धर्मवीर भारती
धर्मवीर भारती
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पूरा नाम | धर्मवीर भारती |
जन्म | 25 दिसंबर 1926 |
जन्म भूमि | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 4 सितंबर, 1997 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
अभिभावक | चिरंजीवलाल वर्मा, चंदादेवी |
पति/पत्नी | कांता कोहली, पुष्पलता शर्मा (पुष्पा भारती) |
संतान | परमीता, प्रज्ञा भारती (पुत्री), किन्शुक भारती (पुत्र) |
कर्म भूमि | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
कर्म-क्षेत्र | लेखक, कवि, नाटककार |
मुख्य रचनाएँ | 'गुनाहों का देवता', 'सूरज का सातवाँ घोड़ा', 'अंधायुग' आदि |
विषय | गद्य, पद्य, नाटक तथा उपन्यास |
भाषा | हिन्दी |
विद्यालय | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
शिक्षा | एम. ए. (हिन्दी), पी.एच.डी. |
पुरस्कार-उपाधि | पद्मश्री, हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार, व्यास सम्मान (1994), साहित्य अकादमी रत्न सदस्यता और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार |
विशेष योगदान | धर्मवीर भारती साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' के प्रधान संपादक रहे। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | उनका उपन्यास 'गुनाहों का देवता' हिन्दी साहित्य के इतिहास में सदाबहार माना जाता है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
डॉ. धर्मवीर भारती (अंग्रेज़ी: Dharamvir Bharati, जन्म- 25 दिसंबर, 1926 - 4 सितंबर, 1997) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' के प्रधान संपादक भी रहे। डॉ. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास 'गुनाहों का देवता' हिन्दी साहित्य के इतिहास में सदाबहार माना जाता है।
जन्म
धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के 'अतरसुइया' नामक मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री. चिरंजीवलाल वर्मा और माता का नाम श्रीमती चंदादेवी था। भारती के पूर्वज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर ज़िले के 'ख़ुदागंज' नामक क़स्बे के ज़मीदार थे। पेड़, पौधों, फूलों और जानवरों तथा पक्षियों से प्रेम बचपन से लेकर जीवन पर्यन्त रहा। संस्कार देते हुए बड़े लाड़ प्यार से माता पिता अपने दोनों बच्चों धर्मवीर और उनकी छोटी बहन वीरबाला का पालन कर रहे थे कि अचानक उनकी माँ सख्त बीमार पड़ गयीं दो साल तक बीमारी चलती रही। बहुत खर्च हुआ और पिता पर कर्ज़ चढ़ गया। माँ की बीमारी और कर्ज़ से वे मन से टूट से गये और स्वयं भी बीमार पड़ गये। 1939 में उनकी मृत्यु हो गई ।[1]
शिक्षा
इन्हीं दिनों पाढ्य पुस्तकों के अलावा कविता पुस्तकें तथा अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ने का बेहद शौक़ जागा। स्कूल ख़त्म होते ही घर में बस्ता पटक कर वाचनालय में भाग जाते वहाँ देर शाम तक किताबें पढ़ते रहते। इंटरमीडियेट में पढ़ रहे थे कि गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ दी ओर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। सुभाष के प्रशंसक थे, बचपन से ही शस्त्रों के प्रति आकर्षण भी जाग उठा था सो हर समय हथियार साथ में लेकर चलने लगे और 'सशस्त्र क्रांतिकारी दल' में शामिल होने के सपने मन में सँजोने लगे, पर अंतत: मामा जी के समझाने बुझाने के बाद एक वर्ष का नुक़सान करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाख़िला लिया। कोर्स की पढ़ाई के साथ साथ उन्हीं दिनों शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, टॅनीसन, एमिली डिकिन्सन तथा अनेक फ़्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़े, एमिल ज़ोला, शरदचंद्र, गोर्की, क्युप्रिन, बालज़ाक, चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर हयूगो, दॉस्तोयव्स्की और तॉल्सतोय के उपन्यास ख़ूब डूब कर पढ़े।[1]
लेखन और पत्रकारिता
स्नातक, स्नातकोत्तर की पढ़ाई ट्युशनों के सहारे चल रही थी। उन्हीं दिनों कुछ समय श्री पद्मकांत मालवीय के साथ 'अभ्युदय' में काम किया, इलाचन्द्र जोशी के साथ 'संगम' में काम किया। इन्हीं दोनों से उन्होंने 'पत्रकारिता' के गुर सीखे थे। कुछ समय तक 'हिंदुस्तानी एकेडेमी' में भी काम किया। उन्हीं दिनों ख़ूबकहानियाँ भी लिखीं। 'मुर्दों का गाँव' और 'स्वर्ग और पृथ्वी' नामक दो कहानी संग्रह छपे। छात्र जीवन में भारती पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव था। उन्हीं दिनों वे माखन लाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आये और उन्हे पिता तुल्य मानने लगे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने भारती को बहुत प्रोत्साहित किया।[1]
उच्च शिक्षा और प्रगतिशील लेखक संघ
स्नातक में हिन्दी में सर्वाधिक अंक मिलने पर प्रख्यात 'चिंतामणि गोल्ड मैडल' मिला। स्नातकोत्तर अंग्रेज़ी में करना चाहते थे पर इस मैडल के कारण डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के कहने पर उन्होंने हिन्दी में नाम लिखा लिया। स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते समय 'मार्क्सवाद' का उन्होंने धुंआधार अध्ययन किया। 'प्रगतिशील लेखक संघ' के स्थानीय मंत्री भी रहे लेकिन कुछ ही समय बाद साम्यवादियों की कट्टरता तथा देशद्रोही नीतियों से उनका मोहभंग हुआ। तभी उन्होंने छहों भारतीय दर्शन, वेदांत तथा बड़े विस्तार से वैष्णव और संत साहित्य पढ़ा और भारतीय चिंतन की मानववादी परम्परा उनके चिंतन का मूल आधार बन गयी।[1]
शोध कार्य
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में 'सिद्ध साहित्य' पर शोध कार्य चल रहा था। साथ ही साथ उस समय कई कवितायें लिखी गई जो बाद में 'ढंडा लोहा' नामक पुस्तक के रूप में छपी। और उन्हीं दिनों 'गुनाहों का देवता' उपन्यास लिखा। साम्यवाद से मोहभंग के बाद 'प्रगतिवाद: एक समीक्षा' नामक पुस्तक लिखी। कुछ अंतराल बाद ही 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' जैसा अनोखा उपन्यास भी लिखा।[1]
इलाहबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक
शोधकार्य पूरा करने के बाद वहीं विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति हो गई। देखते ही देखते बहुत लोकप्रिय अध्यापक के रुप में उनकी प्रशंसा होने लगी। उसी दौरान 'नदी प्यासी थी' नामक 'एकांकी नाटक संग्रह' और 'चाँद और टूटे हुए लोग' नाम से कहानी संग्रह छपे। 'ठेले पर हिमालय' नाम से ललित रचनाओं का संग्रह छपा और शोध प्रबंध 'सिध्द साहित्य' भी छप गया। मौलिक लेखन की गति बड़ी तेज़ी से बढ़ रही थी। साथ ही अध्ययन भी पूरी मेहनत से किया जाता रहा। उस दौरान 'अस्तित्ववाद' तथा पश्चिम के अन्य नये दर्शनों का विशद अध्ययन किया। रिल्के की कविताओं, कामू के लेख और नाटकों, ज्याँ पॉल सार्त्र की रचनाओं और कार्ल मार्क्स की दार्शनिक रचनाओं में मन बहुत डूबा। साथ ही साथ महाभारत, गीता, विनोबा और लोहिया के साहित्य का भी गहराई से अध्ययन किया। गांधीजी को नयी दृष्टि से समझने की कोशिश की। भारतीय संत और सूफ़ी काव्य और विशेष रूप से कबीर, जायसी और सूर को परिपक्व मन और पैनी हो चुकी समझ के साथ पुन: और समझा।[1]
मुम्बई और संपादन
इसी बीच 1954 में श्रीमती कौशल्या अश्क द्वारा सुझाई गई एक पंजाबी शरणार्थी लड़की 'कांता कोहली' से विवाह हो गया। संस्कारों के तीव्र वैषम्य के कारण वह विवाह असफल रहा। बाद में सम्बंध विच्छेद हो गया। लेखन का काम अबाध चल रहा था। 'सात गीत वर्ष', 'अंधायुग', 'कनुप्रिया ' और 'देशांतर' प्रकाशित हो चुके थे। कुछ ही समय बाद बम्बई से एक प्रस्ताव 'धर्मयुग' के संपादन का आया। 'निकष' को आगे न चला पाने की कसक मन में थी ही, संपादन की ललक ने प्रस्ताव पर विचार किया और विश्वविद्यालय से एक वर्ष की छुट्टी लेकर 1960 मे बम्बई चले आये।[1]
पुनर्विवाह
धर्मयुग के संपादन में नये क्षितिज नज़र आने लगे, साहित्यिक लेखन से इतर अपने देश के लिये बहुत कुछ बड़े काम किये जा सकते हैं यह समझ में आने लगा तो विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र देकर पूरे समर्पण के साथ धर्मयुग के संपादन में ध्यान केंद्रित किया। इस दौरान एक अत्यंत शिक्षित और संभ्रांत परिवार में जन्मी इलाहाबाद विश्वविद्यालय की शोध छात्रा जो कलकत्ता के 'शिक्षायतन कॉलेज' में हिन्दी की प्राध्यापक बन चुकी थी, उससे विवाह किया। यही 'पुष्पलता शर्मा' बाद में पुष्पा भारती नाम से प्रख्यात हुईं।[1]
धर्मयुग पत्रिका
धर्मवीर भारती के द्वारा संपादित 'धर्मयुग' पत्रकारिता की कसौटी बन चुका है। आज के पत्रकारिता के विद्यार्थी उनकी शैली को 'धर्मवीर भारती स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म' के नाम से जानते हैं। सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, खेलकूद, साहित्यिक सभी पक्षों को समेटते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर हर अंक में सामग्री दी जाती थी। बच्चों और महिलाओं के लिये भी रोचक और ज्ञानप्रद सामग्री 'धर्मयुग' की अतिरिक्त विशेषता थी। उच्चतम स्तर का निर्वाह करते हुए असाधारण लोकप्रियता के साथ लाखों की संख्या में सर्वाधिक बिक्री के आँकड़े किसी चमत्कार से कम नहीं थे।[1]
धर्मवीर भारती द्वारा की गयी यात्राएँ
- 1961 में 'कॉमनवेल्थ रिलेशन्स कमेटी' के आमंत्रण पर प्रथम विदेश यात्रा - इंग्लैंड तथा यूरोप के कई देशों की की।
- 1962 में 'पश्चिम जर्मन सरकार' के आमंत्रण पर जर्मनी गये।
- 1966 में 'भारतीय दूतावास' के निमंत्रण पर इंडोनेशिया तथा थाइलैंड गये।
- 1971 मुक्तिवाहिनी के साथ बाँग्लादेश की गुप्त यात्रा करने के बाद क्रांति का आँखों देखा वर्णन लिखा।
- 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान भारतीय सेना के साथ स्वयं युद्ध क्षेत्र में जा कर वास्तविक युद्ध होते देखा और विस्तृत रिपोर्ताज लिखा।
- 1974 मॉरिशस यात्रा के दौरान भारतीय मूल की जनता से सीधा सम्पर्क करके 'धर्मयुग' का जो अंक निकाला, उससे दोनों देशों के बीच मज़बूत सांस्कृतिक पुल बना।
- 1976 पुन: मॉरिशस यात्रा की।
- 1978 'चीन सरकार' के आमंत्रण पर चीन और सिंगापुर की यात्रा की।
- 1990 अमरीका की निजी यात्रा की।
रचनाएँ
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अवकाश ग्रहण
धर्मयुग को पत्रकारिता का आकाश छूती ऊँचाइयों तक पहुंचा कर सत्ताईस वर्षों तक लगातार पूरी एकाग्रता के साथ काम करने के उपरांत 1987 में अवकाश ग्रहण कर लिया।
- बीमारी
1989 में हृदय रोग से गंभीर रूप से बीमार हो गये। बम्बई अस्पताल के डॉ. बोर्जेस के अथक प्रयासों और गहन चिकित्सा के बाद बच तो गये किंतु स्वास्थ्य फिर कभी पूरी तरह सुधरा नहीं। कई प्रकार के तनावों को झेलते हुए सत्ताईस बरस की रात और दिन की बेइंतिहा दिमाग़ी मेहनत से शरीर काफ़ी अशक्त हो चुका था। वे केवल अद्भुत इच्छा शक्ति के साथ काम करते रहे थे।
निधन
अंतत: 4 सितंबर 1997 को नींद में ही मृत्यु को वरण कर लिया।
सम्मान एवं पुरस्कार
1967 | संगीत नाटक अकादमी सदस्यता - दिल्ली |
1984 | हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार - राजस्थान |
1985 | साहित्य अकादमी रत्न सदस्यता - दिल्ली |
1986 | संस्था सम्मान - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |
1988 | सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार - संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली |
1988 | सर्वश्रेष्ठ लेखक सम्मान - महाराणा मेवाड़ फ़ाउंडेशन - राजस्थान |
1989 | गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार - केंद्रीय हिन्दी संस्थान - आगरा |
1989 | राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान - बिहार सरकार |
1990 | भारत भारती सम्मान - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |
1990 | महाराष्ट्र गौरव - महाराष्ट्र सरकार |
1991 | साधना सम्मान - केडिया हिन्दी साहित्य न्यास - मध्यप्रदेश |
1992 | महाराष्ट्राच्या सुपुत्रांचे अभिनंदन - वसंतराव नाईक प्रतिष्ठान- महाराष्ट्र |
1994 | व्यास सम्मान - के. के. बिड़ला फ़ाउंडेशन - दिल्ली |
1996 | शासन सम्मान - उत्तर प्रदेश सरकार - लखनऊ |
1997 | उत्तर प्रदेश गौरव - अभियान संस्थान - बम्बई |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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