कालिंजर
कालिंजर
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राज्य | उत्तर प्रदेश |
ज़िला | बाँदा |
निर्माता | चंद्रवर्मा |
निर्माण काल | 10वीं शताब्दी लगभग |
भौगोलिक स्थिति | विंध्याचल पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित। |
प्रसिद्धि | ऐतिहासिक पर्यटन स्थल |
खजुराहो | |
बांदा | |
बाँदा शहर से बस द्वारा बारास्ता गिरवाँ, नरौनी, कालिंजर पहुँचा जा सकता है। | |
निर्माण सामग्री | ग्रेनाइट पाषाण |
अधिकृत | उत्तर प्रदेश सरकार |
अन्य जानकारी | कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में लाल रंग के चमकदार पत्थर से प्राचीन काल में सोना बनाया जाता था। |
कालिंजर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बांदा ज़िले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाला एक ऐतिहासिक दुर्ग है। भारतीय इतिहास में सामरिक दृष्टि से यह क़िला काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहो के निकट ही स्थित है। कालिंजर दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय क़िलों में एक माना जाता है। एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित इस क़िले में अनेक स्मारकों और मूर्तियों का खजाना है। इन चीज़ों से इतिहास के विभिन्न पहलुओं का पता चलता है। चंदेलों द्वारा बनवाया गया यह क़िला चंदेल वंश के शासन काल की भव्य वास्तुकला का उम्दा उदाहरण है। इस क़िले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल क़िले में भव्य महल और छतरियाँ हैं, जिन पर बारीक डिज़ाइन और नक्काशी की गई है। क़िला हिन्दू भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। क़िले में नीलकंठ महादेव का एक अनोखा मंदिर भी है।
इतिहास
इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर क़िला हर युग में विद्यमान रहा है। इस क़िले के नाम अवश्य बदलते गये हैं। इसने सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से ख्याति पायी है। कालिंजर का अपराजेय क़िला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर महमूद ग़ज़नवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में अकबर ने 1569 ई. में यह क़िला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह क़िला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद क़िले पर पन्ना के हरदेव शाह का क़ब्ज़ा हो गया। 1812 ई. में यह क़िला अंग्रेज़ों के अधीन हो गया।[1]
कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता राधाकृष्ण बुंदेली व बीडी गुप्त बताते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।
इस दुर्ग के निर्माणकर्ता के नाम का ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता, पर जनश्रुति के अनुसार चंदेल वंश के संस्थापक चंद्रवर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया था। चन्देल शासकों द्वारा 'कालिन्जराधिपति' (कालिंजर के अधिपति) की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक़ इस दुर्ग का निर्माण केदारवर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने करवाया था। कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। दुर्ग में प्रवेश के लिए तीन द्वार कामता द्वार, रीवां द्वार व पन्नाद्वार हैं। पन्नाद्वार इस समय बंद है।
स्थापत्य
कालिंजर दुर्ग विंध्याचल की पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। दुर्ग की कुल ऊंचाई 108 फ़ीट है। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली आदि। प्रतीत होता है कि इसकी संरचना वास्तुकार ने अग्निपुराण, बृहदसंहिता तथा अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है। क़िले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है, जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं। यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं, जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे आपस में एक-दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं। यहाँ के स्तंभों एवं दीवारों में कई प्रतिलिपियां बनी हुई हैं, जिनमें मान्यता के अनुसार यहाँ के छुपे हुए खजाने की जगह का रहस्य भी छुपा हुआ है।
शिलालेख व प्रशस्तियाँ
कालिंजर दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही इतिहासकारों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख एवं गुफ़ाएं आदि सभी उनके रुचि के साधन हैं। कालिंजर दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग 20 हजार वर्ष पुरानी शंखलिपि स्थित है, जिसमें रामायण काल में वनवास के समय राम के कालिंजर आगमन का भी उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुंड के पास सीता सेज में ठहरे थे। कालिंजर शोध संस्थान के तत्कालीन निदेशक अरविंद छिरौलिया के कथनानुसार इस दुर्ग का विवरण अनेक हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों जैसे पद्मपुराण व वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। इसके अलावा बुड्ढा-बुड्ढी सरोवर व नीलकंठ मंदिर में नौवीं शताब्दी की पांडुलिपियां संचित हैं, जिनमें चंदेल वंश कालीन समय का वर्णन मिलता है।
दुर्ग के प्रथम द्वार में 16वीं शताब्दी में औरंगज़ेब द्वारा लिखवाई गई प्रशस्ति की लिपि भी है। दुर्ग के समीपस्थ ही काफिर घाटी है। इसमें शेरशाह सूरी के भतीजे इस्लामशाह की 1545 ई. में लगवायी गई प्रशस्ति भी यहाँ उपस्थित है। इस्लामशाह ने अपना दिल्ली पर राजतिलक होने के बाद यहाँ के कोटि तीर्थ में बने मन्दिरों को तुड़वाकर उनके सुन्दर नक्काशीदार स्तंभों का प्रयोग यहाँ बनी मस्जिद में किया था। इसी मस्जिद के बगल में एक चबूतरा बनवाया था, जिस पर बैठकर उसने ये शाही फ़रमान सुनाया था कि अब से कालिंजर कोई तीर्थ नहीं रहेगा एवं मूर्ति-पूजा को हमेशा के लिये निषेध कर दिया था। इसका नाम भी बदल कर शेरशाह की याद में 'शेरकोह' (अर्थात शेर का पर्वत) कर दिया था। बी. डी. गुप्ता के अनुसार कालिंजर के यशस्वी राजा व रानी दुर्गावती के पिता कीर्तिवर्मन सहित उनके 72 सहयोगियों की हत्या भी उसी ने करवायी थी। दुर्ग में ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व के ढेरों शिलालेख जगह-जगह मिलते हैं, जिनमें से अनेक लेख हजारों वर्ष पूर्व अति प्राचीन काल के भी हैं।
नीलकंठ मन्दिर
क़िले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकंठ महादेव का एक प्राचीन मंदिर भी स्थापित है। इस मंदिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफ़ाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है। बुन्देलखण्ड का यह क्षेत्र अपने सूखे के कारण भी जाना जाता है, किन्तु कितना भी सूखा पड़े, यह स्रोत कभी नहीं सूखता है। चन्देल शासकों के समय से ही यहाँ की पूजा-अर्चना में लीन चन्देल राजपूत जो यहाँ पण्डित का कार्य भी करते हैं, वे बताते हैं कि शिवलिंग पर उकेरे गये भगवान शिव की मूर्ति के कंठ का क्षेत्र स्पर्श करने पर सदा ही मुलायम प्रतीत होता है। यह भागवत पुराण के सागर मंथन के फलस्वरूप निकले हलाहल विष को पीकर, अपने कंठ में रोके रखने वाली कथा के समर्थन में साक्ष्य ही है। मान्यता है कि यहाँ शिवलिंग से पसीना भी निकलता रहता है।
ऊपरी भाग स्थित जलस्रोत हेतु चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए हैं, जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहा जाता है। इसी के नीचे के भाग में चट्टानों को तराशकर बनायी गई कालभैरव की एक प्रतिमा भी है। इनके अलावा परिसर में सैकड़ों मूर्तियाँ चट्टानों पर उत्कीर्ण की गई हैं। शिवलिंग के समीप ही भगवती पार्वती एवं भैरव की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ही ओर ढेरों देवी-देवताओं की मूर्तियां दीवारों पर तराशी गयी हैं। कई टूटे स्तंभों के परस्पर आयताकार स्थित स्तंभों के अवशेष भी यहाँ देखने को मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार इन पर छह मंजिला मन्दिर का निर्माण किया गया था। इसके अलावा भी यहाँ ढेरों पाषाण शिल्प के नमूने हैं, जो कालक्षय के कारण जीर्णावस्था में हैं।
निकटवर्ती दर्शनीय स्थल
यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई दर्शनीय स्थल हैं, जो पुरा-पाषाण काल से बुन्देल शासकों के समय तक के हैं। इनमें रौलीगोंडा, मईफ़ा, बिल्हरियामठ, ऋषियन, शेरपुर श्योढ़ा, रनगढ़, अजयगढ़, आदि हैं। प्राकृतिक दृष्टि से आकर्षक स्थलों की भी कमी नहीं है। इनमें बाणगंगा, व्यासकुण्ड, भरत कूप, पाथरकछार, बृहस्पति कुण्ड, लखनसेहा, किशनसेहा, सकरों एवं मगरमुहा, आदि आते हैं। इन स्थानों में अनेक खनिज एवं विभिन्न वन सम्पदाएं भी मिलती हैं।
विश्व धरोहर हेतु प्रयास
इस ऐतिहासिक स्थल की राज्य सरकार द्वारा पूरी तरह से देखरेख के अभाव में स्थल का अनुरक्षण कार्य भली-भांति नहीं हो पा रहा है। 'भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग' भी बजट में राशि की कमी के कारण इस स्थल को देय योगदान नहीं दे पा रहा है। 'अखिल भारतीय बुंदेलखंड विकास मंच' के प्रयासों से इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित कराने हेतु अथक प्रयास किये गए हैं, जिनमें अब पुरातत्त्व विभाग भी जुड़ गया है। विश्वदाय स्थल कराने हेतु यहाँ लगभग सभी मानदंड पूरे होते हैं। एक बार यूनेस्को की इस सूची में कालिंजर के जुड़ जाने पर यह स्थल विश्व के पर्यटन मानचित्र में जुड़ जाएगा। भारत भ्रमण के उत्सुक देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ आना चाहेंगे, जिसके लिए सभी प्रकार के आवागमन साधनों के द्वारा कालिंजर को यातायात से जोड़ दिया जायेगा। यहाँ पर्यटकों की आवक में वृद्धि होने से क्षेत्र में रोजगार के साधन बढ़ेंगे। यहां कम से कम दो-तीन लाख पर्यटक वार्षिक आने की संभावना है। इस कारण इस क्षेत्र के विकास को भी तेज़ीमिलेगी।
व्यवसायिक महत्त्व
कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में लाल रंग के चमकदार पत्थर से प्राचीन काल में सोना बनाया जाता था। इस क्षेत्र में पर्तदार चट्टानें व ग्रेनाइट पत्थर काफी है, जो भवन निर्माण में काम आता है। साखू, शीशम, सागौन के पेड़ बहुतायत में है। इनसे काष्ठ निर्मित वस्तुएं तैयार होती हैं।
वनौषधियों का भंडार
दुर्ग में नाना प्रकार की औषधियां मिलती हैं। यहां मिलने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज औषधि के काम आते हैं। गुमाय के बीज भी उपचार के काम आते हैं। हरर का उपयोग बुखार के लिए किया जाता है। मदनमस्त की पत्तियां एवं जड़ उबालकर पी जाती है। कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग अस्थमा के लिए किया जाता है। मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल का इस्तेमाल आंव रोग के लिए किया जाता है। घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग के लिए उपयोगी है। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, लाल पथरचटा, गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहां उपलब्ध है।
कैसे पहुँचें
- बस मार्ग
बांदा रेलवे स्टेशन कालिंजर का निकटवर्ती बड़ा रेलवे स्टेशन है। कालिंजर की भौगोलिक स्थिति दक्षिण-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बाँदा ज़िले से दक्षिण पूर्व दिशा में ज़िला मुख्यालय, बाँदा शहर से 55 कि.मी. की दूरी पर है। बाँदा शहर से बस द्वारा बारास्ता गिरवाँ, नरौनी, कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर प्रसिद्ध विश्व धरोहर स्थल एवं पर्यटक स्थली खजुराहो से 105 कि.मी. दूरी पर है। यहाँ से चित्रकूट 78 कि.मी., बांदा 62 एवं इलाहाबाद 205 कि.मी. पर है।
- रेल मार्ग
रेलमार्ग के द्वारा कालिंजर पहुंचने के लिए अर्तरा रेलवे स्टेशन है, जो झांसी-बांदा-इलाहाबाद रेल लाइन पर पड़ता है। यहाँ से कालिंजर 36 कि.मी. की दूरी पर है। यह स्टेशन बांदा रेलवे स्टेशन से 57 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
- वायु मार्ग
वायुमार्ग से आने के लिये कालिंजर से 130 कि.मी. दूर खजुराहो विमानक्षेत्र पर वायु सेवा उपलब्ध है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सतयुग का कीर्तिनगर आज का कालिंजर (हिन्दी) bundelkhand। अभिगमन तिथि: 10 अगस्त, 2018।
बाहरी कड़ियाँ
- कलिंजर क़िले का इतिहास
- कालिंजर का क़िला, खजुराहो
- ऐतिहासिक कालिंजर दुर्ग में पर्यटकों को रिझाने की कवायद शुरू