कुंदकुंदाचार्य

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कुंदकुंदाचार्य जैन धर्म में दिगंबर संप्रदाय के सुप्रसिद्ध आचार्य थे। इनका एक अन्य नाम 'कौंडकुंद' भी था। इनके नाम के साथ दक्षिण भारत का 'कोंडकुंदपुर' नामक नगर भी जुड़ा हुआ है। प्रोफ़ेसर ए. एन. उपाध्याय के अनुसार कुंदकुंदाचार्य का समय पहली शताब्दी ई. है; परंतु इनके काल के बारे में निश्चयात्मक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या 40 के अनुसार इनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनंदी' था और सीमंधर स्वामी से उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

परिचय

कुंदकुंदाचार्य मूलसंघ के प्रधान आचार्य थे। तपश्चरण के प्रभाव से अनेक अलौकिक सिद्धियाँ इन्हें प्राप्त थीं। जैन परंपरा में इनका बड़े आदर से उल्लेख होता है। शास्त्रसभा के आरंभ में मंगल भगवान वीर के साथ-साथ मंगल कुदकुंदार्थ: कहकर इनका स्मरण किया जाता है, जिससे जैन शासन में इनके महत्व का पता चलता है। इन्होंने सर्वप्रथम जैन आगम सम्मत पदार्थों का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया था। इनके सभी उपलब्ध ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं। इनकी विशेषता रही है कि इन्होंने जैन मत का स्वकालीन दार्शनिक विचारधारा के आलोक में प्रतिपादन किया है, केवल जैन आगमों का पुन:प्रवचन नहीं किया।[1]

मुख्य ग्रंथ

कुंदकुंदाचार्य के विभिन्न ग्रंथों में ज्ञान, दर्शन और चरित्र का निरूपण मिलता है। इन्होंने एक एक विषय का निरूपण करने के लिए स्वतंत्र ग्रंथ लिखे, जिन्हें "पाहुड़" कहते हैं। इनके 84 पाहुड़ों का उल्लेख जैन वाङमय में मिलता है।[1] इनके मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं-

  1. प्रवचनसार
  2. समयसार
  3. पंचास्तिकाय
  4. नियमसार
  5. बारस अणुवेक्खा
  6. दसंण पाहुड़
  7. चारित्तपाहुड़
  8. बोध पाहुड़
  9. मोक्ख पाहुड़
  10. शील पाहुड़
  11. रयणसार
  12. सिद्धभक्ति
  13. मूलाचार (वट्टकेर)।

नया दृष्टिकोण

जैन दर्शन को कुंदकुंदाचार्य ने एक नई दृष्टि दी। इनको संग्रहावलंबी अभेदवाद का प्रतिपादक माना जाता है। जैन आगमों में द्रव्य और पर्याय में भेद और अभेद दोनों माना जाता है। परंतु इनके अनुसार इनका भेद व्यावहारिक है, परमार्थत: दोनों अभिन्न है। इसी प्रकार आत्मा में वर्ण का सदभाव और असदभाव दोनों आगम सम्मत हैं, परंतु इनके अनुसार व्यावहारिक रूप में तो वर्ण आत्मा में हैं, पारमार्थिक रूप में नहीं हैं। इन्होंने 'देह' और 'आत्मा' के ऐक्य को व्यवहारनय में माना, परंतु निश्चयनय में दोनों का भेद माना।

कुंदकुंदाचार्य द्रव्य को सत्ता से अभिन्न मानते थे। वैशेषिक दर्शन में सत्ता सामान्य के कारण द्रव्य को सत्‌ मानते हैं, परंतु उनका कहना है कि इस मत में तो सत्ता से भिन्न होने के कारण द्रव्य असत्‌ हो जाएगा। अत: द्रव्य सत्ता रूप ही है और यही परम तत्व है। सत्ता ही द्रव्य, गुण और पदार्थ के रूप में नाना देशकाल में विकसित होती है; अत: सब कुछ द्रव्य (सत्ता) रूप ही है। गुण और पर्याय का द्रव्य से अभेद मानना तथा नयभेद से सत्कार्यवाद और सत्यकार्यवाद दोनों को स्वीकार करना, उनका अभिप्रेत था। परमाणु के बारे में इनका कहना है कि सभी स्कंधों का अंतिम अवयव परमाणु है। यह शाश्वत, शब्द रहित, अविभाज्य और मूर्त है। परमाणु को रस, गंध, वर्ण और स्पर्श से युक्त इंद्रियग्राह्य परिणामी तत्व कहा गया और पृथ्वी, जल, तेज और वायु का मूल माना गया।[1]

आत्मा के रूप

औपनिषद और महायान दर्शनों में व्यवहार और परमार्थ अथवा प्रतिभास और सत्य का भेद माना गया है। इस भेद को मानकर ही अध्यात्मवादी दार्शनिक एक अद्वयतत्व की प्रतिष्ठा करते हैं। जैन दर्शन भूतवादी है, अध्यात्मवादी नहीं। फिर भी कुंदकुंदाचार्य ने व्यवहारनय और निश्चयनय में भेद माना, जो सामान्यत: दिखाई देता है। वह सर्वदा सत्य नहीं होता और कोई आवश्यक नहीं कि सत्य सदा शुद्ध रूप में गोचर हो। उन्होंने आत्मा के तीन रूप माने। बाह्य पदार्थों में आसक्त, देह को अपने से अभिन्न समझने वाली मूढात्मा बहिरात्मा है। देह का भेदज्ञान हो जाने पर मोक्षमार्गारूढ़ आत्मा को अंतरात्मा कहा गया है। ध्यान, बल से कर्ममल का क्षय हो जाने पर जब आत्मा शुद्ध रूप प्राप्त कर लेती है, तब उसको परमात्मा कहते हैं। इसी परमात्मा को कुंदकुंदाचार्य ने शिव, ब्रह्मा, विष्णु, बुद्ध आदि कहकर तत्कालीन दर्शन से अपने को परमार्थत: अभिन्न घोषित किया है, जो संभवत: किसी जैन आचार्य ने नहीं किया। यही इनकी विशेषता है, जो अन्य जैनाचार्यों से इन्हें अलग करती है और इनकी समन्वयवादी प्रवृत्ति का निदर्शन है।

अद्वैतमत से भी प्रभावित

कुंदकुंदाचार्य ने आत्मा को कार्य करण से भिन्न मानकर सांख्य के कूटस्थ पुरुष की कल्पना के साथ समन्वित किया, परंतु आत्मा को अकर्ता नहीं माना। उनके मत में आत्मा अनात्मक परिणमन (पुद्गल कर्मों) का कर्त्ता नहीं है, किंतु परिणामी होने के कारण उसको कर्त्ता भी माना है। आत्मा ज्ञान आदि स्वगत परिणामों का तो कर्ता है ही। कुंदकुंदाचार्य अद्वैतमत से भी प्रभावित थे। उनके अनुसार केवल ज्ञानी आत्मा को ही जानता है, उसके लिए ब्राह्य पदार्थ अप्रिसद्ध हैं। अद्वैतवादी दर्शन में आत्मा को ही एक तत्व मानकर अन्य पदार्थों को आत्मा का प्रतिभास कहा गया है। उनका मत इस अद्वैतमत से अधिक निकट है। केवली को ज्ञान और दर्शन एक साथ होता है, जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहता है।[1]

बौद्ध प्रभाव==

कुंदकुंदाचार्य बौद्धों से भी प्रभावित थे। उनका कहना था कि तत्व का व्यवहार और निश्चयनयों से वर्णन हो ही नहीं सकता। तत्व पक्षातिक्रांत है। जीव शुद्ध रूप में ने तो बद्ध है, न अबद्ध। बंध-अबंध से विमुक्त जीव ही सहयसार और परमात्मा परमतत्व कहा गया है। व्यवहारनय का निराकरण निश्चयनय से होता है। नागार्जुन की तरह इनका कहना था कि- "निश्चयनय का आश्रय लेकर यद्यपि तत्व का ज्ञान होता है, तथापि तत्वज्ञान हो जाने पर निश्चियनय का भी नाश हो जाता है"।

इस प्रकार आचार्य कुंदकुंद समन्वयवादी जैन दार्शनिक थे। इनका मत स्वतंत्र है, दूसरे जैन आचार्यों की तरह मत विशेष के लिए इनका आग्रह नहीं है। यही कारण है कि इन्होंने वैशेषिक, सांख्य, वेदांत और महायान बौद्ध दर्शन से बहुत-सी बातें ग्रहण की और जैन धर्म की एक नया दृष्टिकोण दिया है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 कुंदकुंदाचार्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 मार्च, 2014।

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