थोड़ी सी जगह दें -विद्यानिवास मिश्र
थोड़ी सी जगह दें -विद्यानिवास मिश्र
| |
लेखक | विद्यानिवास मिश्र |
मूल शीर्षक | थोड़ी सी जगह दें |
प्रकाशक | सत्साहित्य प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 3 मार्च, 2004 |
ISBN | 81-7721-057-2 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 194 |
भाषा | हिंदी |
विधा | निबंध संग्रह |
विशेष | विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। |
थोड़ी सी जगह दें हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।
सारांश
यह सन् 2003 में प्रकाशित निबंध-रचनाओं का संकलन है। संकलन को परोसते समय कोई विशेष उत्साह नहीं है, क्योंकि एक तो आज के जीवन के सरोकारों में साहित्य ही घुसपैठिया है और उस घुसपैठिए में निबंध तो घुसपैठिया-दर- घुसपैठिया है। इस मामले में आलोचक कवि कथाकार तथा नाटककार सभी एक ही तरह भीतर-ही-भीतर कुनमुनाते हैं कि हम लोगों के बीच में निबंधकार कहाँ से आ गया ! चार सवारों के पीछे-पीछे यह पाँचवाँ कहाँ से आ गया ! जबकि पाँचवाँ सवार ही दम के साथ कहता है कि हम पाँचों सवार दिल्ली जा रहे हैं। मुझसे तुरंत कहा जाए कि बताओ, यह कौवाँ निबंध-संग्रह है, तो बता नहीं पाऊंगा। अपनी कृति को सहेजने वालों में नहीं हूँ, इसलिए नहीं कि कृतियों की संख्या अधिक है, इसलिए कि मैं अपनी कृतियों से आत्म-सम्मोहित नहीं हूँ। दूसरे भी हजार काम रहते हैं। कृति तो कृति बनने तक की चिंता है, उसके बाद कवि की चिंता मैं नहीं करता।
बहरहाल, अब तो दुस्साहस कर ही दिया है कि यह संकलन प्रकाशक को दे दूँ तो कुछ संकलन के बारे में भी कहना ही होगा। सफाई के रूप में नहीं, न जुर्म कबूलने के रूप में। बस, उन आलोचकों की सुविधा के लिए जो पुस्तक के बारे में कुछ लिखना चाहते हैं। उन्हें बतलाना चाहूँगा कि इसमें दो प्रकार के निबंध हैं। कुछ हैं जो कुछ पत्रिकाओं के संपादकों के आग्रह से विवश होकर लिखे हुए हैं, कुछ हैं जो ‘साहित्य अमृत’ के संपादक की विवशता है। पूरा संग्रह ही एक तरह से विवशता है। संग्रह ही क्यों, जीवन भी तो एक विवशता ही है। इतनी डोर हैं जो आदमी को बाँधे हुए हैं और उन्हीं के खिंचाव में आदमी खिंचता रहता है। कभी-कभी कई खिंचाव एक साथ आते हैं तो उलझन भी होती है; पर उसे लगता है कि उसकी अपनी कोई गति ही नहीं है और इन डोरों को तोड़ना भी चाहें तो टूटने वाले नहीं, कोई टूट भी जाए तो तुरंत कोई दूसरी डोर प्रबल हो जाएगी। इसलिए अपने को छोड़ देना चाहिए, जिधर खिंचे उधर खिंचते जाएँ। बस खिंचने का स्रोत मन में अंकित करते रहें। कहीं से छूटें, छूटते जाएँ और छूटने पर भी पिछले खिंचाव को भूल न सकें। आदमी की इस नियति की अनुभूति न होती तो साहित्य रचा ही नहीं जाता। कम-से-कम जिस विधा का रचनाकार मैं हूँ उस विधा का साहित्य तो नहीं ही रचा जाता। उन असंख्य डोरों के प्रति जिन्होंने मुझे खींचा, जिन्होंने मुझे छोड़ा, आभार व्यक्त करते हुए मैं नेपथ्य का परदा खींच रहा हूँ। प्रयोग आपके सामने है। -विद्यानिवास मिश्र
पुस्तक के कुछ अंश
काशी: मरने के लिए नहीं, न मरने के लिए
काशी के बारे में जन-विश्वास यही है कि यहाँ जो मरता है, मृत्यु के समय बाबा विश्वनाथ उसके कान में राम मंत्र देते हैं। वही मंत्र तारक होता है, काशी में मरने से मुक्ति हो जाती है। लोग संदेह करते हैं, फिर शुभ-अशुभ कार्यों का फल भोगे बिना कैसे मुक्ति होगी ? मेरे ननिहाल में एक पंडित थे-पार्थिव राम त्रिपाठी। मैंने उनकी चर्चाएँ कथा-पुरुष के रूप में ही सुनी हैं। मेरे ननिहाल सहगौरा में वे आख्यान बन गए थे। बड़े प्रतिभाशाली, निष्ठावान्, सरस और विनोदी पंडित थे। मृत्यु का समय आया तो पालकी मँगाई गई काशी के लिए। किंतु पंडितजी ने कहा कि वहाँ मुक्ति अवश्य मिलेगी, पर वहाँ पहले भैरवी चक्र में व्यक्ति को डाल दिया जाता है। मुझे काशी नहीं जाना। आगे उन्होंने कहा कि मैंने कोई अशुभ कर्म किया नहीं, मैं क्यों भैरवी चक्र में पेराने के लिए काशी जाऊँ। मुझे प्रयाग ले चलो। कालिदास ने भी लिखा है कि गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर देह छोड़ने पर देह का कोई बंधन नहीं रहता-[1]
गंगा यमुनयोर्जल सन्निपाते तनु त्यजाम्नम्स्ति शरीर बंन्ध:।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छितवन की छाँह (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख