करुणालहरी

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करुणालहरी पण्डितराज जगन्नाथ द्वारा रचित है।

  • पण्डितराज जगन्नाथ की ‘गंगालहरी’ का नाम कौन नहीं जानता? उन्हीं की एक अत्यन्त अद्भुत सरस कृति ‘करुणालहरी’ है।
  • करुणालहरी के एक पद्य में जगन्नाथ कहते हैं- "भगवान! मैं तो नरकों की तरह-तरह की यातनाओं से परिचित हूँ, मेरी लज्जा भी विदा हो चुकी है, फिर दूसरों के द्वारों पर भटकने से मेरा क्या बिगड़ेगा? परन्तु नाथ! जरा आपको सूक्ष्म दृष्टि से विचारना चाहिये, जनता आपको क्या कहेगी?"

“नितरां नरकेऽपि सीदतः किमु हीनं गलितत्रपस्य मे।
भगवन् कुरु सूक्ष्ममीक्षणं परतस्त्वां जनता किमालपेत्।।”


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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