न्यायसूत्र में ईश्वर का अस्तित्व

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न्यायसूत्रकार के समक्ष ईश्वर विवेच्य विषय नहीं था, अपितु उपास्य के रूप में वह प्रसिद्ध था। ईश्वर के अस्तित्व में किसी को सन्देह नहीं था अत सूत्रकार ने इस पर अपना मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया है। अन्यथा ऋषि की दृष्टि से इसका ओझल होना असंभव है। प्रावादुकों के मत के प्रसंग में जो ईश्वर के विषय में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं, वे तो निराकरणीय मतों के मध्य विद्यमान है। अत: उनका महत्त्व अधिक नहीं माना जा सकता है। उसका आशय तो कुछ भिन्न ही प्रतीत होता है। वार्त्तिक एवं तात्पर्य टीका में यहाँ मतभेद है। एक केवल ईश्वर कारणतावाद को पूर्वपक्ष के रूप में लेता है तो ईश्वर में अभिन्न निमित्त उपादान कारणतावाद को पूर्वपक्ष रूप में स्वीकार करता है। यह मतभेद प्रमाणित करता है कि सम्प्रदाय में ईश्वरवाद प्रचलित नहीं था। किन्तु पूर्वपक्षी के रूप में बौद्ध, मीमांसक एवं अन्य दार्शनिकों के खड़ा होने पर आचार्य उदयन ने उनके मुखविधान हेतु एक विशाल प्रकरण ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, व्याख्यामुखेन इसका उपपादन तो किया ही। वही प्रकरण ग्रन्थ है न्यायकुसुमांजलि, जिसकी व्याख्या एवं उपव्याख्याएँ इस वर्तमान शताब्दी में भी लिखी जा रही हैं। सबसे पहले ईश्वर के विषय में भाष्यकार के समक्ष बौद्ध आदि की ओर से समस्या आयी होगी। अत: इन्होंने इसका समाधान किया है।

ईश्वर की सिद्धि

तात्पर्याचार्य वाचस्पति मिश्र ने वेद के कर्तारूप में भी ईश्वर की सिद्धि की है। इनका कहना है कि वेद पुरुष विशेष अर्थात् ईश्वर का प्रणीत है। इस संसार का निर्माता परमेश्वर परम करुणामय तथा सर्वज्ञ है। इष्टलाभ तथा अनिष्टनिवृत्ति के उपायों के विषय में अज्ञ तथा विविध दु:ख रूप दहन में नियत रूप से जलते हुए जीवों की दु:ख से विरति के लिए ईश्वर अवश्य उपाय करता है। क्योंकि वह जीवों का पिता है। जीवों के स्रष्टा तथा कृत कर्मों के अनुसार फलभोग कराने वाला रंगेश्वर के लिए यह असंभव था कि वह इन जीवों के कल्याण हेतु हित प्राप्ति तथा अहितनिवृत्ति का उपदेश नहीं देता है। वेद उस ईश्वर के विधि-निषेधात्मक उपदेश वाक्यों का समूह ही है। वर्ण और आश्रम के धर्म तथा इसके आधार आदि की व्यवस्था करने वाला ईश्वरप्रणीत वेद प्रमाण है, आप्त वाक्य होने से जैसे मन्त्र एवं आयुर्वेद प्रमाण हे। अर्थात्

ईश्वर साधक का उल्लेख तथा व्याख्या

चिकित्सा शास्त्र में निर्दिष्ट औषधि के सेवन से रोग मुक्ति तथा मन्त्र की साधना से इष्ट सिद्धि देखी जाती है, इसी तरह वेदोपदिष्ट आचरण से भी शुभ फल पाकर व्यक्ति उसे प्रमाण मानता है। यही कारण है कि चिरकाल से ऋषि, मुनि आदि महाजनों के द्वारा वह परिगृहीत है। चूँकि ईश्वर सर्वज्ञ है, अत: उसके वचन समूह रूप वेद में भ्रम तथा प्रमाद आदि की गुंजाइश नहीं है। आचार्य उदयन के समक्ष दो प्रमुख पूर्व पक्षियों की ओर से आक्रमण हुआ था अत: इन्होंने पूर्ववर्ती अपने आचार्यों की मान्यताओं का पल्लवन करके आठ हेतुओं से ईश्वर को सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है। 'न्यायकुसुमांजलि' के पंचम स्तवक में कार्य, आयोजन, धृत, पद, प्रत्यय, श्रुति, वाक्य और संख्याविशेष रूप आठ ईश्वर साधक हेतुओं का उल्लेख हुआ है-

कार्यायोजनधृत्यादे: पदात् प्रत्ययत: श्रुते:।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्यय:॥ 5/1॥

और इनकी दो प्रकारों से व्याख्या हुई है। पहली व्याख्या से बौद्धों के द्वारा किये गये आक्षेपों का परिहार हुआ है और दूसरी व्याख्या मीमांसकों के आक्षेपों का समाधान करता है। आचार्य उदयन के इन आठों ईश्वर साधक हेतु उद्योतकराचार्य तथा वाचस्पति के द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त तीन हेतुओं का ही पल्लवन है। अत: संसार का कर्तृत्व, अदृष्ट का अधिष्ठातृत्व और वेद का निर्मातृत्व हेतुओं से ईश्वर अवश्य सिद्ध होता है।

संसार के निर्माण में तत्परता

न्यायभाष्यकार ने बुद्धि आदि आत्म-विशेष गुणों से युक्त आत्म-विशेष को ईश्वर कहा है[1] वह अधर्म, मिथ्या ज्ञान तथा प्रमाद आदि जीव सुलभ गुणों से रहित है, अत: जीव से भिन्न है। साथ ही ज्ञान (सम्यज्ञान, विवेकज्ञान तथा नित्यज्ञान) (धर्मरूप प्रवृत्ति, क्लेशरहित प्रवृत्ति) तथा समाधिरूप सम्पत्ति से युक्त है वह, जो अन्य आत्मा में सर्वथा असम्भव है। धर्म तथा समाधि के फलस्वरूप अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्य ईश्वर में सदा विद्यमान रहते हैं।[2] अत: संसारी तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीव से भिन्न ईश्वर अपने प्रकार का एक स्वयं वही है। यह ईश्वर किसी भी प्रकार के कर्म का अनुष्ठान किये बिना केवल संकल्प से सब कुछ करता रहता है। ईश्वर का संकल्पजन्य यह धर्म प्रत्येक जीव में समवेत धर्माधर्म रूप अदृष्ट को और पृथिवी आदि महाभूतों को सृष्टि के लिए प्रवृत्त करता है। यद्यपि कर्म के अभाव में धर्म का अस्तित्व ईश्वर में संभव नहीं है तथापि संकल्पात्मक आन्तरिक कर्म करते रहने के कारण नित्य धर्म का आश्रय वह माना गया है। ईश्वर का स्वभाव भी संकल्पात्मक है तथा उनके स्वकृत कर्म (संकल्प) का फल संसार के निर्माण में तत्परता है। संकल्प मात्र से वह संसार की रचना करता है।

उपसंहार

ईश्वर हम लोगों का आप्त भी है। अत: उसके वचन समूह वेद विश्वसनीय हैं। जैसे पिता पुत्र के लिए आप्त होता है, इसी तरह ईश्वर भी सभी प्राणियों के लिए आप्त है।[3] भाष्यकार ने यहाँ जीव तथा ईश्वर के सम्बन्ध के बीच केवल आप्तता के विषय में ही पिता-पुत्र का दृष्टान्त माना है। यह नहीं समझना चाहिये कि जैसे पुत्र का उत्पादक पिता होता है या पिता का अंश पुत्र होता है, इस तरह जीव का उत्पादक ईश्वर है या ईश्वर का अंश है जीव। भाष्यकार ने अपने वक्तव्य के उपसंहार में कहा है कि बुद्धि आदि गुणों के आश्रय होने से आत्मा ही ईश्वर है। यदि ईश्वर आत्मलिंग बुद्धि आदि से रहित होता तो वह हनिरुपाख्य हो जाता है। उसका विध्यात्मक वर्णन संभव नहीं होता है। फलत: बुद्धि आदि आत्म विशेष गुणों से युक्त आत्म विशेष रूप सगुण ईश्वर सिद्ध होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न चात्मकल्पादन्य: कल्प: सम्भवति। न तावदस्य बुद्धिं विना कश्चिद् धर्मों लिङ्भूत: शक्य उपपादयितुम्। न्यायभाष्य 4/1/19
  2. अधर्ममिथ्या ज्ञानप्रमादहान्या धर्मज्ञानसमाधिसम्पदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वर:। तस्य च समाधिफलमष्टविधमैश्वर्यम्।
  3. आप्तकल्पश्चार्य यथा पिता अपत्यानां तथा पितृभूत ईश्वरो भूतानाम्। न्यायभाष्य 4/1/19

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