जटायु

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संक्षिप्त परिचय
जटायु
जटायु का रावण से युद्ध
जटायु का रावण से युद्ध
पिता अरुण देवता
समय-काल रामायण काल
परिजन सम्पाती, अरुण देवता
प्रसिद्ध मंदिर 'जटा शंकर मन्दिर', बागली (मध्य प्रदेश)
संदर्भ ग्रंथ रामायण
प्रसिद्ध घटनाएँ *रावण द्वारा सीता का हरण करके ले जाते समय जटायु ने रावण से भीषण युद्ध किया। *बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी थी। सूर्य के तेज़ से व्याकुल होकर जटायु तो लौट आये, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये।
संबंधित लेख सीता, राम, लक्ष्मण, रावण,
विशेष जटायु राजा दशरथ के बहुत ही गहरे मित्र थे, इसीलिए श्रीराम ने स्वयं ही उनका दाह संस्कार किया।
अन्य जानकारी प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए थे- 'गरुड़' और 'अरुण'। अरुण सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे।

जटायु अरुण देवता के पुत्र थे। इनके भाई का नाम सम्पाती था। 'रामायण' में सीताजी के हरण के प्रसंग में जटायु का उल्लेख प्रमुखता से हुआ है। जब लंका का रावण सीता का हरण करके आकाशमार्ग से पुष्पक विमान में जा रहा था, तब जटायु ने रावण से युद्ध किया। युद्ध में बलशाली रावण ने जटायु के पंख काट डाले, जिससे वह मरणासन्न स्थिति में पहुँचकर पृथ्वी पर गिर पड़े। जब श्रीराम और लक्ष्मण सीताजी की खोज कर रहे थे, तभी उन्होंने जटायु को मरणासन्न अवस्था में पाया। जटायु ने ही राम को बताया कि रावण सीता का हरण करके लंका ले गया है और बाद में उसने प्राण त्याग दिये। राम-लक्ष्मण ने उसका दाह संस्कार, पिंडदान तथा जलदान किया।

परिचय

प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए थे- 'गरुड़' और 'अरुण'। अरुण सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज़ से व्याकुल होकर जटायु तो बीच रास्ते से ही लौट आये, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के सन्निकट पहुँचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में सीता की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।

रामायण के अनुसार

जटायु पंचवटी में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय राजा दशरथ से इनका परिचय हुआ और ये महाराज के अभिन्न मित्र बन गये। वनवास के समय जब भगवान राम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्रीराम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।

रावण द्वारा सीता हरण

राम अपनी पत्नी सीता के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिये गये और लक्ष्मण भी सीता के कटुवाक्य से प्रभावित होकर राम को खोजने के लिये निकल पड़े। दोनों भाइयों के चले जाने के बाद आश्रम को सूना देखकर लंका के राक्षस राजा रावण ने सीता का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल दिया। सीताजी ने रावण की पकड़ से छूटने का पूरा प्रयत्न करने किया, किंतु असफल रहने पर करुण विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा। ग़ृद्धराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ, लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया।

राम से भेंट

जब राम लक्ष्मण के साथ सीता की खोज करने के लिये खर-दूषण के जनस्थान की ओर चले तो मार्ग में उन्होंने विशाल पर्वताकार शरीर वाले जटायु को देखा। उसे देख कर राम ने लक्ष्मण से कहा- "भैया! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी जटायु ने सीता को खा डाला है। मैं अभी इसे यमलोक भेजता हूँ।" ऐसा कह कर अत्यन्त क्रोधित राम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जटायु को मारने के लिये आगे बढ़े। राम को अपनी ओर आते देख जटायु बोला- "आयुष्मान्! अच्छा हुआ कि तुम आ गये। सीता को लंका का राजा रावण हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है और उसी ने मेरे पंखों को काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है।

भगवान राम जटायु को गोद में लिये हुए

सीता की पुकार सुन कर मैंनें उसकी सहायता के लिये रावण से युद्ध भी किया। ये मेरे द्वारा तोड़े हुए रावण के धनुष उसके बाण हैं। इधर उसके विमान का टूटा हुआ भाग भी पड़ा है। यह रावण का सारथि भी मरा हुआ पड़ा है। परन्तु उस महाबली राक्षस ने मुझे मार-मार कर मेरी यह दशा कर दी। वह रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।"

मृत्यु

भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा- "तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें।" जटायु बोले- "श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।" भगवान श्रीराम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ़ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया।[1]

दाह संस्कार

जटायु के प्राणहीन रक्तरंजित शरीर को देख कर राम अत्यन्त दुःखी हुए और लक्ष्मण से बोले- "भैया! मैं कितना अभागा हूँ। राज्य छिन गया, घर से निर्वासित हुआ, पिता का स्वर्गवास हो गया, सीता का अपहरण हुआ और आज पिता के मित्र जटायु का भी मेरे कारण निधन हुआ। मेरे ही कारण इन्होंने अपने शरीर की बलि चढ़ा दी। इनकी मृत्यु का मुझे बड़ा दुःख है। तुम जा कर लकड़ियाँ एकत्रित करो। ये मेरे पिता तुल्य थे, इसलिये मैं अपने हाथों से इनका दाह संस्कार करूँगा।" राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने लकड़ियाँ एकत्रित कीं। दोनों ने मिल कर चिता का निर्माण किया। राम ने पत्थरों को रगड़ कर अग्नि निकाली। फिर द्विज जटायु के शरीर को चिता पर रख कर बोले- "हे पूज्य गृद्धराज! जिस लोक में यज्ञ एवं अग्निहोत्र करने वाले, समरांगण में लड़ कर प्राण देने वाले और धर्मात्मा व्यक्ति जाते हैं, उसी लोक को आप प्रस्थान करें। आपकी कीर्ति इस संसार में सदैव बनी रहेगी।" यह कह कर उन्होंने चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी। थोड़ी ही देर में जटायु का नश्वर शरीर पंचभूतों में मिल गया। इसके पश्चात् दोनों भाइयों ने गोदावरी के तट पर जाकर दिवंगत जटायु को जलांजलि दी।[2]

पउम चरित के अनुसार

राम, सीता तथा लक्ष्मण दंडकारण्य में थे। उन्होंने देखा- कुछ मुनि आकाश से नीचे उतरे। उन तीनों ने मुनियों को प्रणाम किया तथा उनका आतिथ्य किया। पार ने के समय जल, रत्न, पुष्प आदि की वृष्टि हुई। वहां पर बैठा हुआ एक गीध उनके चरणोदक में लोट गया। फलस्वरूप उसकी जटायें आदि रत्न के समान प्रकाशमान हो गयीं। साधुओं ने बताया कि पूर्वकाल में दंडक नामक एक राजा था किसी मुनि के संसर्ग से उसके मन में भवित का उदय हुआ। उसके राज्य में एक परिव्राजक था। वह दूसरों को कष्ट देनें के लिए उद्यत रहता था। एक बार वह अंत:पुर में रानी से बातचीत कर रहा था राजा ने उसे देखा तो दुश्चरित्र जानकर उसके दोष से सभी श्रमणों को यंत्रों में पिलवाकर मरवा डाला। एक श्रमण बाहर गया हुआ था। लौटने पर समाचार ज्ञात हुआ तो उसके शरीर से ऐसी क्रोधाग्नि निकली कि जिससे समस्त स्थान भस्म हो गया। राजा के नामानुसार इस स्थान का नाम दंडकारगय रखा गया। मुनियों ने उस दिव्य 'जटायु' (गीध) की सुरक्षा का भार सीता और राम को सौंप दिया। उसके पूर्व जन्म के विषय में बताकर उसे धर्मोपदेश भी दिया। रत्नाभ जटाएं हो जाने के कारण वह 'जटायु' नाम से विख्यात हुआ। [3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाल्मीकि रामायण, अरण्य कांड, सर्ग 69, श्लोक 9-38
  2. जटायु की मृत्यु, संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 06 जुलाई, 2013।
  3. पउम चारित, 41 ।-

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