चार्वाक दर्शन

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लोकायत / चार्वाक दर्शन

चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है।

आत्मा

चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात् यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है-

  1. तर्क,
  2. अनुभव और
  3. आयुर्वेद शास्त्र।

तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात् आत्मा सिद्ध होता है।

अनुभव 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं दुर्बल हूँ', 'मैं गोरा हूँ' , 'मैं निष्क्रिय हूँ' इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और 'मैं' भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है।

आयुर्वेद जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

  • ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अत: उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।

ज्ञान मीमांसा

  • प्रमेय अर्थात् विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दु:ख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।
  • जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है।जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिङ्गग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।[1]

आचार मीमांसा

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत् के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्त्द वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को अनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।

मोक्ष

चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है। जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहता है। यही नरक है। इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात् मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता। यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत और चित स्वरूप मानते हैं न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं।

चार्वाक लोकायत

  • चार्वाक दर्शन वह दर्शन है जो जन सामान्य में स्वभावत: प्रिय है। जिस दर्शन के वाक्य चारु अर्थात् रुचिकर हों वह चार्वाक दर्शन है। सभी शास्त्रीय गम्भीर विषयों का व्यावहारिक एवं लौकिक पूर्व पक्ष ही चार्वाक दर्शन है। सहज रूप में जो कुछ हम करते हैं वह सब कुछ चार्वाक दर्शन का आधार है। चार्वाक दर्शन जीवन के हर पक्ष को सहज दृष्टि से देखता है। जीवन के प्रति यह सहज दृष्टि ही चार्वाक दर्शन है। वास्तविकता तो यह है कि, विश्व का हर मानव जो जीवन जीता है वह चार्वाक दर्शन ही है।
  • ऐसे वाक्य और सिद्धान्त जो सबको रमणीय लगें लोक में आयत या विश्रुत आवश्य होंगे। सम्भवत: यही कारण है कि हम चार्वाक दर्शन को लोकायत दर्शन के नाम से भी जानते हैं। यह दर्शन बार्हस्पत्य दर्शन के नाम से भी विद्वानों में प्रसिद्ध है। इस नाम से यह प्रतीत होता है कि यह दर्शन बृहस्पति के द्वारा विरचित है।[2]

चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति

  • बृहस्पति भारतीय समाज में देवताओं के गुरु के रूप में मान्य हैं। परन्तु भारतीय साहित्य में बृहस्पति एक नहीं हैं। चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति कौन हैं, यह निर्णय कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। आङिगरस एवं लौक्य रूप में दो बृहस्पतियों का समुल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। अश्वघोष के अनुसार आङिगरस बृहस्पति राजशास्त्र के प्रणेता हैं। लौक्य बृहस्पति[3] के मत में सत पदार्थ की उत्पत्ति असत से मानी जाती है। इसी प्रकार असत पदार्थ की उत्पत्ति सत से मानी गयी है। जड़ पदार्थों को ही असत कहा जाता है। चेतन पदार्थों को इस मान्यता के अनुसार सत कहा जाता हैं।
  • एक बृहस्पति का निर्देश महाभारत के वन पर्व में भी प्राप्त होता है। यह बृहस्पति शुक्र का स्वरूप धारण कर इन्द्र का सरंक्षण एवं दानवों का विनाश करने के उद्देश्य से अनात्मवाद या प्रपंच विज्ञान की संरचना करता है। इस प्रपंच विज्ञान के फलस्वरूप शुभ को अशुभ एवं अशुभ को शुभ मानते हुए दानव वेद एवं शास्त्रों की आलोचना एवं निन्दा में संलग्न हो जाते हैं।
  • अन्य प्रसंग में महाभारत में ही एक और बृहस्पति का वर्णन मिलता है जो शुक्राचार्य के साथ मिल कर प्रवंचनाशास्त्र की रचना करते हैं। विभिन्न शास्त्रों के आचार्यों की माने तो चार्वाक मत दर्शन की श्रेणी में नहीं माना जा सकता क्योंकि इस दर्शन में मात्र मधुर वचनों की आड़ में वंचना का ही कार्य किया गया है। यह बात और है कि यदि चार्वाक की सुनें तो वह भी विभिन्न शास्त्रज्ञों को वंचक ही घोषित करता है।[4]

एक ऐसे बृहस्पति का तैत्तरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णन मिलता है जो गायत्री देवी के मस्तक पर आघात करता है गायत्री देवी को पद्म पुराण के अनुसार समस्त वेदों का मूल माना गया है। इस दृष्टि से यह बृहस्पति वेद का विरोधी माना जा सकता है। सम्भवत: वेद का विरोध प्रति पद करने के कारण इस बृहस्पति को चार्वाक दर्शन का प्रणेता भी माना जाना युक्तियुक्त होगा।

  • विष्णु पुराण में भी बृहस्पति का प्रसंग प्राप्त होता है। बृहस्पति की इस मान्यता के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड बहुवित्त के व्यय एवं प्रयास से साध्य हे। विविध सुख के साधक ये वैदिक उपाय कुछ अर्थ लोलुप स्वार्थ केन्द्रित धूर्तों का ही विधान है।
  • तार्किक बृहस्पति का भी कहीं कहीं वर्णन मिलता है। ये बृहस्पति वेद के अनुगामी तो अवश्य हैं पर तर्कसम्मत अनुष्ठानों का ही समर्थन करते हैं। इनकी दृष्टि से तत्त्व निर्णय शास्त्र पर आधारित अवश्य होना चाहिए परन्तु यह शास्त्रीय अनुसन्धान तर्क पोषित होना नितान्त आवश्यक है। तर्क विरहित चिन्तन धर्म के निर्धारण में कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है।
  • वात्स्यायन मुनि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ कामसूत्र में अर्थशास्त्र के रचयिता के रूप में बृहस्पति का उल्लेख किया है। बृहस्पति द्वारा विरचित अर्थशास्त्र के एक सूत्र के अनुसार शास्त्र के रूप में मात्र लोकायत को ही मान्यता दी गयी है। फलत: अर्थशास्त्र के प्रणेता बृहस्पति एवं लोकायत शास्त्र के प्रवर्त्तक में अन्तर कर पाना अत्यन्त दुरूह कार्य है। कुछ समालोचकों ने अर्थशास्त्र के एवं लोकायत शास्त्र के निर्माता को अभिन्न मानने के साथ-साथ कामसूत्रों के प्रणेता भी बृहस्पति ही हैं, यह माना है। यदि लौकिक इच्छाओं को पूर्ण करना ही चार्वाक दर्शन का उद्देश्य है तो कामशास्त्र के प्रवर्त्तक मुनि वात्स्यायन ही बृहस्पति हैं, यह मानना उपयुक्त ही है।
  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लोकायत दर्शन का सहज प्रतिपादन किया है। इस प्रकार अर्थशास्त्र के रचनाकार कौटिल्य एवं लोकायत दर्शन के प्रणेता बृहस्पति एक ही हैं ऐसा माना जा सकता है।
  • कोषकार हेमचन्द्र के अनुसार अर्थशास्त्र, कामसूत्र, न्यायसूत्र-भाष्य, पंचतन्त्र एवं चाणक्य नीति के रचयिता एक ही है।
  • इतनी विवेचना के बाद जो बृहस्पति वैदिक वाङमय में विभिन्न प्रसंगों में चर्चित हैं उनके यथा क्रम नाम इस प्रकार स्पष्ट होते हैं।
  1. लौक्य बृहस्पति
  2. आंगिरस बृहस्पति
  3. देवगुरु बृहस्पति
  4. अर्थशास्त्र प्रवर्त्तक बृहस्पति
  5. कामसूत्र प्रवर्त्तक बृहस्पति
  6. वेदविनिन्दक बृहस्पति
  7. तार्किक बृहस्पति।
  • पद्म पुराण के सन्दर्भ में अंगिरा ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। आंगिरस बृहस्पति अंगिरा के पुत्र एवं ब्रह्मा के पौत्र हैं। फलत: इनकी देवों में गणना होती है। इस प्रकार देव गुरु बृहस्पति एवं आंगिरस बृहस्पति में कोई भेद नहीं माना जा सकता। देवों की संरक्षा के लिए देवताओं के गुरु द्वारा असुरों को प्रदत्त उपदेश विभिन्न लोकों में आयत हो गया यह कथन देव गुरु बृहस्पति के सन्दर्भ में विश्वसनीय नहीं हो सकता। असुर अपने गुरु शुक्राचार्य के रहते देवगुरु के उपदेश को क्यों आदर देंगे? अत: देवगुरु से अतिरिक्त कोई चार्वाक दर्शन का प्रवर्त्तक होना अपेक्षित है।
  • कुछ समालोचकों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि चार्वाक के गुरु बृहस्पति स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के आचार्य विश्वविख्यात बृहस्पति नहीं हैं। ये बृहस्पति किसी राजकुल के गुरु हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देंखे तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि का किसी राजकुल का गुरु होना इस मान्यता को आधार भी दे रहा है।

चार्वाक के सिद्धान्त

  • जिस प्रकार आस्तिक दर्शनों में शंकर दर्शन शिरोमणि के रूप में स्वीकृत है उसी प्रकार नास्तिक दर्शनों में सबसे उत्कृष्ट नास्तिक के रूप में शिरोमणि की तरह चार्वाक दर्शन की प्रतिष्ठा निर्विवाद है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक इसलिए भी माना जाता है कि वह विश्व में विश्वास के आधार पर किसी न किसी रूप में मान्य ईश्वर की अलौकिक सर्वमान्य सत्ता को सिरे से नकार देता है। इनके मतानुसार ईश्वर नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक जो कुछ बाहरी इन्द्रियों से दिखाई देता है अनुभूत होता है, उसी की सत्ता को स्वीकार करता है। यही कारण है कि चार्वाक के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण को छोड़ कर कोई दूसरा प्रमाण नहीं माना गया है। जिस ईश्वर की कल्पना अन्य दर्शनों में की गई है उसकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भव नहीं है। इनके मत से बीज से जो अंकुर का प्रादुर्भाव होता है उसमें ईश्वर की भूमिका को मानना अनावश्यक एवं उपहासास्पद ही है। अंकुर की उत्पत्ति तो मिट्टी एवं जल के संयोग से नितान्त स्वाभाविक एवं सहज प्रक्रिया से सर्वानुभव सिद्ध है। इस स्वभाविक कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी अदृष्ट कर्त्ता की स्वीकृति निरर्थक है।
  • ईश्वर को न मानने पर जीव सामान्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों के फल की व्यवस्था कैसे सम्भव होगी? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक पूछता है कि किस कर्म फल की व्यवस्था अपेक्षित? संसार में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं। एक लौकिक तथा दूसरा अलौकिक कर्म। क्या आप लौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तित हैं? यदि हाँ, तो यह चिन्ता अनावश्यक है। लौकिक कर्मों का फल विधान तो लोक में सर्व मान्य[5] राजा या प्रशासक ही करता है। यह सर्वानुभव सिद्ध तथ्य, प्रत्यक्ष ही है। हम देखते हैं कि चौर्य कर्म आदि निषिद्ध कार्य करने वाले को उसके दुष्कर्म का समुचित फल, लोक सिद्ध राजा ही दण्ड के रूप में कारागार आदि में भेज कर देता है। इसी प्रकार किसी की प्राण रक्षा आदि शुभ कर्म करने वाले पुरुष को राजा ही पुरस्कार रूप में सुफल अर्थात् धन धान्य एवं सम्मान से विभूषित कर देता है।
  • यदि आप अलौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सन्दर्भ में सचिन्त हैं तो यह चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पारलौकिक फल की दृष्टि से विहित ये सभी यज्ञ, पूजा, पाठ तपस्या आदि वैदिक कर्म जन सामान्य को ठगने की दृष्टि से तथा अपनी आजीविका एवं उदर के भरण पोषण के लिए कुछ धूर्तों द्वारा कल्पित हुए हैं। वास्तव में अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिदण्ड का धारण तथा शरीर में जगह जगह भस्म का संलेप बुद्धि एवं पुरुषार्थ हीनता के ही परिचायक हैं। इन वैदिक कर्मों का फल आज तक किसी को भी दृष्टि गोचर नहीं हुआ है। यदि वैदिक कर्मों का कोई फल होता तो अवश्य किसी न किसी को इसका प्रत्यक्ष आज तक हुआ होता। अत: आज तक किसी को भी इन वैदिक या वर्णाश्रम-व्यवस्था से सम्बद्ध कर्मों का फल-स्वर्ग, मोक्ष, देवलोक गमन आदि प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं है अत: ये समस्त वैदिक कर्म निष्फल ही हैं, यह स्वत: युक्ति पूर्वक सिद्ध हो जाता है।

अदृष्ट एवं ईश्वर का निषेध

यहाँ यदि आस्तिक दर्शन यह कहे कि परलोक स्वर्ग आदि को सिद्ध करने वाला व्यापार अदृष्ट या धर्म एवं अधर्म है जिससे स्वर्ग की सिद्धि होती है तो यह चार्वाक को स्वीकार्य नहीं है। अलौकिक अदृष्ट का खण्डन करते हुए चार्वाक स्वर्ग आदि परलोक के साधन में अदृष्ट की भूमिका को निरस्त करता है तथा इस प्रकार आस्तिक दर्शन के मूल पर ही कुठाराघात कर देता है। यही कारण है कि अदृष्ट के आधार पर सिद्ध होने वाले स्वर्ग आदि परलोक के निरसन के साथ ही इस अदृष्ट के नियामक या व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर का भी निरास चार्वाक मत में अनायास ही हो जाता है।

जीव एवं चैतन्य की अवधारणा

  • चार्वाक मत में कोई जीव शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर ही जीव या आत्मा है। फलत: शरीर का विनाश जब मृत्यु के उपरान्त दाह संस्कार होने के बाद हो जाता है तब जीव या जीवात्मा भी विनष्ट हो जाता है। शरीर में जो चार या पाँच महाभूतों का समवधान है, यह समवधान ही चैतन्य का कारण है। यह जीव मृत्यु के अनन्तर परलोक जाता है यह मान्यता भी, शरीर को ही चेतन या आत्मा स्वीकार करने से निराधार ही सिद्ध होती है। शास्त्रों में परिभाषित मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ भी चार्वाक नहीं स्वीकार करता है। चेतन शरीर का नाश ही इस मत में मोक्ष है। धर्म एवं अधर्म के न होने से चार्वाक सिद्धान्त में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वर्ग एवं नरक आदि फल भी नहीं है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है।[6]

शरीरात्मवाद में स्मरण का उपपादन

चार्वाक मत में शरीर को ही आत्मा मान लेने पर बाल्यावस्था में अनुभूत कन्दुक क्रीडा आदि का वृद्धावस्था या युवावस्था में स्मरण कैसे होता है? यह एक ज्वलन्त प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि बाल्यावस्था का शरीर, वृद्धावस्था का शरीर एवं युवावस्था का शरीर एक ही है। यदि तीनों अवस्थाओं का शरीर एक ही होता तो इन तीनों अवस्थाओं के शरीरों में इतना बड़ा अन्तर नहीं होता। अन्तर से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि शरीर के अवयव जो मांस पिण्ड आदि हैं इनमें वृद्धि एवं ह्रास होता है। तथा इन ह्रास एवं वृद्धि के कारण ही बाल्यावस्था के शरीर का नाश एवं युवावस्था के शरीर की उत्पत्ति होती है यह भी सिद्ध होता है। यदि यह कहें कि युवावस्था के शरीर में यह वही शरीर है, यह व्यवहार होने के कारण शरीर को एक मान कर उपर्युक्त स्मरण को उत्पन्न किया जा सकता है, तो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि यह वही शरीर है यह प्रत्यभिज्ञान तो स्वरूप एवं आकृति की समानता के कारण होता है। फलत: दोनों अवस्थाओं के शरीरों को अभिन्न नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में पूर्व दर्शित बाल्य-काल के स्मरण को सम्पन्न करने के लिए चार्वाक बाल्यकाल के शरीर में उत्पन्न क्रीड़ा से जन्य संस्कार दूसरे युवा-काल के शरीर में अपने जैसे ही नये संस्कार पैदा कर देते हैं। इसी प्रकार युवावस्था के शरीर में विद्यमान संस्कार वृद्धावस्था के शरीर में अपने जैसे संस्कार उत्पन्न कर देते हैं। एतावता इन बाल्यावस्था के संस्कारों के उद्बोधन से चार्वाक मत में स्मरण बिना किसी बाधा के हो जाता है। अन्तत: चार्वाक दर्शन में शरीर ही आत्मा है यह सहज ही सिद्ध होता है।

  • यदि शरीर ही आत्मा है तो चार्वाक से यह पूछा जा सकता है कि 'मम शरीरम्' यह मेरा शरीर है, ऐसा लोकसिद्ध जो व्यवहार है वह कैसे उत्पन्न होगा? इस व्यवहार से तो यह प्रतीत हो रहा है कि शरीर अलग है एवं शरीर का स्वामी कोई और है, जो शरीर से भिन्न आत्मा ही है। इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक कहता है कि जैसे दानव विशेष के सिर को ही राहू कहा गया है, फिर भी जन-सामान्य 'राहू का सिर' यह व्यवहार बड़े ही सहज रूप में करता है, उसी प्रकार शरीर के ही आत्मा होने पर भी 'मेरा शरीर' यह लोकसिद्ध व्यवहार उपपन्न हो जायेगा। चार्वाकों में कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानने पर इन्द्रिय के नष्ट होने पर स्मरण की आपत्ति का निरास नहीं हो पाता है। किन्हीं चार्वाकों ने प्राण एवं मन को भी आत्मा के रूप में माना है।
  • शरीर ही आत्मा है यह सिद्ध करने के लिए चार्वाक [7] इस वेद के सन्दर्भ को भी आस्तिकों के सन्तोष के लिए प्रस्तुत करता है। इस वेद वचन का तात्पर्य है कि 'विज्ञान से युक्त आत्मा इन भूतों से उत्पन्न हो कर अन्त में इन भूतों में ही विलीन हो जाता है। यह भूतों में शरीर स्वरूप आत्मा का विलय ही मृत्यु है।'

परलोक का प्रतिषेध

  • इस प्रकार चार्वाक दर्शन, मात्र शरीर केन्द्रित हो कर समस्त अलौकिक एवं पारलौकिक तत्त्वों से स्वयं को दूर कर नास्तिकता की पराकष्ठा का वरण कर लेता है। यही कारण है कि यह नितान्त निरंकुश हो कर वेद सम्मत सभी मान्यताओं का रोचक शब्दों में खण्डन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चार्वाक वह विचार है जो जन सामान्य के दैनिक जीवन में सहज रूप में अनुस्यूत है। चार्वाक वह मत है जो हर व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति को उजागर करता है। जिस प्रकार पारलौकिक तथ्यों को विशेष प्रयास के साथ विभिन्न दार्शनिकों ने सुव्यवस्थित कर विभिन्न ग्रन्थों के रूप में समाज के समक्ष रखा उसी प्रकार एक प्रयास जन सामान्य में व्याप्त सहज प्रवृत्ति को भी लिपि बद्ध करने के लिए चार्वाक द्वारा किया गया जो चार्वाक दर्शन के रूप में हमारे समक्ष है।

चार्वाक का नव्य एवं प्राच्य भेद

  • चार्वाक दर्शन की प्रस्तावना के साथ ही प्राय: हर दर्शन अपने मत की स्थापना करता है। जब चार्वाक का खण्डन अपने-अपने सम्प्रदाय के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने किया तब चार्वाक ने भी आवश्यकतानुसार अपनी मान्यताओं में अपरिहार्य एवं लोकानुमत परिष्कार को सहर्ष मान्यता दी। जिस प्रकार न्याय दर्शन में प्राचीन एवं नव्य दो धाराएँ कालक्रम से आवश्यकता के आधार पर विद्वानों के समक्ष उपस्थित हुईं, उसी प्रकार चार्वाक दर्शन की भी दो विचारधाराओं का प्राच्य एवं नव्य रूप में समाज के समक्ष प्रादुर्भाव हुआ।
  • जब चार्वाक ने प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण मानने वालों से कहा कि प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है इससे अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण नहीं है। तब कुछ सहज प्रश्न अन्य दर्शन के आचार्यों ने उठाये जो चार्वाक को भी समुचित लगे।
  • उदाहरणार्थ जब न्याय दर्शन के आचार्यों ने कहा कि यदि अनुमान प्रमाण नहीं है तो किसी व्यक्ति के मुखमण्डल पर आविष्कृत रेखाओं को देख चार्वाक भी सुख दु:ख आदि भावों को कैसे जान सकता है? जब कहीं भवन के ऊपर गगन को चूमती धूएँ की रेखा दिखायी पड़ती है तो क्या जनसामान्य को जो मकान पर आग की निश्चयात्मक अनुमिति होती है वह चार्वाक को नहीं होती है? इस तरह के तलस्पर्शी प्रश्नों के फलस्वरूप चार्वाक की नव्य परम्परा ने अपने विचारों को किंचित परिष्कृत अवश्य कर लिया।

नव्य परम्परा में अनुमान एवं गगन मान्य

यही कारण है कि नव्य चार्वाकों ने अनुमान को भी प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया। इतना अवश्य है कि उसी अनुमान को चार्वाक की इस नवीन धारा ने स्वीकार किया जो लोक प्रसिद्ध व्यवहार को उपपन्न करने के लिए अपरिहार्य थे।[8] जैसे धूएँ को देख आग का अनुमान। मुख पर उभरी रेखाओं को देख सुख या दु:ख का अनुमान। परन्तु अलौकिक धर्म एवं अधर्म को स्वर्ग या नरक को सिद्ध करने वाले अनुमान का तो चार्वाकों ने एक मत से खण्डन ही किया है।

काम ही परम-पुरुषार्थ

  • शरीर रूपी आत्मा को जो अच्छा लगे चार्वाक की दृष्टि में वही सुख है। अंगना आदि के आलिंगन आदि से जो सुख मिलता है, वही काम रूप प्रमुख पुरुषार्थ है। ये लौकिक सुख, दु:ख से मिश्रित होने के कारण पुरुषार्थ कैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न नहीं करना चाहिए। सांसारिक हर सुख, दु:ख से मिश्रित तो होता ही है। बुद्धिमान व्यक्ति दु:ख को छोड़ कर केवल सुख का ही उपभोग ठीक वैसे ही करता है, जैसे आम, संतरा आदि फल का सेवन करने वाला व्यक्ति छिलके एवं गुठली का त्यागकर फल का रसास्वाद लेता है, जैसे मछली खाने वाला व्यक्ति छिलके एवं काँटें के साथ मिली मछली से काँटों एवं छिलकों को निकाल कर मात्र खाद्य अंश को ही खाता है। धान की कामना करने वाला व्यक्ति खेत से पुआल के साथ धान को लाता तो अवश्य है, परन्तु अनपेक्षित अंश पुआल को छोड़ कर मात्र धान का ही संग्रह करता है। फलत: संसार में दु:ख के भय से अनुकूल लगने वाले सुख का त्याग कथमपि समुचित नहीं है ऐसा चार्वाक दर्शन का अभिमत है।

अनुमान एवं शब्द के प्रामाण्य का प्रतिषेध

  • स्वर्ग आदि परलोक नहीं हैं। धर्म एवं अधर्म की सत्ता नहीं है। ईश्वर कोई पारलौकिक तत्त्व नहीं है। सब कुछ इस लोक में ही है। यह तभी प्रामाणिक रूप में चार्वाक सिद्ध कर सकता है जब वह अनुमान की प्रामाणिकता का खण्डन करे। यदि अनुमान प्रमाण है तो इन पारलौकिक पदार्थों की अनुमान प्रमाण से हो रही सिद्धि को कौन रोक सकता है। इस प्रकार का प्रश्न अनुमान को प्रमाण मानने वाले विद्वानों की ओर से उठाया जाता है। यदि अनुमान प्रमाण नहीं होता तो धुएँ को देखने के अनन्तर जनसामान्य को कभी भी आग की अनुमिति नहीं होती। जो लोग प्रेक्षावान[9] विवेचक हैं अर्थात् प्रकृष्ट फल का नाम से उल्लेख हुए बिना जो शास्त्र के चिन्तन आदि में प्रवृत्त नहीं होते हैं, वे भी सहज रूप से अनुमान करने में प्रवृत्त देखे जाते हैं। फलत: अनुमान को प्रमाण अवश्य मानना चाहिए।

व्याप्ति की दुरवबोधता


  • जो लोग अनुमान को पृथक् प्रमाण मानते हैं, उनसे चार्वाक जानना चाहता है कि आप अनुमान का स्वरूप क्या मानते हैं? व्याप्ति एवं पक्षधर्मता से युक्त ज्ञान ही तो अनुमान होगा। यह ज्ञान तब तक सम्भव नहीं है जब तक इस विशिष्ट ज्ञान में विशेषण के रूप में स्वीकृत व्याप्ति को न जान लिया जाय। अनुमान को प्रमाण मानने वालों के मत में उभय विध उपाधि से विधुर सम्बन्ध ही व्याप्ति है। इस व्याप्ति का ज्ञान होने पर ही अनुमिति होती है। प्रत्यक्ष की तरह चक्षु का स्वरूपत: जैसे प्रत्यक्ष प्रमा में उपयोग होता है उस प्रकार व्याप्ति की स्वरूपत: अनुमिति में कोई भूमिका सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में यहाँ यह प्रश्न होता है कि व्याप्ति का ज्ञान किस उपाय से सम्भव है?

उपाधि-लक्षण

उपाधि किसे कहते हैं? इस प्रश्न का समाधान उपाधि के लक्षण से किया जाता है। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा साधन का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं।[10] उदाहरणार्थ जब हम पर्वत पर धुएँ को अग्नि से सिद्ध कर रहे होते हैं तब यहाँ अग्नि हेतु उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध या व्यभिचारी होता है। व्याप्यत्व का मतलब व्याप्ति ही होता है। जिस हेतु में व्याप्ति असिद्ध हो उसे ही व्यभिचारी भी तार्किकों की आप्त परम्परा में स्वीकार किया जाता है। उपर्युक्त प्रसिद्ध व्यभिचारी हेतु वाले स्थल में आर्द्र अर्थात् गीले ईंधन के संयोग को उपाधि मानते हैं। यह आर्द्र ईंधन का संयोग जो वह्नि में है वही वास्तव में धुएँ का कारण होता है, यह हर व्यक्ति का अनुभव है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पर्वत में जो धुआँ है वह आग के कारण नहीं अपितु गीली लकड़ी एवं आग से सम्बन्ध के ही कारण हैं, इस तरह यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ रूप साध्य होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग, साध्य का व्यापक है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ आग रूप हेतु होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग नहीं होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग साधन का व्यापक नहीं है अर्थात् अव्यापक है यह सिद्ध हो जाता है। अन्तत: प्रस्तुत सन्दर्भ में आर्द्र ईंधन संयोग के साध्य का व्यापक एवं साधन के अव्यापक होने के कारण गीली लकड़ी के संयोग को उपाधि की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। इस उपाधि से युक्त होने के कारण वह्नि रूप हेतु सोपाधिक होता है। यही कारण है कि वह्नि व्यभिचारी या व्याप्यत्वासिद्ध माना जाता है।

सम एवं असम व्याप्ति

  • व्याप्ति का सम एवं असम भेद से दो भेद आचार्यों को अभिमत हैं।[11]
  • जहाँ साध्य एवं हेतु एक दूसरे के परस्पर व्याप्त एवं व्यापक होतें हैं उनमें सम-व्याप्ति है, यह व्यवहार होता है। जैसे शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए कार्यत्व या सकर्त्तृकत्व हेतु में अनित्यात्वसाध्य की सम-व्याप्ति होती है। आर्द्रेन्धन संयोग एवं धूम के बीच भी समव्याप्ति मानी जाती है।
  • यह देखा जाता है कि जहाँ जहाँ साध्य-अनित्यत्व रहता है वहाँ-वहाँ हेतु- कार्यत्व रहता है। फलत: साध्य की व्यपकता हेतु में सिद्ध होती है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ हेतु- कार्यत्व होता है वहाँ-वहाँ साध्य-अनित्यत्व भी होता है। फलस्वरूप हेतु की व्यापकता भी साध्य में प्रसिद्ध हो जाती है। पर्वत: धूमवान् वह्ने:, इस असद्धेतु वाले स्थल में हेतु- वह्नि एवं साध्य-धूम के मध्य समव्याप्ति नहीं है। इस प्रकार इन दोनों के बीच असम-व्याप्ति है यह प्रामाणिकों का व्यवहार होता है। यहाँ धूम एवं आर्द्रेन्धन संयोग के बीच समव्याप्ति होती है। पर आर्द्रेन्धन संयोग एवं आग के बीच असम व्याप्ति ही सिद्ध होती है।
  • जब सम एवं असम व्याप्ति एक जगह पर हो, जैसे- पर्वत: धूमवान् वह्ने:, इस असद्धेतु वाले स्थल में आर्द्रेन्धन संयोग में साध्य-धूम की सम व्याप्ति है एवं इसी आर्द्रेन्धन संयोग में हेतु-वह्नि की असम व्याप्ति है, ऐसी स्थिति में साध्य-धूम के सम व्याप्त आर्द्रेन्धन संयोग से यदि हेतु या साधन-वह्नि व्याप्त नहीं होता है अर्थात् वह्नि की व्याप्ति यदि सम-आर्द्रेन्धन संयोग में नहीं हो पाती तो हेतु को व्याप्तिहीन माना जाता है। इस प्रकार ऐसा हेतु अनुमिति में प्रयोजक भी नहीं माना जाता।

व्याप्ति ज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष

अभाव की बुद्धि के लिए अभाव के प्रतियोगी का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक होता है, ऐसा सर्वमान्य शास्त्रीय सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रस्तुत सन्दर्भ में व्याप्ति-रूप सम्बन्ध में उपाधि के अभाव का ज्ञान करने के लिए उपाधि का पहले बोध अत्यावश्यक हो जाता है। इस उपाधि को जानने के लिए व्याप्ति का ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि उपाधि का लक्षण व्याप्ति से समन्वित है। इस आवश्यकता को ध्यान में रख कर जब हम व्याप्ति के ज्ञान के लिए प्रवृत्त होते हैं, तब व्याप्ति के लक्षण में उपाधि का समावेश मिलता है। फलत: व्याप्ति के विज्ञान के लिए उपाधि का अवबोध अनिवार्य हो जाता है। इस तरह परस्पर व्याप्ति एवं उपाधि को जानने के लिए परस्पर एक दूसरे के ज्ञान के अपेक्षित होने से अन्योन्याश्रय दोष रूपी वज्रलेप हो जाता है। अन्तत: यही निष्कर्ष निकलता है कि अविनाभाव या व्याप्ति का ज्ञान ऊपर चर्चित रीति से कथमपि सम्भव नहीं हैं इस प्रकार व्याप्ति के दुर्बोध हो जाने से अनुमान का प्रत्यक्ष से अलग प्रमाण मानने की कल्पना दिवास्वप्न की भाँति कोरी कपोल कल्पना मात्र बनकर रह जाती है। निष्कर्ष रूप में फिर 'नाऽप्रत्यंक्ष प्रमाणम्' अर्थात् प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण की मान्यता असम्भव है, यह चार्वाक का लोकायत मत ही सिद्ध होता है। चार्वाक का अभीष्ट भी यही है।

अनुमान को न मानने पर व्यवहार की अनुपपत्ति का वारण

चार्वाक यदि अनुमान प्रमाण नहीं मानेगा तो धूम को देख कर आग को जानने की प्रवृत्ति का अपलाप होने लगेगा। इस आपत्ति का निराकरण करते हुए चार्वाक का कहना है कि यह प्रवृत्ति या तो प्रत्यक्ष-मूलिका है या तो भ्रमवश होती है। प्रवृत्ति होने के बाद सफलता एवं असफलता तो मणि मन्त्र एवं औषधि की तरह कभी होती है एवं कभी नहीं होती है। लोक में यह देखा जाता है कि कार्य विशेष को सम्पन्न करने के लिए हम मणि मन्त्र एवं औषधियों का जीवन में प्रयोग तो अवश्य करते हैं पर कार्य कभी सम्पन्न होता है तो कभी नहीं। ठीक उसी प्रकार धूम को देख कर वह्नि के बोध में प्रवृत्त पुरुष को पर्वत के ऊपर वह्नि के मिल जाने पर सफलता भी कभी प्राप्त होती है और कभी नहीं होती है। मणि के स्पर्श से, मन्त्र के प्रयोग से एवं औषधि विशेष के उपयोग से हमें प्रतीत होता है कि हमारा अभिलषित कार्य पूर्ण हो रहा है। परन्तु कार्य तो स्वभावत: सम्पूर्ण होता है। यदि कार्य विशेष को सम्पन्न करने के लिए विशेष कारण के रूप में मणि, मन्त्र एवं औषधियाँ सुनिश्चित होतीं तो नियम से मणि के स्पर्श के बाद, मन्त्रों का विनियोग करने के अनन्तर एवं औषधियों के उपयोग करने के बाद निर्दिष्ट फल ऐश्वर्य आदि का लाभ एवं रोग आदि का निरास होता ही पर ऐसा लोक सामान्य में अनुभव नहीं है। फलत: जिस प्रकार ऐश्वर्य एवं रोग आदि को दूर करने की कारणता मणि, मन्त्र एवं औषधियों में नहीं है। उसी प्रकार धूम एवं वह्नि में भी कोई कार्यकारण भाव नहीं है।

स्वभाव-वाद

  • ऐश्वर्य एवं रोग आदि की कादाचित्क अर्थात् संयोग वश कभी प्राप्ति तो भी कभी निवृति को देख कर इनकी कारणता का निर्धारण मणि, मन्त्र एवं औषधि आदि में करना युक्तिसंगत नहीं है। इसी लिए किसी पुरुष में ऐश्वर्य का दर्शनकर इसके कारण के रूप में अदृष्ट या पाप पुण्य की कल्पना करना भी अन्याय ही है। अदृष्ट को जगत् का कारण न मानने पर इस संसार की विचित्रता कैसे उपपन्न की जा सकती है? यह प्रश्न होता है। इसका समाधान करते हुए चार्वाक का बड़ा ही सहज कथन है कि यह संसार स्वभाव से ही उत्पन्न हो जाता है। [12] आग गरम है, जल शीतल है एवं वायु न ठंडा है न गरम अर्थात् अनुष्णाशीत है, कैसे? यह सब किसी ने बनाया नहीं हैं। यह सब स्वभाव से ही होता है।
  • अपने कर्त्तव्य में कष्ट उठा कर भी जो उद्यत होता है वह विलक्षण सुख का एवं सन्तोष का अनुभव करता है। यह सुख वर्णनानीत है। जो मानव के कर्तव्य कोटि में नहीं आता है उसका अत्यन्त पीडा सह कर भी परित्याग एक तरह से आनन्द एवं सुख का ही कारण है। इस प्रकार की व्यर्थ बातें वास्तव में निस्सार ही हैं। वस्तुस्थिति तो यही है कि संसार में काम से बड़ा पुरुषार्थ कुछ और नहीं है। वर्णाश्रम से सम्बद्ध क्रियाएँ भी वस्तुतः अभीष्ट फल देने वाली नहीं हैं। [13]

कर्म एवं कर्म फल पर चार्वाक की अवधारणा

  • वर्णाश्रम धर्म में समुपदिष्ट स्वर्ग आदि लोक, यदि ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ में पशु की बलि के उपरान्त इस पशु को सुनिश्चित रूप से प्राप्त होता है, यह सच होता तो यजमान सबसे पहले अपने वृद्ध पिता की ही यज्ञ में बलि क्यों नहीं दे देता है। [14] यह प्रश्न पूछकर चार्वाक यह तर्क बल पर सिद्ध करता है कि बलि के रूप में प्रयुक्त पशु को स्वर्ग का लाभ नहीं होता है। पशु आसानी से बलि के लिए मिल जाए एतदर्थ यह कर्मकाण्ड के विद्वानों की समाज को मूर्ख बनाने का मात्र एक निन्दनीय उपक्रम ही है।
  • मृत प्राणियों को कर्मकाण्ड की विधि से यदि श्राद्ध कर्म करने से तृप्ति का लाभ होता तो बुझे हुए दीपक को भी दीये में विद्यमान तेल से तृप्ति अवश्य मिलती तथा प्रमाण स्वरूप प्रदीप्त दीपक में जैसे बत्ती जलते हुए आगे बढ़ती है वैसे ही बुझे हुए दीपक की भी बाती आगे अवश्य बढ़ती। ऐसा व्यवहार दीपक में नहीं देखा जाता है। [15]
  • फलतः मृत मनुष्य को श्राद्ध से तृप्ति की बात करना भी, प्रतारण कर्म में दक्ष कर्मकाण्ड के प्रकाण्ड विद्वानों की कपोल कल्पना मात्र ही है, यह चार्वाक युक्ति पूर्वक सिद्ध करता है। अन्ततः चार्वाक यह सिद्ध करता है कि अपनी जीविका को समृद्ध एवं जीवित रखने कि लिए कर्मकाण्ड की विविध लुभावनी योजनाओं को कुछ ब्राह्मणों ने ही बड़ी कुशलता के साथ क्रियान्वित किया है।[16] तथा ये वेद के रचनाकार भण्ड, धूर्त एवं निशाचर के रूप में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यह वेद कोई अपौरुष्हेय वचन नहीं है। न ही इस वेद दी रचना किसी सर्वशक्ति सम्पन्न परमेश्वर ने ही की है। ये वेद में विद्यमान वाक्य तो जर्भरी तुर्फरी आदि पण्डितों द्वारा ही उपदिष्ट है।[17]

चार्वाक दर्शन की समाज में समरसता

  • चार्वाक तो पूरे समाज में समव्याप्त है। इसे अपनी पहचान बनाये रखने के लिए विशेष वेश-भूषा, कर्मकाण्ड, एवं ग्रन्थों के अम्बार की आवश्यकता कथमपि नहीं है। चार्वाक दर्शन तो सारे समाज में हर मस्तिष्क में अनायास ही परिव्याप्त है। यहाँ तक कि विभिन्न शास्त्रों के विद्वान् भी अपने दैनिक जीवन में प्रायः चार्वाक दर्शन का ही सहज रूप में अनुसरण कर रहे होते हैं।
  • चार्वाक दर्शन तो इतना सहज एवं स्वाभाविक रूप में सर्वत्र समाज में आज भी अनुस्यूत है कि इसके संस्कार एवं वासना को मानव मस्तिष्क से हटाने के लिए विभिन्न भारतीय दार्शनिकों को हर स्तर इनके मतों का सादर उपन्यास करते हुए निरास करने के लिए कठिन प्रयास करना पड़ा है।
  • निष्कर्ष रूप के अन्त में यह कहा जा सकता है कि चार्वाक दर्शन में भी कई वर्ग हैं। चार्वाक दर्शन के भी कई शास्त्रीय एवं लौकिक पक्ष हैं जिनमें कुछ अवश्य संग्राह्य हैं परन्तु कुछ त्याज्य भी हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम चार्वाक के वास्तविक लोकोपकारक स्वरूप को अध्ययन कर समझें एवं समाज के संगठन एवं व्यवस्था में चार्वाक की महत्त्वपूर्ण विशिष्ट भूमिका को लोक हित की दृष्टि से उजागर करें।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्करीका। उदन्यजेव जेमना मदेरु ता मे जराटवजरं मरायु॥
  2. लोका: निर्विचारा: सामान्यलोकास्तद्वदाचरन्तिस्मेति लोकयतिका इत्यपि। बृहस्पतिप्रणीतमतत्वेन बार्हस्पत्याश्चेति। षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 451
  3. ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत्। देवानां पूर्वे युगेऽसत: सदजायत। देवानां युगे प्रथमेऽसत: सदजायत। ऋग्वेद, 10 मण्डल, 72 सूक्त, 2 मन्त्र (ब्रह्मण: पति: एता कर्मार: इव सं अधमत्) बृहस्पति या अदिति ने लोहार के समान इन देवों को उत्पन्न किया। (देवानां पूर्वे युगे असत: सत् अजायत) देवों के पूर्व युग में-आदि सृष्टि में असत से सत उत्पन्न हुआ (अव्यक्त ब्रह्म से व्यक्त देवादि उत्पन्न हुए) पृ0 148 ऋग्वेद भाग 4, हिन्दी व्याख्या-सातवलेकर।
  4. आचार्य आनन्द झा, चार्वाक दर्शन, हिन्दी समिति, लखनऊ, 1969 पृ0 9
  5. लोकव्यवहारसिद्ध इति चार्वाका:, न्या. कु. का. हरिदासी, पृ0-03
  6. लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृति:। धर्माधर्मौ न विद्येते न फलं पुण्यपापयो:॥ -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 452
  7. 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, स न प्रेत्य संज्ञास्ति' बृहदारण्यकोपनिषद 2/4/12
  8. 'मानं त्वक्षजमेव हि' हिशब्दोऽत्र विशेषणार्थो वर्तते। विशेष: पुनश्चार्वाकैर्लोकयात्रानिर्वहणप्रवणं धूमाद्यनुमानमिष्यते क्वचन न पुन: स्वर्गादृष्टादिप्रसाधकमलौकिकमनुमानमिति।–षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 457
  9. प्रेक्षावतां विवेचकानां, प्रकृष्टफलोद्देशमन्तरेण शास्त्राध्ययनेऽप्रवर्त्तमानानाम् इति यावत्। -प्रमाण्यवाद गादाधरी- पृ0 3
  10. साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम् उपाधि: तर्कसंग्रह पृ0 15
  11. समासमाविनाभावावेकत्र स्तो यदा तदा। समेन यदि नो व्याप्तस्तया हीनो प्रयोजक:॥ -खण्डनखण्डखाद्य- पृ0 707
  12. अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तोथोऽनिलः। केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ.19
  13. न स्वर्गों नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः। नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ.20
  14. पशुश्चेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति। स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते?॥ सर्वदर्शन्सङ्ग्रह- पृ20। निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते। स्वपिता यजमानेन किन्तु तस्मान्न हन्यते॥ विष्णुपुराण, चार्वाक वर्णन, (3. 18. 25-28) पृ.270
  15. मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्। निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः सम्वर्धयेच्छिखाम्॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ. 20
  16. ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह। मृताना प्रेतकार्यणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह-पृ.21
  17. त्रयो वेदस्य कर्त्तारों भण्ड धूर्तनिशाचराः। जर्भरीतुर्फरीत्यादिपण्डितानां वचः स्मृतम्॥ सर्वदर्शनसङ्ग्रह- पृ. 21

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