जैमिनि

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आचार्य जैमिनी महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यासदेव के शिष्य थे। सामवेद और महाभारत की शिक्षा जैमिनी ने वेदव्यास से ही पायी थीं। ये ही प्रसिद्ध पूर्व मीमांसा दर्शन के रचयिता हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'भारतसंहिता' की भी रचना की थी, जो 'जैमिनि भारत' के नाम से प्रसिद्ध है। आपने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था। इन तीनों ने वेद की एक-एक संहिता बनायी है। हिरण्यनाभ, पैष्पंजि और अवन्त्य नाम के इन के तीन शिष्यों ने उन संहिताओं का अध्ययन किया था।

परिचय

जैमिनि मीमांसा सूत्र के रचयिता हैं, किन्तु इन्हें मीमांसा शास्त्र का प्रवर्तक कहना उचित नहीं है, क्योंकि इन्होंने अपने सूत्रों में मीमांसा दर्शन के अन्य आठ आचार्यों के मतों का उल्लेख किया है। इनके समय के विषय में कोई निश्चित मत स्थापित नहीं हो सका है। कुछ लोग इनका समय ईसवी पूर्व 300 वर्ष मानते हैं, तो कुछ लोग ईसवी की दूसरी शताब्दी। इनके जीवन चरित के विषय में भी कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं है। पंचतत्र में केवल इतना बतलाया गया है कि मीमांसा सूत्र के रचयिता जैमिनि को एक हाथी ने मार दिया था। भागवत पुराण में वर्णन मिलता है कि जैमिनि ने व्यास से सामवेद का अध्ययन किया था तथ अपने शिष्य सुमन्तु को सामवेद पढ़ाया था। जैमिनि ने अपने सूत्रों में जिन आठ आचार्यों के मतों का उल्लेख किया है, उनके नाम हैं- बादरायण, बादरि, कार्ष्णाजिनि, लावुकायन, कामुकायन, आत्रेय, आलेखर तथा आश्मरण्य।

सामवेद के आचार्य

प्रारम्भावस्था में वेद केवल एक ही था; एक ही वेद में अनेकों ऋचाएँ थीं, जो “वेद-सूत्र” कहलाते थे; वेद में यज्ञ-विधि का वर्णन है; सम (गाने योग्य) पदावलियाँ है तथा लोकोपकारी अनेक ही छन्द हैं। इन समस्त विषयों से सम्पन्न एक ही वेद सत्युग और त्रेतायुग तक रहा; द्वापरयुग में महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेद को चार भागों में विभक्त किया। इस कारण महर्षि कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं, अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि व्यास के पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु- यह चार शिष्य थे। महर्षि व्यास ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्यापन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।[1]

जैमिनि द्वारा रचित मीमांसा सूत्र

जैमिनि द्वारा रचित मीमांसा सूत्र 12 अध्यायों में विभक्त है। ये बारह अध्याय बारह विषयों पर आधारित हैं। इसीलिए इसे 'द्वादश लक्षणी' भी कहा जाता है। यह भी एक मान्यता है कि उक्त बारह अध्यायों के अतिरिक्त चार अन्य अध्यायों की भी रचना जैमिनि ने की थी, जिन्हें संकर्षण काण्ड या देवता काण्ड के नाम से जाना जाता है। जैमिनि के सूत्रों का मुख्य प्रतिपाद्य धर्म के स्वरूप की खोज, मानव के कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेचन तथा इनसे साक्षात् या परम्परया सम्बन्ध रखने वाले अन्य विषय हैं। जैमिनि ने मीमांसा सूत्र के बारह अध्यायों में निम्नलिखित बारह विषयों का विशद विवेचन किया है-

  • पहले अध्याय में धर्म के लक्षण तथा धर्म के प्रमाणों का निरूपण किया गया है।
  • दूसरे अध्याय में कर्मभेद को बतलाने वाले शब्दान्तर, अभ्यास, संख्या, संज्ञा, गुण तथा प्रकरणान्तर इन छ: विषयों का वर्णन है।
  • तीसरा अध्याय शेषत्व का निरूपण करता है। इसमें श्रुति, लिंग वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा समाख्या का प्रतिपादन किया गया है। इन्हें विनियोजक प्रमाण कहा जाता है।
  • चौथे अध्याय का विषय प्रयोज्य-प्रयोजक-भाव है, जिसमें श्रुति, अर्थ, पाठ, स्थान, मुख्य और प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है। इन्हें बोधक प्रमाण कहा गया है।
  • पांचवां अध्याय 'क्रम' है। इसमें कर्मों के आगे पीछे होने का निर्देश किया गया है।
  • छठे अध्याय का मुख्य विषय 'अधिकार' है। इसमें यज्ञ करने वाले के गुण और विशेषता का वर्णन किया गया है।
  • सातवें अध्याय में यज्ञों का निरूपण है।
  • आठवें अध्याय में विशेषातिदेश[2] का निरूपण किया जाता है।
  • नवें अध्याय में 'ऊह' की चर्चा है, अर्थात् इस बात की कि किस यज्ञ में किस यज्ञ की किन किन क्रियाओं में किस प्रकार परिवर्तन कर उन्हें काम में लाया जा सकता है।
  • दसवां अध्याय बाघ और अभ्यच्चय का निरूपण करता है, जिसका तात्पर्य यज्ञों तथा यज्ञ में होने वाली क्रियाओं के निराकरण तथा समावेश के लिए आधार की चर्चा करना है।
  • ग्यारहवें अध्याय में 'तन्त्र' का निरूपण है, जिसमें केन्द्रीकरण की प्रक्रिया प्रदर्शित की गई है।
  • बारहवें अध्याय में 'अवाप' का वर्णन है, जो कि विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया से सम्बन्धित है।

प्रणाली

जैमिनि ने उक्त समस्त विषयों के विवेचन के लिए प्रत्येक को पांच वर्गों में विभक्त कर निरूपण करने वाली प्रणाली का विकास किया। ये पांच वर्ग इस प्रकार हैं-

  1. अवसर या प्रसंग अर्थात् उस अवसर, प्रसंग या उद्देश्य की व्याख्या करना, जिसमें विचारणीय विषय की खोज की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
  2. किसी भी प्रकरण की विषय वस्तु का निरूपण जो अधिकांश में वेद-वाक्यों से अद्धृत किया गया है।
  3. संदेह का आधार जो किसी खोज या जिज्ञासा के लिए आवश्यक होता है।
  4. पूर्वपक्ष अर्थात् किसी प्रकरण के सम्बन्ध में सम्भावित मत।
  5. सिद्धांत जो अन्तिम निष्कर्ष के रूप में स्वीकार किया जाता है। 

धर्म

जैमिनी ने मुख्य रूप से धर्म के प्रतिपादन के लिए ही मीमांसा सूत्र की रचना की। धर्म की परिभाषा देते हुए जैमिनि ने कहा है कि धर्म वे अर्थ या कर्म हैं, जिनको करने के लिए वेदों ने आदेश दिया है तथा जिनके करने से अभिप्रेत फल की प्राप्ति होती है। इस प्रसंग में यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि मीमांसा में धर्म शब्द का प्रयोग न तो किसी सम्प्रदाय के अर्थ में हुआ है, न पुण्य-पाप के अर्थ में, जो साधारणतया धर्म शब्द समझे जाते हैं। यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में वेद प्रतिपादित कर्तव्यों के लिए किया गया है। धर्म शब्द की इस परिभाषा से ही धर्म के ज्ञान के साधन का भी निर्देश हो जाता है। वेद के विधि वाक्य ही धर्म के ज्ञान के एकमात्र साधन हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से धर्म का ज्ञान किसी प्रकार सम्भव नहीं है।

यही कारण है कि जैमिनि ने वेदों की विश्वसनीयता वैदिक वाक्य, 'वेद' शब्द और उसके अर्थ, शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध आदि का विस्तार से विवेचन किया है। वेद अपौरुषेय है तथा मूल के रूप में यह विधि निषेध परक वाक्य माना गया है। वर्णनात्मक वाक्य विधि के साथ मिलकर ही सार्थक होते हैं। ये वर्णनात्मक वाक्य अर्थवाद वाक्य कहलाते हैं।

अपूर्व

जैमिनि के दर्शन में यह प्रश्न उठाया गया है कि यज्ञ आदि कर्मक्रिया रूप है, जो अपनी पूर्णता के साथ समाप्त हो जाते हैं और अपनी समाप्ति के तुरन्त बाद उन फलों को नहीं देते, जिनके लिए इनका विधान किया गया है। उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि जब कोई स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा से यज्ञ करता है, तब यज्ञ की समाप्ति के साथ ही उसे स्वर्ग नहीं मिल जाता। अत: मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाले स्वर्ग का कारण वह नहीं हो सकता, क्योंकि कारण को कार्य की उत्पत्ति के तुरन्त पूर्व में रहना चाहिए। इस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए जैमिनि ने अपूर्व माना है। प्रत्येक कर्म अपनी समाप्ति के साथ साथ एक अपूर्व उत्पन्न करता है और यह अपूर्व[3] अपने फल देने तक रहता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अपूर्व कर्म तथा फल के बीच की अवस्था का नाम है। अपूर्व की यह मान्यता मीमांसा दर्शन की एक मौलिक विशेषता है। जैमिनि के उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस अपूर्व का विशद विवेचन किया है।

यह भी विवेचन किया गया है कि सभी कर्म केवल एक एक अपूर्व ही नहीं उत्पन्न करते, बल्कि कुछ ऐसे भी कर्म हैं, जो एक से अधिक अपूर्व उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए दर्शपूर्णमास यज्ञ को लिया जा सकता है, जो चार प्रकार के अपूर्व उत्पन्न करता है।

  1. फलापूर्व- वह है, जो साक्षात् फल को उत्पन्न करता है।
  2. समुदायपूर्व- उक्त यज्ञ के अंगभूत यज्ञों से अलग अलग अपूर्व उत्पन्न होते हैं, जिनमें सम्मिलित रूप को समुदायापूर्व कहा जाता है।
  3. उत्पत्त्यपूर्व- यह अपूर्व है, जो अंगभूत यज्ञों से अलग अलग प्रारम्भिक रूप में उत्पन्न होता है।
  4. अंगापूर्व- उक्त अंगभूत यज्ञों के भी अनेक छोटे छोटे कर्म होते हैं और ये प्रत्येक कर्म अपने अपने अपूर्व उत्पन्न करते हैं। इन्हें अंगापूर्व कहा जाता है, जिनके सम्मिलित होने से सम्पूर्ण यज्ञ अपना फल देने में समर्थ हो पाता है।

कर्म के प्रकार

यह कहा गया है कि वेद के द्वारा आदिष्ट कर्म ही कर्म है। इसलिए कर्म के स्वरूप निर्धारण तथा कर्म का वर्गीकरण जैमिनि के दर्शन का मुख्य विषय हैं।

सर्वप्रथम कर्म के दो भेद किए जाते हैं-

  1. लौकिक कर्म- जो कर्म लोक के आदेश से किए जाते हैं, वे लौकिक कर्म हैं।
  2. वैदिक कर्म- जो कर्म वेद के आदेश से किए जाते हैं, वे वैदिक कर्म हैं। इन्हीं वैदिक कर्मों को धार्मिक कर्म कहा जाता है।

वैदिक कर्मों का वर्गीकरण

इस वर्गीकरण में अनेक आधार अपनाए गए। अत: इस वर्गीकरण को परस्पर व्यावृत नहीं माना जा सकता। इसमें आधार भेद से वर्ग भेद की स्थापना की गई है।

  • आदेश के स्वरूप के आधार पर वैदिक कर्मों के तीन भेद किये गए हैं-
  1. विहित कर्म
  2. निषिद्ध कर्म
  3. उभयात्मक कर्म

इसमें विहित कर्म के तीन भेद होते हैं-

  1. नित्य
  2. नैमित्तिक
  3. काम्य
  • फल की उत्पादकता के आधार पर वैदिक कर्म के दो भेद किये गए हैं-
  1. प्रधान कर्म- जो कर्म स्वयं साक्षात् अपूर्व उत्पन्न करता है, या फल देने में समर्थ होता है, वह प्रधान कर्म कहलाता है।
  2. गुण कर्म- जो प्रधान कर्म की सहायता के लिए होता है या परम्परया अपूर्व अथवा फल की उत्पत्ति में सहायक होता है, वह गुण कर्म कहलाता है।
  • प्रयोजन के आधार पर वैदिक कर्मों के तीन भेद किये गए हैं-
  1. ऋत्वर्थ कर्म- जो कर्म किसी यज्ञ की पूर्णता के लिए करणीय होते हैं
  2. पुरुषार्थ कर्म- यजमान या कर्ता को अभिवांछित फल देने वाले कर्मों को कहा जाता है
  3. अनुभयात्मक कर्म- वे कर्म जो न तो यज्ञ में सहायक होते हैं और न कर्ता को अभिवांछित फल ही देते हैं।
  • प्रतिपादित स्वरूप के आधार पर वैदिक कर्मों के चार भेद किये गए हैं-
  1. प्रकृति कर्म- जिनका प्रतिपादन मूलरूप या प्रारम्भिक रूप में किया गया हो, जैसे- अग्निहोत्र।
  2. विकृति कर्म- जिनका प्रतिपादन किसी प्रकृति कर्म की अनुरूपता के आधार पर किया गया हो, जैसे- मासाग्निहोत्र।
  3. प्रकृति-विकृति कर्म- जो प्रकृति तथा विकृति दोनों के स्वरूप को आंशिक रूप से उपस्थित करता हो, जैसे अग्निसोमीय, जो दर्शपूर्णमास की विकृति तथा सवनीय की प्रकृति को प्रस्तुत करता है।
  4. अनुभयात्मक- जो दोनों में से किसी के स्वरूप को प्रस्तुत न करता हो, जैसे- दर्वी होम।

यजमान

यज्ञ करने वाला यजमान कहलाता है। जो अर्थवाद वचनों में निर्दिष्ट फल की आकांक्षा रखता हो, मानव हो तथा यज्ञ करने के लिए आवश्यक सामग्री का संग्रह करने में समर्थ हो एवं शारीरिक दृष्टि से उस कार्य के सम्पादन की क्षमता रखता हो, वह यजमान हो सकता है। इस प्रसंग में यह भी प्रश्न उठाया गया है कि स्त्री को यज्ञ करने का अधिकार है या नहीं। इसके समाधान में यह निर्णय दिया गया है कि स्त्री को स्वतंत्र रूप से यज्ञ करने का अधिकार नहीं है, किन्तु अपने पति के साथ उसे यज्ञ करने का अधिकार है। शूद्रों के यज्ञ करने के अधिकार के सम्बन्ध में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक रूप से दिया गया है, किन्तु इसमें भी कुछ अपवाद अवश्य हैं, क्योंकि रथकार एवं निषाद-स्थपति शूद्र हैं, फिर भी इन्हें यज्ञ करने का अधिकार दिया गया है।

स्वर्ग

यज्ञों के अन्तिम फल के रूप में स्वर्ग का विधान है और जहाँ यज्ञों के फल का निर्देश नहीं है, वहाँ यह मान लेने को कहा गया है कि उनका फल स्वर्ग है। अत: यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि स्वर्ग क्या है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन के पश्चात् यह निर्धारित किया गया है कि स्वर्ग एक गुण है, जो सुख या आनन्द के रूप में उपलब्ध होता है। जहाँ कहीं वस्तुओं या पदार्थों को स्वर्ग कहा गया है, उसका तात्पर्य केवल यही है कि वे पदार्थ आनन्द उत्पादक हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

गिरि, डॉ. रघुनाथ विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 217।

  1. गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण (हिन्दी) hi.krishnakosh.org। अभिगमन तिथि: 04 नवम्बर, 2017।
  2. अर्थात् किस-किस यज्ञ में किस किस प्रकार की विशेष क्रियाएं अपेक्षित हैं
  3. पुण्य या अपुण्य

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