जलाशय
जलाशय पृथ्वी पर स्थित जल के संचय को कहते हैं, चाहे वह प्राकृतिक हो, अथवा कृत्रिम। किंतु प्रस्तुत संदर्भ में जलाशय का अभिप्राय केवल मानव कृत जलाशयों से है, जिनका विवरण नीचे प्रस्तुत है:
प्राचीन सभ्यता
मनुष्य जीवनयापन के लिये सदा से जल और भूमि पर आश्रित रहा है। इसी कारण सभ्यता का गणेश नदी तटों पर ही हुआ। किंतु, ज्यों-ज्यों मानव समाज का विकास होता गया, त्यों-त्यों वह नदी तटों से दूर स्थलों पर भी निवास करने लगा, अतएव जल संचित करने के साधन जुटाए जाने लगे और जहाँ कहीं संभव हो सका मनुष्य ने अपने उपयोग के लिये या तो पृथ्वी के भीतरी स्तरों में छिपे हुए जल को निकालने के लिये कुएँ बनाए अथवा ताल या सरोवर बनाकर जल संचित किया। प्राचीन समय में बने इस प्रकार के जलाशय संसार के प्राय: समस्त देशों में पाए जाते हैं। ऐसा ही एक जलाशय मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में है। दक्षिण भारत में, जहाँ कुएँ साधारण: नहीं बन सकते, ऐसे सहस्त्रों में जलाशय पाए जाते हैं, जिन्हें शताब्दियों पूर्व मनुष्य ने अपना तथा अपने पशुओं का निर्वाह और यथासंभव खेती बाडी करने के लिये बनाया था।[1]
जलाशयों का विस्तार
आधुनिक युग में इन जलाशयों का विस्तार किया जाने लगा है। ऊँचे-ऊँचे बाँधों का निर्माण होने लगा, और बाधों द्वारा बनाए गए जलाशयों से बहुमुखी योजनाओं का सूत्रपात हुआ। उदाहरण के लिये कावेरी नदी पर बने मेटूर बाँध के जलाशय से बड़ी मात्रा में बिजली का उत्पादन किया जाने लगा और मद्रास राज्य में इस बिजली का बड़े विस्तार से उपयोग हुआ। वर्तमान विकास युग में बहुत सी ऐसी योजनाएँ बनीं जिनसे बड़े बड़े जलाशयों द्वारा बिजली उत्पादन तथा भूसिंचन के लिये संचित जल का उपयोग किया जा सके। ऐसी योजनाओं में मुख्यत: दामोदार घाटी के जलाशय, भाकड़ा बाँध का जलाशय, हीराकुड बाँध का जलाशय, तुंगभद्रा, नागार्जुन, कोयना, रिहंद आदि की गणना की जा सकती है। इनके अतिरिक्त अन्यान्य बहुतेरे छोटे बड़े जलाशय बनाए जा चुके हैं। अन्य देशों में भी बहुत बड़े-बड़े जलाशयों का निर्माण हुआ, जैसे अमरीका का बोल्डर डैम जलाशय तथा सास्ता डैम जलाशय नगरों में जलवितरण के लिये भी जलाशय बनाए जाते हैं। ऐसे जलाशयों में पानी ऊँचाई पर संचित किया जाता है, जिससे वितरण नलियों में पानी सुचारु रूप से पहुँच सके। इस किस्म के जलाशय कंक्रीट, इस्पात आदि के बने होते हैं। इनमें आवश्यक मात्रा में जल संचित किया जाता है, जिससे सामान्य रूप से जल उपलब्ध हो सके। वैसे बहुतेरी जगहों में संतुलन जलाशय भी बनाए जाते हैं, जिससे जलवितरण में सुविधा हो सके और वितरण क्षेत्रों में पानी का दबाव समान रहे।[1]
उपयोग एवं महत्व
जलाशयों के अन्य उपयोग भी हैं। बहुत से क्षेत्रों में मछली आदि के प्रजनन के निमित्त जलाशयों का उपयोग किया जाता है, जिससे समाज को मछली के रूप में भोज्य सामग्री उपलब्ध हो सके। भारत के पूर्वी प्रदेशों में, जैसे बंगाल में, इसका बड़ा प्रचलन है। और भी क्षेत्रों में जलाशय का उपयोग इस प्रयोजन के लिये किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त जलाशयों में आमोद-प्रमोद के साधन बहुधा जुटाए जाते है। बहुत से सुंदर जलाशय इसके अंतगर्त समय-समय पर बनते रहे हैं। भारत में देवालयों के समीप ऐसे जलाशय पाए जाते हैं और उनको विशेष महत्व भी दिया जाता है। बहुत से स्थानों पर प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ाने के लिये भी जलाशय बनाए गए हैं, जैसे उदयपुर या नैनीताल के जलाशय, जहाँ नौकाविहार बड़ा आनंद दायक होता है।
लाभ
जलाशयों का एक अप्रत्यक्ष लाभ यह है , कि उनमें संचित जल का रिसाव धीरे-धीरे भूमि में होता रहता है, जिसके द्वारा भूगर्भ में स्थित जलस्त्रोतों में जल पहुँचता रहता है, जो दूर-दूर स्थलों पर कूपों द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये निकाला जाता है। मध्य भारत और दक्षिणी पठार के प्रदेशों में बहुत से जलाशय इसलिए बनाए जाते हैं, कि वर्षा ऋतु में उनमें जल संचित होकर भूगर्भ में स्थित स्रोतों में जल प्लावित कर सके, जिससे वर्षा के बाद कूपों में जल उपलब्ध हो सके। अत: जलाशयों से बड़े लाभ हैं और उनका विकास मानवीय विकास के साथ पूर्णतया संबद्ध है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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