दक्खिनी हिन्दी
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
दक्खिनी के अन्य नाम 'हिन्दी', 'हिन्दवी', 'दकनी', 'दखनी', 'देहलवी', 'गूजरी' (शाह बुरहानुद्दीन- यह सब गुजरी किया जबान), 'हिन्दुस्तानी', 'ज़बाने हिन्दुस्तानी', 'दक्खिनी हिन्दी', 'दक्खिनी उर्दू', 'मुसलमानी', *'दक्खिनी हिन्दी मूलत: हिन्दी का ही एक रूप है।
- इसका मूल आधार, दिल्ली के आसपास प्रचलित 14वीं - 15वीं सदी की 'खड़ी बोली' है।
- मुसलमानों ने भारत में आने पर इस बोली को अपनाया था।
- मसऊद, इब्नसाद, खुसरो तथा फरीदुद्दीन शकरगंजी आदि ने अपनी हिन्दी कविताएँ इसी में लिखी थीं।
- 15वीं - 16वीं सदी में फ़ौज, फ़कीरों तथा दरवेशों के साथ यह भाषा दक्षिण भारत में पहुँची और वहाँ प्रमुखत: मुसलमानों में, तथा कुछ हिन्दुओं में जो उत्तर भारत के थे, प्रचलित हो गई। इसके क्षेत्र प्रमुखत: दक्षिण भारत के बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमदनगर आदि, बरार, मुम्बई तथा मध्य प्रदेश आदि हैं।
- ग्रियर्सन इसे हिन्दुस्तानी का बिगड़ा रूप न मानकर उत्तर भारत की 'साहित्यिक हिन्दुस्तानी' को ही इसका बिगड़ा रूप मानते हैं।
- डॉ. चटर्जी इसे हिन्दुस्तानी नहीं, तो उसकी सहोदरा भाषा अवश्य मानते हैं।
- डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से, दक्खिनी मूलत: 'प्राचीन खड़ीबोली' है, जिसमें पंजाबी, हरियानी, ब्रज, मेवाती तथा अवधी के कुछ रूप भी हैं।
- दक्षिण में जाने के बाद इस पर कुछ गुजराती - मराठी का भी प्रभाव पड़ा है।
- उत्तरी भारत की पंजाबी, हरियानी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं के रूपों के मिलने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि इन प्रकार की मिश्रित थी ही। सभी बोलियों का स्पष्ट अलग- अलग विकास नहीं हुआ था।
- कबीर ने भी इसी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है।
- ग्रियर्सन के भाषा- सर्वेक्षण के अनुसार, दक्खिनी बोलने वालों की संख्या लगभग साढ़े छत्तीस लाख थी। आज भी उस क्षेत्र में, दक्खिनी उर्दू नाम से बोली जाती है, यद्यपि यह भाषा कई दृष्टियों से बदल गई है।
- परिवर्तन की दृष्टि से तीन बातें उल्लेखनीय हैं-
- उर्दू भाषा का उस पर पर्याप्त प्रभाव पड़ गया है।
- कुछ पुराने रूप विकसित होकर कुछ- के- कुछ हो गए हैं।
- शब्द- समूह के क्षेत्रानुसार तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि भाषाओं का प्रभाव पड़ा है।
- 15वीं से 18वीं सदी तक दक्खिनी को बहमनी वंश के तथा अन्य राजाओं का आश्रय प्राप्त रहा और इसमें पर्याप्त साहित्य- रचना हुई। इसमें गद्य- साहित्य भी पर्याप्त प्राचीन मिलता है। खड़ी बोली गद्य का प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ दक्खिनी में ही मिलता है। इस गद्य- ग्रंथ का नाम 'मिराजुल आशिकीन' है, जिसके लेखक ख्वाजा बन्दानवाज़ (1318- 1430) हैं। दक्खिनी के साहित्यकारों में अब्दुल्ला, वजही, निजामी, गवासी, ग़ुलामअली तथा बेलूरी आदि प्रमुख हैं।
- उर्दू साहित्य का आरम्भ भी वस्तुत: दक्खिनी से ही हुआ है। उर्दू के प्रथम कवि वली (रचना- काल 1700ई. के लगभग)ही दक्खिनी के अंतिम कवि वली औरंगाबादी हैं। इस प्रकार दक्खिनी को एक प्रकार से उर्दू की जननी कह सकते हैं, यद्यपि भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से दोनों में आकाश- पाताल का अंतर है।
- दक्खिनी केवल लिपि ही फारसी (या प्रचिलित शब्दावली में उर्दू) है, अन्यथा इसकी भाषा में सामान्य हिन्दी की भाँति ही, भारतीय परम्परा के शब्द पर्याप्त हैं। अरबी- फारसी शब्द उर्दू की तुलना में बहुत ही कम हैं। इसका क्षेत्र दक्षिण में हो ने के कारण ही इसका नाम दक्खिनी है। आज हिन्दीवाले, इसे 'हिन्दी' या 'दक्खिनी हिन्दी' कहकर, इसे अपनी भाषा और इसके साहित्य को अपने साहित्य का अंग मान रहे हैं।
- वस्तुत: न केवल दक्खिनी भाषा, अपितु उसका साहित्य भी हिन्दी से निकट है। अपवादों को छोड़कर, उर्दू के विरुद्ध, दक्खिनी भाषा और साहित्य की आत्मा पूर्णतया भारतीय है।
- कुछ शब्द उदाहरण के लिए देखे जा सकते हैं: प्रकार, संचित, इन्द्रिय, अलिप्त, स्थूल, कल्पित (बुरहानुद्दीन में); गगन, कला, पवन, नीर, अधर, यौवन (कुली कुतुबशाह में); गम्भीर, अनुप, भाल, जीव (वजही में)। यों उर्दू भी हिन्दी की एक शैली ही है, बहुत सशक्त एवं सजीव शैली। ऐसी स्थिति में 'दक्खिनी हिन्दी' हिन्दी ही है। किसी भी दक्खिनी गद्य- लेखक या कवि ने उसके लिए 'उर्दू' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। ऐसी स्थिति में किसी भी रूप में, उर्दू नाम का प्रयोग, उसके लिए बहुत उचित नहीं कहा जा सकता।
- दक्खिनी के लिए प्राचीन नाम हिन्दी (यों मैं हिन्दवी कर आसान- शेख अशरफ़ (1503 नौसरहार)में) मिलते हैं, जिसका आशय यह कि उत्तर भारत से, भाषा के साथ भी गए थे। बाद में सम्भवत: सत्रहवीं सदी के अंतिम चरण में 'दक्खिनी' नाम प्रचिलित हुआ। इसका प्रथम प्रामाणिक प्रयोग कदाचित् 'वजही' में है। वे अपनी 'कुतुबमुश्तरी' (1938 ई.) में लिखते हैं- दखिन में जो दखिनी मीठी बात का। कुछ उर्दू लेखकों ने लिखा है कि दक्खिनी को बाद में 'रेख़्ता' भी कहने लगे थे।
- वस्तुत: बात ऐसा नहीं है। दक्खिनी के अंतिम काल के कवियों (जैसे वली आदि) ने 'रेख्ता' का काव्य की एक विशेष शैली के लिए ही प्रयोग किया है। यह दक्खिनी का नाम नहीं है। इसका मूल आधार 14-15वीं सदी की (फ़ौज, फ़कीर दरवेश) दिल्ली - आगरा की खड़ी बोली है।
- मुसलमानों के साथ यह आगे चलकर कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात में फैल गई। स्वभावत: इस पर इन सभी मध्यकाल में काफ़ी रचनाएँ हुईं जो दक्खिनी साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हैं।
- अब इन क्षेत्रों में जो साहित्य- रचना होती है वह दक्खिनी में न होकर प्राय: मानक हिन्दी या उर्दू में होती है।
- इसकी वर्तमान उपबोलियों में मुख्य मैसूरे, गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी, हैदराबादी आदि हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी
संबंधित लेख