जीव गोस्वामी
पूर्व बंगाल के बरिशाल ज़िले का एक अंश कभी चन्द्रद्वीप नाम से प्रसिद्ध था। चन्द्र द्वीप के एक अंश बाकला में रूप-सनातन के पिता कुमारदेव की अट्टालिका थी। रूप-सनातन और उनके छोटे-भाई वल्लभ जब हुसैनशाह के दरवार में सर्वोच्च पदों पर नियुक्त थे, तब इस अट्टालिका का गौरव किसी राजप्रासाद से कम न थां धन-धान्य, राजैश्वर्य, बन्धु-बान्धवों, दास-दासियों से परिपूर्ण और तरू-लताओं, बाग-बगीचों से परिवेष्टित इस अट्टालिका की शोभा देखते ही बनती थी।
पर जब से तीनों भाई संसार छोड़कर चले गये मानो इसने भी वैराग्य ले लियां इसकी चमक-दमक और चहल-पहल अतीत के गर्भ में विलीन हो गयी। पुर-परिजनों और दास-दासियों का कलगुंजन भी अब इसमें सुनाई नहीं पड़ता। सुनाई पड़ता है नितान्त नीरवता के वातावरण में एक वर्षीय-सी विधवा का मन्द स्वर, जो रात्रि के अन्धकार में दीपशिखा के निकट बैठी पुराण का पाठ करती है और उसके शिशु का कलकंठ, जो उससे सटकर बैठा बड़े ध्यान से पुराण की कहानियाँ सुनता है और बीच-बीच में उचक-उचक कर विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए रहस्यमय प्रश्न करता है।
विधवा माँ के नयनमणि यह बालक है वल्लभ का एकमात्र पुत्र जीव इसकी बुद्धि की तीक्षणता और परमार्थ विषयों में असाधारण रुचि इसके प्रश्नों से साफ़ झलकती है। इसने अपने परिवार से उत्तराधिकार में पाया ही और क्या है? न तो इसने पाया है अपने पिता और पितृव्यों का राजवैभव, न उनके किसी सिंहासन का उत्तराधिकार। पायी है केवल उनकी विवेक बुद्धि और उनकी भक्ति की अदम्य स्पृहा। इसके बल-बूते पर ही इसे उत्तरकाल में करतलगत हुआ भक्ति का विराट साम्राज्य। इसके बल पर ही यह उदित हुआ वृन्दावन धाम में भक्ति-आन्दोलन के केन्द्र में भक्ति-सिद्धान्त और साधना के आलोक स्तम्भ के रूप में और परिचित हुआ गौड़ीय-वैष्णव समाज के महान् शक्तिधर अधि नायक श्रीजीव गोस्वामी के रूप में।
जन्म
जीव के जन्म काल का अनुमान भक्तिरत्नाकर की निम्न पंक्तियों के आधार पर लगाया जाता है-
श्री जीवादि संगोपने प्रभुरे देखिल।
अति प्राचीनेर मुखे ए सब शुनिल॥[1]
श्रीनरहरि चक्रवर्ती के इस उल्लेख का आशय जान पड़ता है कि जीव बहुत छोटी अवस्था के शिशु थे और अधिकतर माँ के साथ या उनकी गोद में रहते थे जब उन्होंने महाप्रभु के दर्शन किये। महाप्रभु जब 1513 ई. या 1514 ई. में रामकेलि गये तो उनके साथ उनकी माँ और अन्य महिलाओं ने छिपकर कहीं से उनके दर्शन किये। नरहरि चक्रवर्ती ने यह भी लिखा है कि उन्होंने किसी बहुत प्राचीन या वृद्ध व्यक्ति के मुख से ऐसा सुना, जिसने स्वयं उस समय महाप्रभु के दर्शन किये थे। श्रीसतीशचन्द्र मिश्रका कहना है कि उस समय जीव की उम्र यदि दो वर्ष मानी जाय तो मानना होगा कि उनका जन्म सन् 1511 ई. में रामकेलि में हुआ।[2]
बाल्यकाल
तीन वर्ष बाद सन् 1514 में रूप गोस्वामी ने संसार त्यागा। वल्लभ और परिवार के अन्य लोगों को साथ ले वे पहले फतेयाबाद वाले अपने घर गये। कुछ दिनों के लिये वहाँ रह गये। वल्लभ परिवार के अन्य लोगों को लेकर वाकला चले गये। जीव के साथ उन्हें सबकों वहाँ छोड़ वे फतेयाबाद में रूप गोस्वामी से फिर जा मिले। जब नीलाचल से महाप्रभु के वृन्दावन गमन का सम्वाद मिला, तब दोनों भाई वृन्दावन की ओर चल दिये। प्रयाग में उनकी महाप्रभु भेंट हुई, जब वे वृन्दावन से लौटकर नीलाचल जा रहे थे। एक मास वृन्दावन में रह कर दोनों भाई गौड़ लौटे। गौड़ में गंगातीर पर बल्लभ को अभीष्ट धाम की प्राप्ति हुई। उस समय जीव की उम्र 4 या 5 वर्ष की थी।
पिता और पितृव्यों के समान जीव भी बहुत सुन्दर थे-
जैछे सनातन, रूप, वल्लभ सुन्दर।
तैछे श्रीजीवेर कि सौन्दर्य मनोहर॥[3]
उनके दीर्घ नेत्र, उच्च नासिका, उच्च ललाट, प्रशस्त वक्ष और कंचन के समान मुख की दीप्ति उनके महापुरुष होने की सूचना देते थे। भक्तिरत्नाकर में जीव के वाल्य-चरित्र का सुन्दर वर्णन है। वे ऐसा कोई खेल ही न खेलते, जिसका सम्बन्ध श्रीकृष्ण से न हो। कृष्ण-बलराम की दो मूर्तियाँ वे सदा अपने पास रखते। पुष्प-चन्दनादि से उनकी पूजा करते, वस्त्र-भूषणादि से उन्हें सजाते, फिर अनिमिष नेत्रों से उनकी ओर देखते रहते, कनकपुतली की तरह भूमि पर लोट कर सिक्त नेत्रों से उन्हें प्रणाम करते और भक्तिपूर्वक विविध प्रकार के मिष्ठान का उन्हें भोग लगा बालकों के साथ प्रसाद ग्रहण करते। अकेले भी निर्जन में उन्हें लेकर तरह-तरह के खेल खेलते। सोते समय उन्हें अपने वक्ष से लगाकर रखते। उस समय भी धर के लोग दोनों मूर्तियों को उनके वक्ष से हटाना चाहते तो न हटा सकते-
कृष्ण-बलराम बिना किछुइ न भाय।
एकाकिओ दोंहे लइया निर्जने खेलाय॥
शयन समये दोहे राखये बक्षेते।
मात कौतुकेओ ना पारे लइते॥[4]
कभी कभी कृष्ण-बलराम उन्हें स्वप्न में दर्शन देते।
विद्यार्थी जीवन और वैराग्य
जीव पाठशाला जाने लगे। अल्पकाल में ही उन्होंने व्याकरण, अलंकार, काव्यादि पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया-
अल्पकाले श्रीवेर बुद्धि चमत्कार।
व्याकरण आदि शास्त्रे अति अधिकार॥[5]
मेघा और बुद्धि का ऐसा चमत्कार देख अध्यापक और सहपाठीगणों के आश्चर्य की सीमा न रही। सभी कहने लगे-"जीव कोई साधारण बालक नहीं है। लगता है इसका जन्म किसी देव-अशं से है-
सबे कहे-देव अंशे जनम इहार। नहिले कि अल्पकाले एत अधिकार॥[6]
जीव पढ़ते लिखते तो बड़े मनोयोग से, पर कृष्ण बलराम की याद कर कभी कभी रो पड़ते। उनका जैसा भाव कृष्ण बलराम के प्रति था, वैसा ही और निताई के प्रति भी। कभी-2 वे एकान्त में भाव विह्नल अवस्था में उनसे न जाने क्या क्या कहते। परिवार के लोग उन पर दृष्टि रखते और अलक्षित रूप से एकान्त में उनकी भाव मुद्रा देख परस्पर कहते-"जीव की जो दशा है उसे देख लगता है कि वह थोड़े ही दिनों में गृह त्याग देगा-)
केह कहे-"अहे भाई! बिचारिनु मने। जीव छाड़िबे घर आति अल्प दिने॥[7]
एक बार वे रोकर श्रीकृष्ण चैतन्य को पुकारते हुए धैर्य खो बैठे। आन्तरिक वेदना इतनी असह्य हो गयी कि पृथ्वी पर लोट पोट होने लगे। उनका मुख और वक्ष नेत्रों के जल से भीग गया और अन्त में मूर्च्छा आ गयी। भक्तरत्नाकर में वर्णन है कि परिवार के किसी व्यक्ति ने अलक्षित रूप से उनकी यह दशा देखी-
एक दिन देखिल अलक्षित। श्रीकृष्ण चैतन्य बलि हइला मूर्च्छित॥
धरनी लोटाय, धैर्य धरन न जाय। मुख, वक्ष भासे दुइ नेत्रेर धाराय॥[8]
उस दिन रात को उन्हें निद्रा न आयी। थोड़ी देर को आँख लगी तो स्वप्न में कृष्ण-बलराम के दर्शन हुए। दूसरे ही क्षण कृष्ण-बलराम में गौर-निताई के दर्शन हुए। उनके गौर कान्तिमय स्वरूप की अपूर्व छठा को अनिमेष देखते-2 वे उनके चरणों में लोट गये और नेत्रों के जल से उन्हें अभिषिक्त कर दिया। तब उन्होंने अपने चरणकमल उनके मस्तक पर रखे और प्यार से बार-बार उन्हें आलिंगन कर अमृतमय प्रबोध-बचन कहे-
करुणा समुद्र गौर नित्यानन्द रायं पादपद्म दिलेन जीवरे माथाय॥
परम वात्सल्ये पुन: करे आलिंगन। कहिल अमृतमय प्रबोध वचन॥[9]
गौर सुन्दर ने प्रेमाविष्ट हो नित्यानन्द प्रभु के चरणों में उन्हें डाल दिया। नित्यानन्द ने आशीर्वाद देते हुए कहा-"मेरे प्रभु गौरसुन्दर में तुम्हारी रति होह। वे तुम्हारे जीवन सर्वस्व हों।"
श्री गौर सुन्दर महाप्रेमाविष्ट हैया। प्रभु नित्यानन्द पदे दिल समर्पिया॥
नित्यानन्द श्रीजीवे कहये बार-बार। एइ मोर प्रभु होक सर्वस्व तोमार॥[10]
तब से गौर-निताइ की स्पप्नदृष्ट मूर्तियाँ छाया की तरह उनके आगे-पीछे बनी रहती। संसार के प्रति उदासीनता का भाव उन पर सदा छाया रहता। परिवार के प्राचीन ऐश्वर्य का लोप हो जाने पर भी, उनके पास अपने और परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त धन था। पर उन्होंने अपने धन-सम्पत्ति की ओर कभी मुड़कर नहीं देखा वे अपनी माँ और अन्य लोगों के मुख से सुनते अपने दोनों पितृव्यों के त्याग और वैराग्य की कहानी और उनका हृदय एक अपार्थिव पुलक से बार-बार सिहर उठतां उनका दिव्य आकर्षण उन्हें अपनी ओर खीचता जाना पड़ता। वे उनके दर्शन के लिये उद्धिन हो उठते। पर दर्शन तो दूर उनके सम्वाद के लिए भी उन्हें निराश होना पड़ता, फिर भी उनकी छाप उनके ऊपर स्पष्ट दीखती। ऐसा जान पड़ता कि जैसे उन्होंने उस अल्पावस्था में ही उनका अनुसरण करने का संकल्प कर दिया हो।
प्रेम-विलास' में वर्णन है कि माँ से अपने पितृव्यों के दैन्य और डोर-कौपीन धारण कर वृन्दावन में घर-घर मधुकरी भिक्षा माँग कर जीवन निर्वाह करने की बात सुन वे उनका पथानुसरण करने के लिए इतना बेचैन हो उठे कि बाक्ला में रहते हुए कैशोरावस्था में ही उनके समान वैराग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। माँ को यह देखकर चिन्ता हुई कि वे भी कहीं संसार त्याग कर वृन्दावन में उनसे न जा मिले। पर स्वयं धर्मपरायणा और भक्तिभाव सम्पन्न होने के कारण उन्होंने इसमें कोई वाधा न दी।
जीव के त्याग-वैराग्य, अखण्ड ब्रह्मचर्य और पवित्र भक्तिमय जीवन ने उनकी सूक्ष्म बुद्धि पर धार रख उस सूक्ष्मतर कर दिया। इसलिए 16/17 वर्ष की अवस्था में ही स्थानीय चतुष्पाठी में काव्य, व्याकरण, स्मृति प्रभृति की शिक्षा समाप्त कर वे वेदान्त आदि दर्शनशास्त्र पढ़ने के लिए व्यग्र हो उठे। साथ ही वृन्दावन जाने की उनकी इच्छा भी प्रबल हो गयी।
गृह-त्याग
नवद्वीप से बहुत से लोग पहले वृन्दावन जा चुके थे। उनके लिए भी कोई सुयोग मिलने पर नवद्वीप से वृन्दावन जाना आसान था। नवद्वीप उस समय विद्या का प्रधान केन्द्र भी था। इसलिए उन्होंने वेदान्त आदि के अध्ययन के छल से नवद्वीप जाने का विचार किया वे पहले कुछ आत्मीय स्वजनों के साथ नौका द्वारा फतेयाबाद के अन्तर्गत प्रेम भाग वाले अपने घर गये। कुछ दिन वहाँ रूक कर केवल एक नौकर को साथ ले चल पड़े नवद्वीप की पदयात्रा पर। स्वजनों को उन्होंने पहले ही नौका से वाक्ला वापस भेज दिया था। नवद्वीप जाते समय उनका नैष्टिक ब्रह्मचारी का वेष था। उनके हाथ में जप की माला थी और कन्धे पर लटक रहा था भिक्षा का झोला। वे गृह छोड़ कर जा रहे थे, उत्तर जीवन में फिर कभी संसार में लौट कर न आने का दृढ़ संकल्प लिये।
नवद्वीप में नित्यानन्द प्रभु के चरणों में
नवद्वीप पहुँचते ही सहसा उनका भाग्यसूर्य उदय हुआ। खड़दह से नित्यानन्द प्रभु कई दिन पूर्व सदल-बल वहाँ आये थे और श्रीवास पण्डित के घर ठहरे हुए थे। मानो श्रीजीव पर कृपा करने के उद्देश्य से ही उन्होंने नवद्वीप की यात्रा की थी और उनके आगमन की प्रतिक्षा कर रहे थे। जीव को नवद्वीप में पैर रखते ही यह शुभ संवाद मिला। वे भावविभोर अवस्था में उलटे सीधे पैर रखते झट जा पहुँचे श्रीवास पण्डित के घर और लोट गये नित्यानन्द प्रभु के चरणों में।
रूप-सनातन के भ्रातुष्पुत्र को अपने चरणों में पड़ा देख नित्यानन्द का आनन्द समुद्र उमड़ पड़ा। उद्दण्ड नृत्य कीर्तन करते हुए उन्होंने अपना चरण उनके मस्तक पर रखा और आशीर्वाद दिया। उन्हें अपने साथ ले जाकर गौर-लीला के चिह्नित स्थानों का दर्शन कराया। महाप्रभु की स्मृति से परिपूर्ण उनकी एक-एक लीलास्थली के दर्शन कर जीव भाव-समुद्र में खो गये। दूसरे दिन नित्यानन्द प्रभु से हाथ जोड़कर बोले-"प्रभु! आपकी कृपा से महाप्रभु की आदि लीला के सभी स्थानों के दर्शन कर लिये। अब आज्ञा दे, नीलाचल जाकर उनकी अन्त्य-लीला-स्थलियों के दर्शन कर आने की। वहाँ से लौटकर मेरी इच्छा है आपके दास रूप में आपकी चरण छाया में रहकर साधन-भजन करने की। आप मुझे अंगी कार करने की कृपा करें।"
पर नित्यानन्द प्रभु को तरुण जीव के मुखारविन्द की दिव्य कान्ति, तीक्ष्ण नासिका, प्रशस्त ललाट की तेजस्विता और नेत्रों की भाव मय उद्दीपना देख भूल न हुई उन्हें भविष्य के वैष्णव समाज के नायक के रूप में पहचानने में। उन्होंने उन्हें प्रेम से आलिंगन करते हुए कहा-
"शीघ्र ब्रजे रकह प्रयान तोमार वंशे प्रभु दियाछेन सेई स्थान।"[11]
अर्थात् तुम्हारे वंश को प्रभु ने वृन्दावन की सेवा का अधिकार सौपा है। इसलिए तुम वृन्दावन जाओ। वही तुम्हारा प्रकृत कार्यक्षेत्र है। तुम्हारे पितृव्य रूप-सनातन महाप्रभु के आदेश से वहाँ रहकर भक्ति धर्म का प्रचार कर रहे है। तुम जाकर उनकी सहायता करो। उनके पश्चात् तुम्हें ही महाप्रभु द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म के प्रचार का गुरुतर भार सम्हालना है, और तैयार करनी है उसकी दार्शनिक भित्ति। पर इस कार्य के लिए वेद वेदान्त का अध्ययन करना आवश्यक है। इसलिए वृन्दावन जाने से पूर्व कुछ दिन काशी में रहकर मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त की शिक्षा ग्रहण करो।
काशी में मधुसूदना वाचस्पति से वेदान्त अध्ययन
जीव काशी चले गये। मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त पढ़ने लगे। मधुसूदन वाचस्पति का उस समय काशी में प्रबल प्रताप था। वे सार्वभौम भट्टाचार्य के प्रियतम शिष्य थे। न्याय और वेदान्त के भारत विख्यात पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य का महाप्रभु से साक्षात होने के पश्चात् मत-परिवर्तन हो गया था। वे भक्ति-सिद्धान्त के अनुसार वेदान्त का प्रचार करने लगे थे। उन्हीं से वेदान्त की शिक्षा ग्रहण कर मधुसूदन वाचस्पति काशी धाम में श्रेष्ठतम प्राचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे।
जीव की अद्भुत मेधा से वाचस्पति प्रभावित हुए। प्रेम से उन्हें वेदान्त का पाठ पढ़ायां उन्नीस वर्ष की आयु में उनके न्याय-वेदान्त। शास्त्र में आद्वितीय होने की ख्याति काशी में चारों ओर फैल गयी-
"काशीते श्री जीवेर प्रशंसा सर्व ठाई।
न्याय वेदान्तादि शास्त्रे ऐछे केह नाइ।"[12]
वृन्दावन आगमन और दीक्षा
काशी में वेदान्त का पाठ समाप्त करने के पश्चात् वे वृन्दावन चले गये। अनुमान किया जाता है कि वेदान्त पढ़ने के लिए वे काशी में कम से कम दो वर्ष रहे होंगे। वृन्दावन में उस समय स्वर्णिम युग था। भक्ति की गंगा अवाधगति से उमड़-घुमड़कर वह रही थी। उनके पितृव्य नव-स्थापित कृष्ण-भक्ति के साम्राज्य पर शासन कर रहे थे। कृष्ण के श्रीविग्रहों की स्थापना,कृष्ण-भक्ति-शास्त्रों के निर्माण और कृष्ण-लीला सम्बन्धी स्थलियों के आविष्कार का कार्य तीव्र गति से चल रहा था। रघुनाथभट्ट गोस्वामी, प्रबोधानन्द सरस्वती, गोपालभट्ट गोस्वामी, रघुनाथदास गोस्वामी, काशीश्वर और कृष्णदास कविराज आदि प्रधान-प्रधान चैतन्य महाप्रभु के परिकर वृन्दावन पहुँच चुके थे और विभिन्न प्रकार से रूप सनातन के प्रचार-कार्य में उनका हाथ बटा रहे थे।
जीव को भी इस कार्य में सहयोग करने के लिए नित्यानन्द प्रभु ने वृन्दावन भेजा था। उन्हें प्राप्त कर रूप और सनातन अति प्रसन्न हुए। उन्हें ले जाकर सब महात्माओं से उनका परिचय कराया, सबका आशीर्वाद दिलवाया। उनकी अवस्था इस समय केवल 19 वर्ष की थी। वे सबसे छोटे और रूप्-सनातन के भ्रातुष्पुत्र होने के कारण तो सबके स्नेहभाजन थे ही, उन्हें अपने रूप, गुण, चरित्र, असाधारण पांडित्य, कृष्ण-भजन और वैष्णव सेवा में अदम्य-उत्साह के कारण सबको विशेष रूप से प्रावित करने में देर न लगी। शास्त्र-चर्चा हो या उत्सव अनुष्ठान सब में वे सबसे आगे रहने लगे।
सनातन गोस्वामी के आदेश से रूप गोस्वामी से दीक्षा ले वे उनके पास रह कर उनकी सेवा करने लगे। वे उनके लिए विग्रह-सेवा की सामग्री जुटाते, सेवा-पूजा में उनकी सहायता करते, उनके भोजन कर लेने पर उनका प्रसाद ग्रहण करते, उनके शयन करने पर उनका पाद-सम्वाहन करते, उनके ग्रन्थ-रचना के समय पोथी पत्र जुटाकर देते, आवश्यकता होने पर विभिन्न ग्रन्थों से आवश्यक श्लोकों को खोजकर देते औ जब जिस प्रकार से आवश्यक होता ग्रन्थ रचना में उनकी सहायता करते।
जीव गोस्वामी और वल्लभ भट्ट
[13]'भक्तिरत्नाकर' और 'प्रेमविलास' में उल्लेख है कि जब रूप गोस्वामी भक्तिरसामृतसिन्धु की रचना में लगे थे, दिग्विजयी श्रीवल्लभ भट्ट आये उनसे मिलने। उस समय जीव गोस्वामी उनके निकट बैठे पंखा कर रहे थे। रूप गोस्वामी ने उन्हें आदर पूर्वक आसन दिया कुछ वार्तालाप के पश्चात् वल्लभ भट्ट भक्तिरसामृतसिन्धु के पन्ने उलट कर देखने लगे। उन्हें निम्नलिखित श्लोक में 'पिशाची' शब्द का प्रयोग खटका-
'भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते।
तावद्धक्ति सुखस्यात्र कथमम्युदयो भवेत?[14]
-जब तक भुक्ति-मुक्ति स्पृहारूपी पिशाची हृदय में वर्तमान रहती है, तब तक भक्ति सुख का उदय होना सम्भव नहीं।"
उन्होंने पिशाची' शब्द श्लोक से निकाल कर इस प्रकार उसका संशोधन करने की बात कही-
"व्याप्नोति हृदयं यावद्भुक्ति-मुक्ति स्पृहाग्रह"
रूप गोस्वामी ने उनके प्रति श्रद्धा और अपने दैन्य के कारण संशोधन सहर्ष स्वीकार कर लिया। जीव को उनका संशोधन नहीं जंचा। उन्हें एक नवागत व्यक्ति का गुरुदेव जैसे महापण्डित और शास्त्रज्ञ की रचना का संशोधन करने का साहस भी पण्डितों के शिष्टाचार के प्रतिकूल लगा। क्रोधाग्नि उनके भीतर सुलगने लगी। पर गुरुदेव उस संशोधन को स्वीकार कर चुके थे, इसलिए वे उनके सामने कुछ न कह सके। उनके परोक्ष में उनसे तर्क द्वारा निपट लेने का निश्चय कर चुपचाप बैठे रहे। वे क्या जानते थे कि जिन्होंने संशोधन सुझाया है वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक दिग्विजयी पण्डित हैं।
थोड़ी देर बाद जब वल्लभ भट्ट जमुना नदी स्नान को गये, तो वे भी उनके वस्त्रादि लेकर उनके पीछे पीछे गये। कुछ दूर जाकर क्रुद्ध और कठोर स्वर में बोले-"श्रीमान् आपने भक्ति रसामृतसिन्धु में जो संशोधन सुझाया वह ठीक नहीं। गुरुदेव ने केवल दैन्यवश उसे स्वीकार कर लिया है।"
पण्डित हक्का-वक्का सा तरुण की ओर देखते रह गये। कुछ अपने आपको सम्हालते हुए बोले-"क्यों भाई मुक्ति को पिशाची कहना तुम्हें अच्छा लगता है? मुक्ति बहुत से साधकों की काम्य-वस्तु और सिद्धो की चिरसंगिनी है, शोक-नाशिनी और आनन्ददायिनी है। उसकी पिशाची से तुलना करना अनुचित नहीं है?"
जीव ने विनम्रतापूर्वक कहा-" आचार्य! मुक्ति को पिशाची कहना अनुचित हो सकता है। पर उस श्लोक में मुक्ति को पिशाची कहा ही कब गया है? पिशाची कहा गया है मुक्ति की स्पृहा को, जो यथार्थ है। स्पृहा या वासना चाहे जैसी हो, उसका भक्त के हृदय में कोई स्थान नहीं। यदि वह भक्त के हृदय में प्रवेश कर जाती है, तो उसके भक्तिरस का शोषण कर लेती है और उसे उसी प्रकार अशान्त बनाये रहती है, जिस प्रकार पिशाची किसी मनुष्य के भीतर प्रवेश कर उसे अशान्त बनाये रखती है। शान्त तो केवल कृष्ण भक्त है, जो कृष्ण सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। भुक्ति-मुक्ति कामी जितने भी हैं सब पिशाची-ग्रस्त व्यक्ति की तरह ही अशान्त हैं। श्लोक में पिशाची शब्द का प्रयोग किये बिना भी काम तो चल सकता था, पर उसके बगैर श्लोक का भाव प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट न होता। इसलिए 'पिशाची' शब्द का उस में रहना ही ठीक है। आप....।
जीव आवेश में यह सब कहे जा रहे थे। पर आचार्यपाद का ध्यान जमा हुआ था उनके पहले वाक्य पर ही। वे उसके परिपेक्ष में श्लोक को फिर से परखते हुए मन ही मन कह रहे थे-"नवयुवक ठीक ही तो कह रहा है। श्लोक में पिशाची मुक्ति की स्पृहा को कहा गया है, न कि मुक्ति को। मेरा मन मुक्ति के प्रसंग मात्र में 'पिशाची' शब्द के प्रयोग से इतना उद्विग्न हो गया था कि 'स्पृहा' की ओर ध्यान ही नहीं गया। जीव की बात काटते हुए वे बोले-"तुम ठीक कहते हो। श्लोक में 'पिशाची' मुक्ति की वासना को ही कहा गया है। भक्तों के लिए मुक्ति की वासना पिशाची के ही समान है।"
प्रतिभाधर तरुण पण्डित की सूक्ष्म दृष्टि की मन ही मन सराहना कहते हुए उन्होंने जमुना स्नान किया। स्नान के पश्चात् फिर गये रूप गोस्वामी कुटी पर। उल्लसित हो उनसे पूछा-"वह जो अल्पवयस्क पण्डित आपके पास बैठे थे, वे कौन थे? उनका परिचय प्राप्त करने के उद्देश्य से ही आपके पास लौटकर आया हूँ-
"अलप-वयस जे छिलेन तोमा-पाशे। ताँर परिचय हेतु आइनू उल्लासे॥"[15]
रूप गोस्वामी ने कहा-"वह मेरा शिष्य और भतीजा है। अभी कुछ ही दिन हुए देश से आया है।"
"बड़ा प्रतिभाशाली और होनहार है वहा" उन्होंने श्लोक के संशोधन के कारण उसके रोष का सब वृत्तांत कह सुनाया।
अन्त में कहा-"उसका दोष बिल्कुल नहीं था भूल मेरी ही थी। मेरा ध्यान 'पिशाची' शब्द में इतना उलझ गया था कि 'स्पृहा' का ध्यान ही न आया। अब मेरा अनुरोध है कि आप श्लोक को उसी प्रकार रहने दें। उसमें कोई परिवर्तन न करें।
रूप गोस्वामी की ताड़ना
बल्लभ भट्ट चले गये। रूप गोस्वामी ने मन में एक अभूतपूर्व आलोड़न छोड़ गये। जैसे ही जीव जमुना-स्नान से लौटकर आये, उन्होंने उनकी कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा-
"मोरे कृपा करि भट्ट आइला मोर पाशे।
मोर हित लागि ग्रन्थ शुधिव कहिला॥
ए अति अलप वाक्य सहिते नारिला।
ताहे पूर्व देशे शीघ्र करह गमन।
मन स्थिर हइले आसिबा वृन्दावन॥[16]
-भट्टजी ने बड़ी कृपा की जो मेरे पास आये और मेरे हित के लिए मेरे ग्रन्थ में संशोधन करने को कहा। तुम से उनकी इतनी बात भी सहन न हुई। इसलिए तुम यहाँ रहने योग्य नहीं। शीघ्र चले जाओ यहाँ से। यहाँ आना जब तुम्हारा मन स्थिर हो जाय।"
'प्रेम विलास' में इस विस्फोटक स्थिति का इस प्रकार वर्णन है-
"रूप गोस्वामी ने जीव को बुलाकर कहा-"अरे मूढ़! तू वैराग्यवेश के योग्य नहीं। तूने अपरिपक्व अवस्था में ही वैराग्य धारण कर लिया। तुझे क्रोध आया। क्रोध के ऊपर क्रोध न आया? जा, यहाँ से वापस चला जा। मैं तेरा मुख भी नहीं देखना चाहता।"[17]
जीव नवमस्तक हो चुपचाप सुनते रहे। अपने अपराध के गुरुत्व का बोध उन्हें होने लगा-"सचमुच क्रोध का त्याग किये बिना सर्वत्यागी वैरागी होना और श्री कृष्ण के चरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण होना सम्भव नहीं।"
शोक और अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर क्रन्दन करते करते उन्हें प्रणाम कर वे वहाँ से चल दिये।
निर्जन में कृच्छ् साधना
जीव वृन्दावन से बहुत दूर निर्जन वन प्रान्त में एक पर्णकुटी निर्माण कर उसमें रहने लगे। आरम्भ किया कठोर वैराग्यपूर्ण कृच्छ् साधना का जप-ध्यानमय जीवन। संकल्प किया कि जब तक गुरुदेव के मनोभाव के अनुकूल अपने जीवन में आमूल परिवर्तन न कर लेंगे, तब तक उस निर्जन कुटी को छोड़ लोकालय में प्रवेश न करेंगे। वे भिक्षा के लिए भी न जाते दूर ग्राम से आकर यदि कोई कुछ भिक्षा दे जाता तो उसे ले लेते। नहीं तो कई कई दिन तक उपवासी रहते या जमुना जल पीकर ही रह जाते। कभी भिक्षा में प्राप्त गेहूँ का चूर्ण कर उसे पानी में मिलाकर पी जाते-
बहु यत्ने किण्चित् गोधूमचूर्ण लैया। करये भक्षण ताहा जले मिशाइया॥[18]
इस प्रकार जीवन निर्वाह करते बहुत दिन हो गये। शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। एक दिन अकस्मात् सनातन गोस्वामी उन्हें खोजते हुए उधर आ निकले। उनकी दशा देख उनका हृदय द्रवित हो गया। वृन्दावन जाकर रूप गोस्वामी से उन्हें बुला लेने का अनुरोध करना चाहा पर सहसा इस सम्बन्ध में कुछ न कहकर उनसे पूछा-
"तुम्हारे भक्तिरसामृतसिन्धु का काम कहाँ तक हो पाया है?"
"काम तो बहुत कुछ हो गया है। पर अब तक कभी का समाप्त हो लेता यदि जीव होता। उसे मैंने किसी अपराध के कारण अपने पास से हटा दिया हैं", रूप गोस्वामी ने उत्तर दिया।
सनातन गोस्वामी ने अवसर पाकर तुरन्त कहा-"मैं सब जानता हूँ। उसे मैं देख कर आया हूँ। अनाहार, अनिद्रा, उपवास और कठोर तपस्या के कारण उसका शरीर इतना जर्जर हो गया है कि उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। बस प्राण किसी प्रकार जाने से रूक रहे हैं। तुमने आजन्म महाप्रभु के जीवे दया नामे रुचि' के सिद्धान्त का पालन किया है। क्या अपने ही जीव को अपनी दया से वंचित रखोगे?"
-रूप गोस्वामी ने गुरुवत् ज्येष्ठ भ्राता का इंगित प्राप्त कर जीव को क्षमा करने का निश्चय किया। उसी समय किसी के हाथ पत्र भेज कर उन्हें अपने पास बुला लिया। जीव का प्रायश्चित्त तो हो ही चुका था। उनके स्वभाव में मनोवाच्छित परिवर्तन भी हो गया था। गुरुदेव की करुणा प्राप्त कर उन्होंने नया जीवन लाभ किया। वास्तव में देखा जाय तो यह सारी घटना प्रभु की प्रेरणा से ही हुई थी। इसमें दोष किसी का नहीं था। इसके द्वारा प्रभु को भक्त-साधकों को हर प्रकार की कामना वासना यहाँ तक कि मुक्ति तक की वासना से सावधान करना था। साथ ही वल्लभभट्ट के संशोधन, जीव गोस्वामी के क्रोध और रूप गोस्वामी के शासन द्वारा भक्तों के कल्याण के लिए आदर्श स्थापित करना था वल्लभ भट्ट से भूल करवा कर और उसे स्वीकार करवा कर उनके औदार्य का, जीव से संशोधन का प्रतिवाद करवाकर गुरु-मर्यादा की रक्षा करने का, रूप गोस्वामी से संशोधन स्वीकार करवा और जीव को दण्ड दिलवाकर उनके दैन्य का।
इस सम्बन्ध में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जीव गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु की अपनी टीका में उक्त श्लोकी व्याख्या करते समय वल्लभाभट्ट के संशोधित पाठकी भी सराहना की है। उन्होंने लिखा है-
"व्याप्नोति हृदयं यावद्भुक्ति-मुक्ति स्पृहाग्रह" इति पाठान्तरन्तु सुश्लिष्टम्।
राधादामोदर की सेवा
सन् 1541 में भक्ति रसामृतसिन्धु की रचना समाप्त हुई। श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने लिखा है कि इसके एक वर्ष बाद सन् 1542 में रूप गोस्वामी ने जीव को पृथक् रूप से सेवा करने के लिए राधादामोदर की जुगलमूर्ति प्रदान की। भक्तिरत्नाकर में उद्घृत साधन दीपिका के एक श्लोक में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
राधादामोदरो देव: श्रीरूपेण प्रतिष्ठित:।
जीवगोस्वामिने दत्त: श्रीरूपेण कृपान्धिना॥[19]
अर्थात् कृपा के सागर श्रीरूप गोस्वामी ने श्री राधा दामोदर देव को प्रकट कर सेवार्थ जीव गोस्वामी को प्रदान किया। भक्तिरत्नाकर में यह भी उल्लेख है कि राधादामोमर ने स्वप्न में रूप गोस्वामी को उन्हें जीव गोस्वामी को समर्पण करने की आज्ञा दी थी। रूप गोस्वामी ने स्वप्न में देखी मूर्ति के समान ही मूर्ति तैयार करवा कर जीव को दी थी। इससे स्पष्ट है कि राधादामोदर स्वयं ही जीव गोस्वामी की प्रेम-सेवा के लोभ से उनके पास आये थे। तभी वे उनसे तरह-तरह के खाद्य माँगते थे और जीव उन्हें खाते देखते थे-
मध्ये मध्ये भक्ष्य द्रव्य मागे श्रीजीवेरे। श्रीजीव देखये प्रभु भु0जे जे प्रकारे॥[20]
एक बार उन्होंने उन्हें बुला कर हंस-हंस कर वंशी बजाते हुए अपने भुवन मोहन रूप के दर्शन दिये उसे देख जीव मूर्च्छित हो गये। चेतना आने पर उनके हृदय में आनन्द समा नहीं रहा था और दोनों नेत्रों से बहती अश्रुधार उनके वक्ष को सिक्त कर रही थी-
एक दिन बाजाय वांशी हाँसिया हाँसिया।
श्रीजीवे कहये-"मोरे देखह आसिया॥"
कैशोर बयस, वेश भुवन मोहन। देखितेइ श्रीजीव हइल अचेतन॥
चेतन पाइया हिया आनन्दे उथले। भासये दीघल टूटी नयनेर जले॥[21]
सनातन गोस्वामी को श्रीकृष्ण ने जो गोवर्द्धनशिला प्रदान की थी, वह भी उनके अप्राकटय के पश्चात् जीव गोस्वामी राधादामोदर के मन्दिर में ले आये थे। वह शिला आज भी वहाँ वर्तमान है। कुछ दिन बाद राधादामोदर के मूल विग्रह को औरंगजेब के भय से जयपुर ले जाया गया, जहाँ वे अब है। राधादामोदर के मन्दिर में उनकी जगह एक प्रतिभू विग्रह की स्थापना हुई, जिनकी सेवा श्रृंगारवट के दक्षिण पूर्व रूप गोस्वामी की भजन कुटी के निकट राधादामोदर के वर्तमान मन्दिर में अब होती है।
इस मन्दिर का निर्माण हुआ सन् 1558 के बाद जब रूप गोस्वामी अप्रकट हो चुके थे। यह सूचना वृन्दावन शोध संस्थान में सुरक्षित एक दस्तावेज की नक़ल से मिलती है, जिसके अनुसार जीव गोस्वामी ने इस मन्दिर के लिए ज़मीन 1558 में आलिषा चौधरी नाम के एक व्यक्ति से ख़रीदी थी। मन्दिर के एक प्रकोष्ठ में जीव गोस्वामी ने बड़े कष्ट से संग्रह किये हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रन्थों का एक भण्डार रख छोड़ा था, जिसका दुर्भाग्य से चिह्न भी अब वहाँ नहीं है। इस ग्रन्थ भण्डार का प्रमाण स्वयं जीव गोस्वामी का संकल्प पत्र (Will) है, जो शोध संस्थान वृन्दावन में सुरक्षित है। उसमें इसका विशेष रूप से वर्णन है। यह संकल्प पत्र भी उस भण्डार से ही प्राप्त हुआ था।
व्रजमण्डल का अधिनायकत्व
12/13 वर्ष वाद वृन्दावन के आकाश पर छा गयी दुर्दैव की कालिमा। सनातन गोस्वामी नित्यलीला में प्रवेश कर गये। रघुनाथभट्ट और रूप गोस्वामी ने शीघ्र अनुगमन किया। काशी के भारत विख्यात संन्यासी प्रकाशानन्द सरस्वती, जो महाप्रभु की कृपा लाभ करने के पश्चात् प्रबोधानन्द सरस्वती के नाम से वृन्दावन में वास कर रहे थे, पहले ही अन्तर्धान हो चुके थे। महाप्रभु के प्रधान परिकरों में जो बच रहे उनमें जीव को छोड़ और सब-लोकनाथ गोस्वामी, गोपालभट्ट गोस्वामी, रघुनाथदास गोस्वामी और चैतन्यचरितामृत के रचयिता कृष्णदास कविराज आदि बहुत वृद्ध हो जाने के कारण लोकान्तर यात्रा की प्रतीक्षा कर रहे थे।
ऐसे में महाप्रभु द्वारा प्रचारित भक्ति-धर्म की जिस विजय पताका को रूप सनातन ने फहराया था, उसे ऊँचा बनाये रखने का भार आ पड़ा जीव गोस्वामी पर। उन्होंने सब प्रकार से इसके योग्य अपने को सिद्ध किया। उनके पाण्डित्य की ख्याति पहले ही चारों ओर फैल चुकी थी। जो दिग्विजयी पण्डित आते वृन्दावन शास्त्रविद् वैष्णवों के साथ तर्क-वितर्क करने उन्हें वैष्णव-समाज के मुखपात्र श्री जीव गोस्वामी के सम्मुख जाना पड़ता। उन्हें उनके साधन बल और असाधारण पाण्डित्य के कारण निस्प्रभ होना पड़ता।
बहुत से भक्त और जिज्ञासु आते भक्ति-धर्म में दीक्षा ग्रहण करने या भक्ति-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने। सबकी जीव गोस्वामी के चरणों में आत्म समर्पण करना होता। सबको वहाँ आश्रय मिलता। बहुत से लेखकों और टीकाकारों की जीव गोस्वामी का मुखापेक्षी होना पड़ता। साधनतत्त्व की मीमांसा हो या किसी शास्त्र की व्याख्या, जीव गोस्वामी के अनुमोदन बिना उसे वैष्णव-समाज में मान्यता प्राप्त करना असम्भव होता। इसलिए रूप सनातन के अन्तर्धान के पश्चात् जीव गोस्वामी का व्रज मण्डल के अधिनायक के रूप में उभर आना स्वाभाविक था।
जीव और अकबर बादशाह
ग्राउस ने लिखा है कि अकबर बादशाह ने गौड़ीय गोस्वामियों से आकृष्ट हो सन् 1573 में वृन्दावन में उनसे भेंट की।[22] सनातन गोस्वामी के चरित्र (पृ0 103) में हमने ग्राउस के लेखको उद्घृत किया है। कुछ लोगों का मत है कि अकबर बादशाह की भेंट सनातन गोस्वामी से हुई[23] कुछ का मत है कि उनकी भेंट जीव गोस्वामी से हुई।[24] हम कह चुके है कि सनातन गोस्वामी से अकबर बादशाह की भेंट का होना सम्भव नहीं था, क्योंकि उनका अन्तर्धान हो चुका था 1573 से बहुत पहले ही। 1573 से पूर्व रूप और रघुनाथ भट्ट का भी अन्तर्धान हो चुका था। उस समय गौड़ीय गोस्वामियों में वृन्दावन वर्तमान थे-लोकनाथ, भूगर्भ, जीव और कृष्णदास कविराज आदि । अकबर को इन्हीं का आकर्षण हो सकता था। पर जीव गोस्वामी का उस समय व्रजमण्डल के अधिनायक के रूप में ख्याति फैल चुकी थी। इसलिए गोस्वामियों के प्रतिनिधि-स्वरूप श्रीजीव से ही उनकी भेंट की बात यथार्थ जान पड़ती है।
जीव गोस्वामी के प्रति अकबर की श्रद्धा का प्रमाण वृन्दावन शोध संस्थान में सुरक्षित वह फरमान भी है, जिसके द्वारा उन्होंने जीव गोस्वामी नाम गोविन्ददेव की सेवा के लिए 130 बीघा ज़मीन भेंट की थी। अकबर बादशाह के जीव गोस्वामी के प्रति आदरभाव और औदार्यपूर्ण व्यवहार के कारण ही आज भी वृन्दावन में जितनी भू सम्पत्ति गोविन्देदेव की है उतनी और किसी ठाकुर की नहीं है। गोविन्ददेव वृन्दावन के राजा कहलाते हैं।
जीव और मीराबाई
जीव गोस्वामी के साथ मीराबाई के साक्षात् की कथा प्रसिद्ध है। प्रियादास ने भक्तमाल की टीका में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है-
वृन्दावन आई, जीव गुसाईजी से मिली झिली,
तिया मुख देखिवे पन लै छुटायौ है।
मीराबाई आई जीव गोस्वामी के दर्शन करने। जीव गोस्वामी के किसी शिष्य ने उनसे कहा-"वे स्त्री का मुख नहीं देखते।"
मीराबाई ने उत्तर दिया-"मैं तो जानती थी कि वृन्दावन में गिरिधर लाला ही एकमात्र पुरुष है, और सब स्त्री हैं। मैं नहीं जानती थी कि यहाँ जीव गोस्वामी भी एक पुरुष है, जो स्त्रियों का मुख नहीं देखते।"
जीव गोस्वामी ने जब कुटिया के भीतर से ही यह सुना तो प्रसन्न हो बाहर निकल आये और मीराबाई से मिले।
जीव और माँ जाह्नवा
भक्तिरत्नाकर में जीव के साथ श्रीनित्यानन्द प्रभु की पत्नी माँ जाह्नवा के साक्षात्कार का भी उल्लेख है। जाह्नवा का वृन्दावन गमन खेतरी उत्सव के पश्चात् सन् 1576-77 के आस पास माना जाता है। वे जब वृन्दावन गयी तो जीव गोस्वामी ने उन्हें घूम-घूमकर व्रजमण्डल के दर्शन कराये। उनकी आज्ञा से वृहद्भागवतामृतादि रूप-सनातन के कुछ ग्रन्थ भी पढ़कर सुनाये, जिन्हें सुन वे इतना भावविह्नल हो गयीं कि उन्हें अपने आपको सम्हालना दुष्कर हो गया-
सुनिते गोसाईर ग्रन्थ उत्कन्ठित मन। श्रीजीव गोस्वामी कराइलेन श्रवण॥
वृह्रदागवतामृतादिक श्रवणेते। हइला विह्वल प्रेमे नारे स्थिर हैते॥[25]
जीव गोस्वामी की रचनाएँ
जीव गोस्वामी जैसे तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न और मेधावी थे, वैसे ही सुयोग्य और भारत विख्यात पण्डितों से शास्त्राध्ययन करने का उन्हें सुअवसर प्राप्त हुआ था। सनातन और रूप का पाण्डित्य, कवित्व और भक्ति-शास्त्रों का सम्यक् ज्ञान उन्हें पैतृक सम्पत्ति के समान उनसे उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। ग्रन्थ रचना-काल में उनकी सहायता करते समय भक्ति के क्षेत्र में उनके शीर्ष स्थानीय ग्रन्थों का हार्द उन्हें हस्तामलकवत् उपलब्ध हुआ था। उनका जो कार्य बाक़ी रह गया था उसे पूरा करने के लिए वे सब प्रकार से उपयुक्त थे। आगे विस्तार में पढ़ें- जीव गोस्वामी की रचनाएँ
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/638
- ↑ सप्त गोस्वामी, पृ0 204।
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/644
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/724-725
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/639
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643
- ↑ भक्तिरत्नाकर (1/639) (1/643) (1/102
- ↑ भक्तिरत्नाकर (1/639) (1/643) (1/102) (4/699-700
- ↑ भक्तिरत्नाकर (1/639) (1/643) (1/102) (4/699-700) (1/734-735
- ↑ भक्तिरत्नाकर (1/639) (1/643) (1/102) (4/699-700) (1/734-735) (1/736-737
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/772
- ↑ भक्तिरत्नाकर 1/119
- ↑ श्रीसतीशचन्द्र मित्र और शंकरराय आदि कुछ लोगों का मत है कि यह वल्लभ भट्ट विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के श्रीपाद वल्लभाचार्य थे (दे. सप्त-गोस्वामी पृ. 214; भारतेर-साधक, खण्ड 5, पृ. 165)। ऐतिहासिक दृष्टि से श्रीपाद वल्लभाचार्य का जीव गोस्वामी से मिलन सम्भव जान पड़ता है। पर इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। श्रीपादवल्लभाचार्य का अन्तर्धान हुआ सन् 1531 (सम्वत् 1587) में, मतान्तर से सन् 1533 में (Dasgupta: History of Indian Philosophy, Vol. IV, Cambridge, 1949, p-372) जीव गोस्वामी संसार त्यागकर नवद्वीप होते हुए काशी पहुँचे सन् 1528 में। दो वर्ष श्री मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त अध्ययन कर वृन्दावन आगमन का समय बिल्कुल निश्चित नहीं है। यदि उन्होंने गृह-त्याग एक-दो वर्ष बाद किया, या काशी में वेदान्त-अध्ययन के लिए दो वर्ष से अधिक रहे, तो उनका वृन्दावन-आगमन श्रीपादवल्लभाचार्य के अन्तर्धान के पश्चात् ही हो सकता है।
- ↑ भक्ति रसामृतसिन्धु 1/2/22
- ↑ भक्तिरत्नाकर 5/1637
- ↑ भक्तिरत्नाकर 5/1641-1643
- ↑ "श्री रूप डाकिया कहे श्रीजीवेर प्रति। अकाले वैराग्य वेश धरिले मूढ़मति॥
क्रोधेर उपरे क्रोध ना इहल तोमार। ते कारणे तोर मुख ना देखिब आर॥" - ↑ भक्तिरत्नाकर 5/1652
- ↑ भक्तिरत्नाकर 4/290
- ↑ भक्तिरत्नाकर 4/293
- ↑ भक्तिरत्नाकर 4/294-296
- ↑ District Memoirs of Mathura, 3rd Ed.( p. 241
- ↑ हरिदास: गौड़ीय वैरुष्णव साहित्य, परिशिष्ट, पृ0 90
- ↑ सप्तगोस्वामी, पृ0 179
- ↑ भक्तिरत्नाकर 11/201-202
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