कालियदह

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कालियदह घाट, वृन्दावन, मथुरा

कालियदह मथुरा, उत्तर प्रदेश में स्थित वह प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में कालिय नाग का दमन किया था। इस स्थान के पास में ही 'केलि-कदम्ब' है, जिस पर चढ़कर श्रीकृष्ण कालीयदह में बड़े वेग से कूदे थे। कालिया नाग के विष से आस-पास के वृक्ष-लता सभी जलकर भस्म हो गये थे, केवल यही एक केलि-कदम्ब बच गया था। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी पक्षीराज गरुड़ अपनी माता विनता को अपनी विमाता कद्रू के दासीपन से मुक्त कराने के लिए देवलोक से अमृत का कलश लेकर इस केलि-कदम्ब के ऊपर कुछ देर के लिए बैठे थे। उसकी गंध या छींटों के प्रभाव से ही यह केलि-कदम्ब बच गया था।

कालिय नाग का निवास

यमुना में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उडऩे वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे। श्रीकृष्ण ने देखा कि कालिय नाग के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुना भी दूषित हो गई है। इसीलिए एक दिन अपने सखाओं के साथ गेंद खेलते हुए कृष्ण ने अपने सखा श्रीदामा की गेंद यमुना में फेंक दी। अब श्रीदामा गेंद वापस लाने के लिए कृष्ण से जिद करने लगे। सब सखाओं के समझाने पर भी श्रीदामा नहीं माने और गेंद वापस लाने के लिए कहते रहे।

श्रीकृष्ण का यमुना में कूदना

कृष्ण ने सखाओं को धीरज बंधाया और पास के एक कदम्ब के पेड़ पर चढ़ गए। श्रीकृष्ण के द्वारा स्पर्श करने पर कदम्ब का वह पेड़ जो ठूंठ हो चुका था, फिर से सहसा हरा-भरा हो उठा। उसमें जनजीवन की बहार आ गई। कदम्ब पर चढ़कर कृष्ण ने यमुना के जल में छलांग लगा दी। उनके जल में कूदते ही यमुना का जल इस प्रकार आप्लावित हुआ जैसे यमुना में कोई बृहदाकार कोई वस्तु आ गई हो। फिर आप्लावित जल यमुना के किनारों से भी ऊपर आ गया। ‘'कालिय'! कृष्ण ने इस भयंकर विषधर को चेतावनी देते हुए कहा- "अब निरीह प्राणियों पर होने वाले अत्याचारों का समय समाप्त हो चुका है।" अपनी अनेक पत्नियों और पुत्रों के साथ कालियदह में निवास करता हुआ कालिय भुजंग एक बालक की चेतावनी सुनकर क्रोध में फुफकार उठा और तुरंत अपने निवास स्थान से बाहर निकल आया। कालिय ने फुफकारते हुए भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया।[1]

कालिय से युद्ध

कालिय के फन पर नृत्य करते श्रीकृष्ण

सभी ग्वाल-बाल चिंता -निमग्न हुए कृष्ण की लीला को निहार रहे थे। उनमें से कुछ ग्वाल-बाल वृंदावन में नंद-यशोदा के पास जाकर इस बात की सूचना दे आए कि कृष्ण कालियदह में यमुना में कूद गए हैं और अब कालिय नाग से युद्ध कर रहे हैं। कालिय ने कृष्ण को एक साधारण बालक समझकर अपनी कुंडली में दबोच लिया और उन पर भयंकर विष की फुफकारें छोड़ने लगा, किंतु उस समय कालिय को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब उसकी तीव्रतम फुफकारों का भी उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। कृष्ण को कालिय भुजंग की कुंडली में जकड़ा देखकर माता यशोदा काँप उठीं कि उनके कोमल शरीर वाले प्राणों से प्रिय दुलारे को कालिय नाग ने कितनी बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। माता यशोदा दौड़ती हुई यमुना की ओर बढ़ने लगीं और यमुना के जल में कूदना ही चाहती थीं कि उन्हें वहाँ उपस्थित ग्वालों ने संभाल लिया। वृंदावन के सभी बाल-वृद्ध इस समय यमुना तट पर आ खड़े हुए थे। उनके मन में कृष्ण के प्रति गहन चिंता और नयनों में वियोग के आँसू थे। अब वे इस बात को समझ चुके थे कि कृष्ण कालिय नाग से युद्ध में जीत नहीं सकते, इसलिए उनकी व्याकुलता और भी बढ़ गई थी।

लगभग दो घंटे तक कालिय ने कृष्ण को एक सामान्य बालक की भांति ही अपने कुंडली पाश में जकड़े रखा । जब कृष्ण ने देखा कि वृंदावन के समस्त नर-नारी उनके वियोग में बुरी तरह तड़प रहे हैं और नंद-यशोदा की दशा तो इतनी बिगड़ चुकी है कि वे कदाचित मृत्यु के निकट ही जान पड़ते हैं, तो उन्होंने एक झटके में ही स्वयं को कालिय की कुंडली से विमुक्त कर लिया। कृष्ण उस विकराल सर्प पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे गरुड़ किसी सर्प को अपना शिकार बनाता है। कालिय कृष्ण के प्रहारों को सहन न कर सका और शीघ्र ही थककर चूर हो गया। कृष्ण उछलकर कालिय के फनों पर चढ़ गए और उस पर पैरों से प्रहार करने लगे। वृंदावन के सभी नर-नारियों ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के एक हाथ में बाँसुरी थी और दूसरे हाथ में वह गेंद थी, जिसे लेने का बहाना बनाकर वे यमुना में कूदे थे। कालिय नाग के फनों पर पाद-प्रहार करते हुए वह उन पर नृत्य कर रहे थे और बाँसुरी बजा रहे थे।[1]

नाग पत्नियों की कृष्ण से विनती

कृष्ण के पाद-प्रहारों से कालिय शीघ्र ही रक्त-वमन करने लगा। उसका शरीर निस्तेज और निर्बल होता चला गया। कृष्ण को इस स्थिति में नृत्य करते देख वृंदावनवासियों ने उनकी उच्च स्वर में जय-जयकार करनी आरंभ कर दी। अपने सबल पति को इस प्रकार निर्बल होते देख नाग-पत्नियाँ तुरंत समझ गईं कि उनके पति पर विजय पाने वाला यह बालक कोई सामान्य बालक नहीं, बल्कि साक्षात परमेश्वर ही हैं। नाग-पत्नियाँ तुरंत अपनी सभी संतानों को लेकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण में आ गईं और नतमस्तक होकर उनकी स्तुति करने लगीं। वे बोलीं- "हे प्रभु! आप सृष्टि के समस्त प्राणियों पर समभाव और समदृष्टि रखने वाले हैं। आपकी कृपा और दंड में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। जब प्राणियों पर कृपा करते हैं, तो स्वयमेव ही उनका भाग्य जाग जाता है, किंतु जब आप दंड दान करते हैं, तो भी प्राणी का उद्धार होता है, क्योंकि आपके दंड के परिणामस्वरूप उस प्राणी के सभी पूर्व में किए गए पाप विनष्ट हो जाते हैं। अतएव प्रभु आपने कालिय को जो दंड प्रदान किया, वह भी एक प्रकार से आपकी कृपा ही है। उसके फनों पर आपके नृत्य करने से कालिय के समस्त पाप क्षीण हो चुके हैं। प्रभु! हम आश्चर्यचकित हैं कि आपने इस तुच्छ और पाप कर्मों में संलग्न प्राणी के पापों का किस कारण हरण कर लिया। संभवतः इसने अपने पूर्वजन्म में किसी प्रकार के शुभ कर्म अवश्य किए होंगे, अन्यथा यह इस प्रकार कैसे सरलता से आपके चरण कमलों का सान्निध्य प्राप्त कर पाता।"

कालिय नाग की पत्नियों ने विनती करते हुए कहा- "हे महाप्रभु! आपके चरण कमलों की रज प्राप्त करने की कामना तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और तपस्वी करते हैं, यहाँ तक कि लक्ष्मीजी को भी आपके चरण-कमलों की धूलि प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करनी पड़ी थी।" भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करती नाग-पत्नियाँ भावुक स्वर में आगे इस प्रकार बोलीं- "हे महाप्रभु! जिन प्राणियों को आपकी चरण-रज धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है, वे इस ब्रह्मांड में ब्रह जैसे सर्वोच्च पद, स्वर्गलोक के इंद्र पद और भूलोक की सार्वभौम सत्ता तक को ठोकर मार देते हैं। यही नहीं, वे इस भूलोक के ऊपर स्थित अन्य लोकों पर भी राज्य करने की कामना नहीं करते। हे स्वामी! यद्यपि यह कालिय नाग सर्प प्रकृति के अत्यंत निकृष्ट गुण द्वारा पोषित योनि में उत्पन्न हुआ था और काम-क्रोध आदि दुर्गुणों से युक्त था, किंतु हे प्रभु! आपकी अतीव कृपा के कारण फिर भी इसे सृष्टि की अत्यंत दुर्लभ आपकी चरण-रज प्राप्त हुई। हे महाप्रभु! आपने इस घोर अत्याचारी और निकृष्टतम पापी पर कृपा की, किंतु एक विनती आप हम निरीह अबलाओं की भी स्वीकार करें।" नाग-पत्नियों का स्वर अत्यंत वेदना युक्त हो उठा था- "हे कृपासिंधु स्वामी! आपके पाद-प्रहारों से विगलित और आपके पाश में जकड़ा हुआ हमारा अधम पति अब मृत्यु को प्राप्त होने ही वाला है। आपसे विनती है कि आप हमारे पति को क्षमादान प्रदान कर दें। आप भली प्रकार जानते हैं कि हम अबलाओं के लिए हमारा पति ही हमारा सर्वस्व होता है, भले ही वह कैसा भी नीच, अधम ही क्यों न हो। यदि हमारा पति मृत्यु को प्राप्त हो गया, तो हम सब घोर संकट से घिर जाएंगी। इस सृष्टि के समस्त प्राणी आपकी अपनी संतान हैं और आप प्रत्येक का भली प्रकार भरण-पोषण करते हैं। यह कालिय नाग भले ही पापी हो, मगर है तो आपकी संतान ही। इसने आपको और आपकी शक्ति को जाने बिना ही आपसे युद्ध करने का अपराध किया है, फिर भी हम आपकी तुच्छ सेविकाएँ आपसे विनती करती हैं कि हे प्रभु! आप इन्हें क्षमादान प्रदान करने की कृपा करें। आप हमें जो भी आदेश देंगे, हम उसका पूर्णतया पालन करेंगी।"[1]

अभयदान

नाग-पत्नियों द्वारा इस विनती से श्रीकृष्ण दयार्द्र हो उठे और उन्होंने कालिय नाग को अपने पाश से मुक्त कर दिया। पाश से मुक्त होते ही कालिय नाग के शरीर में प्राण का संचार होने लगा। यह भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख अपने समस्त फन झुकाकर विनीत स्वर में बोला- "हे स्वामी! आपको पहचानने में मुझसे भूल हो गई।" श्रीकृष्ण ने उनकी स्तव-स्तुति से प्रसन्न होकर कालिय नाग को अभय प्रदान कर सपरिवार 'रमणक द्वीप' में जाने के लिए आदेश दिया तथा उसे अभय देते हुए बोले- "अब तुम्हें गरुड़ का भय नहीं रहेगा। वे तुम्हारे फणों पर मेरे चरणचिह्न को देखकर तुम्हारे प्रति शत्रुता भूल जायेंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 कृष्ण नीति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 मई, 2013।

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