उत्तंग (वेद शिष्य)

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Disamb2.jpg उत्तंग एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- उत्तंग (बहुविकल्पी)

उत्तंग आचार्य वेद के शिष्यों में से एक थे। उत्तंग अपने गुरु वेद के बड़े समझदार और मेधावी शिष्य थे। राजा जन्मेजय और पौष्य ने जब यज्ञ का आयोजन किया, तो आचार्य वेद को यज्ञ का पुरोहित नियुक्त किया गया। इसीलिए आचार्य वेद घर की समस्त आवश्यकताओं का भार उत्तंग पर ही छोड़ गये थे।

गुरु दक्षिणा

वेद स्वयं एक कठोर स्वभाव वाले गुरु के शिष्य रहे थे, अत: अपने शिष्यों के प्रति वे बहुत आर्द्र रहते थे। उत्तंक पर घर की आवश्यकताओं का भार छोड़कर वेद जन्मेजय और पौष्य के आयोजित यज्ञ के पुरोहित बने। उत्तंक गुरु परिवार की सेवा में लगे हुए थे। एक दिन आश्रम में रहने वाली एक स्त्री ने उत्तंक से कहा कि, गुरुपत्नी रजस्वला के बाद ऋतुकाल को निष्फल देख बहुत दुखी है। उनके कष्ट का निवारण करो। उत्तंक ने कहा कि गुरु ने निद्यकार्य करने का आदेश नहीं दिया है। उपाध्याय ने परदेश से लौटकर सब सुना तो प्रसन्न होकर घर जाने की आज्ञा दी। उन्होंने गुरु दक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की। पहले तो उपाध्याय टालते रहे, फिर कहा कि, अंत:पुर में जाकर वह गुरुपत्नी से पूछे। गुरुपत्नी ने राजा पौष्य की पत्नी के कानों के कुंडल प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। वह चार दिन बाद होने वाले उत्सव में उन्हें पहनना चाहती थी।

कुंडल की प्राप्ति

उत्तंक राजा पौष्य के राज्य की ओर बढ़े। रास्ते में एक विशालकाय व्यक्ति विशालकाय बैल पर जाता हुआ मिला। उसने उत्तंक से कहा कि वह बैल के गोबर तथा गौमूत्र का पान करे। उनके संकोच को देखकर वह बोला कि उनके (उत्तंक) गुरु ने भी ऐसे ही पान किया था। उत्तंक गोबर और मूत्र का पान करके राजा पौष्य के दरबार में पहुँचे। राजसिंहासन पर वही विशालकाय पुरुष बैठा दिखाई दिया। उत्तंक के वहाँ आने का उद्देश्य जानकर राजा ने उन्हें अंत:पुर में जाकर रानी से कुंडल मांगने को कहा। वह अंत:पुर में गये, तो उन्हें रानी कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ी। लौटकर उन्होंने राजा को बताया, तो राजा ने उन्हें याद दिलाया की वह जूठे मुँह से गये थे। उच्छिष्ट[1] व्यक्ति को रानी दर्शन नहीं देती। स्नान आदि के उपरान्त वह पुन: अंत:पुर में गये। रानी ने कुंडल उतारकर तुरन्त उसे दे दिये तथा उन्हें तक्षक से सावधान रहने का आदेश दिया, क्योंकि वह भी कुंडल प्राप्त करने का इच्छुक था।

तक्षक द्वारा कुंडलों की चोरी

अंत:पुर से लौटने पर राजा ने उन्हें श्राद्ध के निमित्त भोजन करवाया। भोजन ठंडा था तथा उसमें से एक बाल भी निकला। उत्तंक ने दूषित भोजन से रुष्ट होकर राजा को अंधे होने का शाप दिया। राजा ने क्रोधवश उत्तंक को संतानहीन होने का शाप दिया। बाद में राजा ने माना की भोजन दूषित था। क्षमा-याचना करके उसने उत्तंक से एक वर्ष बाद पुन: ज्योति प्राप्त करने का वर प्राप्त किया। किन्तु अकारण क्रुद्ध होने पर भी अपना शाप वापस लेने में असमर्थता प्रकट की। उत्तंक ने कहा, "निराधार शाप लग ही नहीं सकता, जबकि तुमने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि भोजन दूषित था।" उत्तंक कुंडल लेकर चल पड़े। मार्ग में उन्होंने एक नग्न क्षपणक को अपना पीछा करते हुए देखा। एक जलाशय के पास वह कुंडल रखकर स्नान करने लगे तो वह क्षपणक कुंडल उठाकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया, पकड़े जाने पर क्षपणक तुरन्त अपनी असली रूप में आ गया। वह वास्तव में तक्षक था। वह भूमि के किसी विवर[2] में घुस गया। उसके पीछे-पीछे उत्तंक भी नागलोक में पहुँच गये। नागों की पर्याप्त स्तुति करने पर भी उन्हें वे कुंडल प्राप्त नहीं हुए। उन्होंने दो स्त्रियों को काले और सफ़ेद रंग के धागों में कपड़ा बुनते देखा। उन्होंने बारह अंकों का एक चक्र भी देखा, जिसे छह कुमार घुमा रहे थे। वहीं पर एक श्रेष्ठ पुरुष भी खड़ा था, जिसके पास एक घोड़ा था। उत्तंक ने श्लोकों से उसकी स्तुति की। चक्र को कालचक्र तथा बुने हुए वस्त्र को वासना जल के समान मानकर श्लोक की रचना की।

प्रसन्न होकर पुरुष ने उन्हें वर मांगने के लिए कहा। उन्होंने नागलोक आधिपत्य मांगा। उस पुरुष ने कहा, "इस अश्व की गुदा में फूंक मारो।" उत्तंक के वैसा करने पर अश्व के लोमकूपों से आग की लपटें निकलने लगीं तथा समस्त नागलोक धुएँ से भर गया। तक्षक घबरा गया। उसने तुरन्त ही दोनों कुंडल उत्तंक को दे दिये। उत्तंक बहुत उदग्नि थे, कि यथासमय तक गुरुपत्नी के पास नहीं पहुँच पायेंगे। पुरुष ने उनकी समस्या का समाधान करते हुए उन्हें उसी अश्व से गुरुपत्नी के पास जाने का आदेश दिया। उत्तंक उस घोड़े से तुरन्त ही गुरुपत्नी की सेवा में जा पहुँचा। गुरुपत्नी समारोह में जाने के लिए तैयार थीं तथा कुंडल न मिल पाने के कारण उन्हें शाप देने वाली थीं। कुंडल पाकर वह प्रसन्न हो गईं।

जन्मेजय से भेंट

उत्तंक ने गुरु से जाकर समस्त विवरण कह सुनाया तथा गुरु से काला व सफ़ेद कपड़ा बुनने, चक्र चलने, बैल और पुरुष के दर्शन तथा अन्य एक पुरुष के साथ अश्व के विषय में पूछा। गुरु ने बताया, "जो दो स्त्रियाँ कपड़ा बुन रही थीं, वे धाता और विधाता थीं। काले-सफ़ेद धागे रात और दिन हैं। बारह अंकों से बना चक्र जो छह कुमार घुमा रहे थे-वे छ: ऋतुएँ हैं-वह चक्र ही संवत्सर है। पुरुष इंद्र तथा अश्व अग्नि थे। मार्ग में मिलने वाला पुरुष नागराज और बैल ऐरावत था। तुम्हारा जीवित रहना इस सत्य का द्योतन करता है कि गोबर अमृत था। इंद्र मेरा मित्र है, अत: उसने तुम्हें अमृत प्रदान करके नागलोक से जीवित लौट आने का अवसर दिया। अब तुम अपने घर जाओ-तुम्हारा कल्याण होगा। मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से अति प्रसन्न हूँ।" उत्तंक तक्षक से बदला लेने की भावना के साथ जन्मेजय के पास पहुँचे। जन्मेजय तक्षशिला पर विजय प्राप्त करके लौटा था। उत्तंक ने जन्मेजय से कहा कि उनके पिता परीक्षित की हत्या अकारण ही हुई। तक्षक ने परीक्षित की रक्षा करने वाले काश्यप नामक ब्राह्मण को भी उन तक नहीं पहुँचने दिया था। अत: जन्मेजय को सर्पयज्ञ का अनुष्ठान करके तक्षक का नाश कर देना चाहिए। उत्तंक ने आपबीती दुर्घटनाएँ भी राजा को सुना दीं। राजा जन्मेजय पिता की हत्या का विवरण सुनकर बहुत उदास हो गया।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय मिथक कोश |लेखक: डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति |प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 33 |

  1. अपवित्र
  2. (बिल, छिद्र,)
  3. ...म. भा., आदिपर्व, अध्याय 3, श्लोक 81-188

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