नवलसिंह
नवलसिंह जाति से कायस्थ थे और ये झाँसी के रहने वाले थे और 'समथर' नरेश 'राजा हिंदूपति' की सेवा में रहते थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है जो भिन्न भिन्न विषयों पर और भिन्न भिन्न शैली के हैं। नवलसिंह अच्छे चित्रकार भी थे। नवलसिंह का झुकाव भक्ति और ज्ञान की ओर विशेष था। इनके लिखे ग्रंथों के नाम ये हैं ,
- रासपंचाध्यायी,
- रामचंद्रविलास,
- शंकामोचन (संवत् 1873),
- जौहरिनतरंग (1875),
- रसिकरंजनी (1877),
- विज्ञान भास्कर (1878),
- ब्रजदीपिका (1883),
- शुकरंभासंवाद (1888),
- नामचिंतामणि (1903),
- मूलभारत (1911),
- भारतसावित्री (1912),
- भारत कवितावली (1913),
- भाषा सप्तशती (1917),
- कवि जीवन (1918),
- आल्हा रामायण (1922),
- रुक्मिणीमंगल (1925),
- मूल ढोला (1925),
- रहस लावनी (1926),
- अध्यात्मरामायण,
- रूपक रामायण,
- नारी प्रकरण,
- सीतास्वयंबर,
- रामविवाहखंड,
- भारत वार्तिक,
- रामायण सुमिरनी,
- पूर्व श्रृंगारखंड,
- मिथिलाखंड,
- दानलोभसंवाद,
- जन्म खंड।
- अप्रकाशित
उक्त पुस्तकों में यद्यपि अधिकांश बहुत छोटी हैं फिर भी इनकी रचना बहुरूपता का आभास देती है। इनकी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई हैं। अत: इनकी रचना के संबंध में विस्तृत और निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। खोज की रिपोर्टों में उद्धृत उदाहरणों के देखने से रचना इनकी पुष्ट और अभ्यस्त प्रतीत होती है। ब्रजभाषा में कुछ वार्तिक या गद्य भी इन्होंने लिखा है। -
अभव अनादि अनंत अपारा । अमन, अप्रान, अमर, अविकारा॥
अग अनीह आतम अबिनासी । अगम अगोचर अबिरल वासी॥
अकथनीय अद्वैत अरामा । अमल असेष अकर्म अकामा॥
सगुन सरूप सदा सुषमा निधान मंजु,
बुद्धि गुन गुनन अगाधा बनपति से।
भनै नवलेस फैल्यो बिशद मही में यस,
बरनि न पावै पार झार फनपति से।
जक्त निज भक्तन के कलषु प्रभंजै रंजै,
सुमति बढ़ावै धान धान धानपति से।
अवर न दूजो देव सहस प्रसिद्ध यह,
सिद्धि बरदैन सिद्ध ईस गनपति से।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 265-266।
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