जाता हैं और वैशाख मास की पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होता है। उज्जैन के प्रसिद्ध कुम्भ महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

पूरे देश में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन। उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। जब मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु आ जाता है तब उस समय उज्जैन में महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से देश भर में कहा जाता है। सिंहस्थ महाकुम्भ के आयोजन की प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित है। समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर ही आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है।


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