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चित्सुखाचार्य

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चित्सुखाचार्य का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी में हुआ था।

  • चित्सुखाचार्य ने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक वेदान्त ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे। उस खण्डन में उन्होंने श्रीहर्ष के मत को उदधृत किया है, जो इस शताब्दी के अंत में हुए थे।
  • उनके जन्मस्थान आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' के मंगलाचरण में अपने गुरु का नाम ज्ञानोत्तम लिखा है।
  • जिन दिनों इनका आविर्भाव हुआ था, उन दिनों न्यायमत (तर्कशास्त्र) का ज़ोर बढ़ रहा था।
  • द्वादश शताब्दी में श्रीहर्ष ने न्यायमत का खण्डन किया था।
  • तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में श्रीहर्ष के मत को खण्डित कर न्यायशास्त्र को पुन: प्रतिष्ठित किया। दूसरी ओर द्वैतवादी वैष्णव आचार्य भी अद्वैत मत का खण्डन कर रहे थे। ऐसे समय में चित्सुखाचार्य ने अद्वैतमत का समर्थन और न्याय आदि मतों का खण्डन करके शांकर मत की रक्षा की।
  • उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'तत्त्वप्रदीपिका', 'न्यायमकरन्द' की टीका और 'खण्डनखण्डखाद्य' की टीका लिखी।
  • अपनी प्रतिभा के कारण चित्सुखाचार्य ने थोड़े ही समय में ही बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।
  • चित्सुखाचार्य भी अद्वैतवाद के स्तम्भ माने जाते हैं।
  • परवर्ती आचार्यों ने उनके वाक्यों को प्रमाण के रूप में उदधृत किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 266 | डॉ. राजबली पाण्डेय |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ

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