न्याय दर्शन का इतिहास

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न्याय दर्शन संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है- "व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला"। न्याय दर्शन का इतिहास अक्षपाद गौतम के न्याय शास्त्र से ज्ञात होता है। न्याय दर्शन को तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। न्यायसूत्र की संरचना का अनुमान कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि कि विद्वानों ने ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी से लेकर ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी के बीच अपनी मान्यतायें प्रस्तुत की हैं, परन्तु सबके अपने-अपने पक्ष तर्कयुक्त हैं। उससे किसी निश्चित निर्णय पर पहुँचना आसान नहीं है। उमेश मिश्र द्वारा रचित 'भारतीय दर्शन' में कहा गया है कि तर्कशास्त्र बौद्धों के पहले भी था और वह बड़ा व्यापक था। इसके भिन्न-भिन्न प्राचीन नाम हैं। यथा - आन्तीक्षकी, हेतुशास्त्र, हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, तर्कविद्या, वादविद्या, प्रमाणशास्त्र, वाकोवाक्य, तक्की, विमंसि आदि।

न्याय दर्शन का स्थान

भारतीय दर्शन के इतिहास में ग्रन्थ सम्पत्ति की दृष्टि से वेदान्त दर्शन को छोड़कर न्याय दर्शन का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। विक्रम पूर्व पञ्चमशतक से लेकर आज तक न्याय दर्शन की विमल धारा अबाध गति से प्रवाहित है। न्याय दर्शन के विकास की दो धारायें दृष्टिगोचर होती हैं।

  • प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है, जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से 'पदार्थमीमांसात्मक' प्रणाली कहते हैं। इस प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' कहा जाता है। प्राचीन न्याय में मुख्य विषय 'पदार्थमीमांसा' है।
  • दूसरी प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं, जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया। इस द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं और इस 'नव्यन्याय' में 'प्रमाणमीमांसा' वर्णित है।

उपक्रम

कोऽयं ललाटतटनेत्रपुटस्य गर्वात्
खर्वी करोति जगदित्यभिधाय शम्भो।
य: साभ्यसूयमकरोच्चरणेऽक्षिलक्ष्मीं
जीयात् स गौतममुनिर्मुनिवृन्दवन्द्य:॥[1]

वेद में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के लिए आत्मदर्शन या तत्त्वसाक्षात्कार आवश्यक तत्त्व के रूप में निर्दिष्ट है। बृहदारण्यक उपनिषद का कहना है कि पहले आत्मा आदि पदार्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण उपासना, पुन: हेतु द्वारा मनन अर्थात् विवेचन रूप उपासना और पश्चात् निदिध्यासन - एक चित्त होकर ध्यान रूप उपासना करनी चाहिए।[2] आत्मदर्शन के साधन - मनन रूप उपासना - सम्पादनार्थ मुख्यत: न्याय शास्त्र का आविर्भाव हुआ। चूँकि श्रवण के पश्चात् मनन का विधान है, अत: इस शास्त्र की प्रक्रिया को शास्त्रों में अन्वीक्षा कहा गया है। अनु अर्थात् श्रवणमनु, ईक्षा दर्शनं मननम् इति अन्वीक्षा- यही उक्त पद की व्युत्पत्ति है। श्रवण के बाद युक्ति द्वारा आत्मा आदि पदार्थों की ईक्षा-दर्शन-मनन अर्थात् शास्त्रानुमत रीति से अनुमान करना ही अन्वीक्षा है।

अभिधान

इसी अन्वीक्षा के निर्वाहार्थ प्रकाशित विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रत्यक्ष और आगम के अविरोधी अनुमान अन्वीक्षा है।[3] न्यायविद्या या न्याय शास्त्र इसका नामान्तर है। इसे समझने के लिए इसके प्रतिपाद्य सभी पदार्थों का परिज्ञान आवश्यक है, जिन्हें यह विद्या प्रकाशित करती है। हेतुविद्या, हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। चूँकि यहाँ अनुमान की प्रधानता है और अनुमान का मुख्य अवयव है हेतु, अत: हेतुविद्या आदि इसके अन्वर्थक नाम हैं। इसी तरह युक्त एवं तर्क का साङ्गोपाङ्ग विवेचन यहाँ प्रमुख रूप से होता है, अत: तर्कशास्त्र या युक्तिशास्त्र आदि नाम भी इसका संगत है। परीक्षित प्रमाणों के आधार पर ही प्रमेय का यहाँ प्रतिपादन किया जाता है, अत: इसे 'प्रमाणशास्त्र' भी कहते हैं। 'प्राधान्येय व्यपदेशा: भवन्ति' इस सूक्ति के आधार पर इसकी प्रमाणशास्त्रता सिद्ध है। यहाँ प्रमाण का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।

इस आन्वीक्षिकी का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है कि यह अध्यात्म विद्या होकर भी शास्त्रान्तर के परिज्ञानार्थ प्रक्रिया का निर्देश कर प्रदीप की तरह उपकारिका होती है। अत: इसे 'प्रक्रियाशास्त्र' भी कहते हैं। आचार्य उदयन ने कहा है- ‘यावदुक्तोपपन्न इति नैयायिका:’ [4]- जितना कहने से विषय स्पष्टत: समझ में आ जाए, नैययायिक उतना अवश्य कहता है, अर्थात् विषय (प्रतिपाद्य) का परिशुद्ध रूप में परिज्ञान इस शास्त्र का लक्ष्य रहा है। ठीक यही बात 'न्यायभाष्य' में कही गयी है। जितने शब्द समूह के कथन से साधनीय अर्थ की सिद्धि होती है उस शब्द समूह के प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयव कहे गये हैं, जिसे परमन्याय कहते हैं।[5]

यद्यपि श्रीमद्भागवत में प्रसिद्ध न्यायशास्त्र से भिन्न केवल अध्यात्मविद्या-विशेष रूप अर्थ में इस 'आन्वीक्षिकी' विद्या का उल्लेख मिलता है। कहा गया है कि भगवान के षष्ठ अवतार दत्तात्रेय ने अलर्क और प्रह्लाद आदि को 'आन्वीक्षिकी' रूपा अध्यात्मविद्या का उपदेश दिया था-

षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृत: प्राप्तोऽनसूयया।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥[6]

यहाँ 'आन्वीक्षिकी' की व्याख्या 'श्रीधरस्वामी' की है। तथापि 'न्यायभाष्य' में वात्स्यायन ने स्पष्ट कहा है कि आन्वीक्षिकी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यही न्यायशास्त्र है।

परिचय

न्यायभाष्यकर ने स्पष्ट कहा है कि उपनिषद आदि अध्यात्मविद्या से इसमें पार्थक्य दिखाने के लिए उन संशय आदि चौदह पदार्थों का प्रतिपादन भी यहाँ आवश्यक है।[7] चूँकि वेद, वार्ता तथा दण्डनीति से भिन्न चतुर्थी विद्या के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है, अत: इसके असाधारण प्रतिपाद्य उक्त संशय आदि चौदह पदार्थ विद्या के अपने असाधारण प्रतिपाद्य होते हैं। चूँकि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन न्याय शास्त्र में किया गया है, अत: शास्त्रान्तर से इसका पार्थक्य अवश्य सिद्ध होता है। न्यायवार्त्तिक में आचार्य उद्योतकर ने भी इसकी पुष्टि में कहा है कि न्याय दर्शन में यदि संशय आदि चौदह पदार्थों का विवेचन नहीं होता तो यह चतुर्थी विद्या नहीं कहलाती, बल्कि त्रयी के अन्तर्गत अध्यात्मविद्या के रूप में प्रतिष्ठित होती।[8] निष्कर्ष यह हुआ कि संशय आदि पदार्थों के विवेचन के कारण शास्त्रों में चतुर्थी विद्या के रूप में निर्दिष्ट यह आन्वीक्षिकी 'गौतमीय न्यायदर्शन' ही है कोई अन्य विद्या नहीं।

प्राचीनता

इस न्यायशास्त्र की उत्पत्ति कब हुई- यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह भूमि भारतवर्ष ही है, जहाँ इसका उद्भव हुआ। कश्मीर के राजा शाङ्करवर्मा के धर्म सचिव नैय्यायिक 'जयन्तभट्ट' ने 'न्यायमञ्जरी' में कहा है कि सृष्टि के आदि से ही वेद की तरह न्याय दर्शन आदि की प्रवृत्ति देखी जाती है। किसी ने इसे संक्षिप्त करके कहा तो किसी ने उसी को विस्तारपूर्वक समझाया। अतएव उन लोगों को इस शास्त्र का कर्ता मान लिया गया[9] वस्तु:स्थिति के विचार करने पर यह बात संगत प्रतीत होती है। ऋग्वेद के सूक्तों में युक्तिवाद का आभास मिलता है।[10] ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका प्रयोग देखा जाता है।[11] उपनिषदों में तत्त्वज्ञान के विचार के समय इस युक्तिवाद का विस्तार से व्यवहार किया गया है।[12] रामायण, महाभारत, भागवत तथा मनुस्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में इसका शास्त्र के रूप में उपयोग हुआ है।

  • रामायण के उत्तरकाण्ड में श्रीराम की यज्ञ सभा में हेतुवाद में कुशल हेतुक अर्थात् नैयायिक विद्वान् को ससम्मान निमन्त्रित करने की बात कही गयी है।[13]
  • महाभारत में निर्दिष्ट है कि नीति, धर्म और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए देवगण की प्रार्थना पर विधाता ने शतसहस्र अध्यायों को प्रकाशित किया। जहाँ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि अनेक विषय तथा त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता और दण्डनीति आदि विविध विद्याएँ प्रकाशित हुईं।[14]
  • भागवत में प्रतिपादित है कि विश्वस्स्रष्टा के हृदयाकाश से व्याहृति और प्रणव के साथ आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति रूप चार विद्याएँ, उत्पन्न हुईं।[15] यहीं यह भी कहा गया है कि बलराम और श्रीकृष्ण धनुर्वेद तथा राजनीति के साथ आन्वीक्षिकी विद्या का भी अध्ययन करते थे।[16]
  • भगवान मनु ने राज्य संचालन के लिए शास्त्रान्तरों के साथ इस विद्या के अध्ययन पर भी बल दिया है।[17]
  • याज्ञवल्क्य ने कहा है कि राजा को अपनी सभी प्रकार की दुर्बलताओं से बचने के लिए आन्वीक्षिकी, दण्डनीति, वार्ता और त्रयी की शिक्षा लेनी चाहिए।[18]
  • इसी तरह की बात गौतम के धर्मसूत्र में भी कही गयी है।[19]
  • विष्णु पुराण में तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में विद्याओं की गिनती के समय न्यायविस्तर तथा न्यायशब्द से इस आन्वीक्षिकी का उल्लेख हुआ है।[20]

व्यापकता

फलत: इस विद्या की व्यापकता और महत्ता प्राचीन काल से ही निर्विवाद रूप से सिद्ध है। एक समय में यह शास्त्र अपने उत्कर्ष से अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया और वहाँ अपना प्रचार-प्रसार कर समृद्ध हुआ। खुर्दा अवेस्ता में युक्तिवादी गौतम का उल्लेख ही इसमें प्रमाण है।[21] पूरब दिशा की ओर भी इसने बर्मा तक अपना स्थान बना लिया था। बर्मी लिपि में आज भी 'नव्यन्याय' के ग्रन्थ उपलब्ध हैं।[22] उत्तर में जहाँ तक बौद्ध दर्शन का प्रचार-प्रसार हुआ वहाँ न्याय दर्शन के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव को मानना ही होगा। बौद्ध दर्शन का प्रबल प्रतिपक्षी नैय्यायिक ही रहा है। अत: चीन देश तिब्बत आदि में इसका कभी अवश्य प्रचार रहा होगा। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने निरन्तर इसकी प्रशंसा की तथा इसकी शिक्षा पर अधिक बल दिया। महाभारत स्पष्टत: कहता है कि न्याय शास्त्र को छोड़कर केवल वेद का अवलम्बन करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। अर्थात् न्याय शास्त्र सम्मत मनन सर्वथा आवश्यक है। वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम्। अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हणा॥[23]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह पद्य भुवनेश्वर के अनन्तवासुदेव के मन्दिर में उत्कीर्ण है।
  2. आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो

    मैत्रेय्यात्मना वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या वा विज्ञानेनेदं सर्व विज्ञातम्। (बृह. उप. 4.2.51)
    श्रोतव्य: पूर्वमाचार्यत आगमतश्च। पश्चान्मन्तव्यस्तर्कत इति (शाङ्करभाष्यम्।)
    श्रोतव्य: श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:।
    मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥
    -प्रो. तङ्गास्वामी ने अपनी दर्शनमञ्जरी में मानव उपपुराण अध्याय 6 का पद्य कहा है।
    तत्त्वचिन्तामणि में, न्यायतत्त्वालोक पृ0 2 में तथा विवरणप्रमेयसंग्रह पृ0 2 में यह पद्य उल्लिखित है।

  3. प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तया प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् (न्यायभाष्य 1.1.1
  4. न्यायकुसुमाञ्जलि आरम्भिक उपक्रम अंश।
  5. साधनीयार्थस्य यावति शब्दसमूहे सिद्धि: परिसमाप्यते
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय’ समूहमपेक्ष्यावयवा उच्यन्ते।
    तस्य पञ्चावयवा: प्रतिज्ञादय: सोऽयं परमो न्याय इति।(न्यायभाष्य 1.1.1)

  6. भागवत 1.2.11
  7. इमास्तु चतस्रो विद्या: पृथक् प्रस्थाना: प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या। तस्या: पृथक् प्रस्थाना: संशयादय: पदार्था:। येषां पृथग्वचनमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात् यथोपनिषद:। 1.1.1. न्या0 भा0
  8. तस्या: संशयादि प्रस्थानमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात्। तस्मात् पृथगुच्यन्ते 1.1.1
  9. आदिसर्गात् प्रभृतिवेदवदिमा विद्या: प्रवृत्ता:। संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तान् कर्तृना चक्षते इति (न्यायमञ्जरी पृ0 5
  10. ऋग्वेद 1.164
  11. अस्यवामस्य पलितस्य होतु:।
  12. छान्दोग्य उपनिषद के नारद-सनत्कुमार-संवाद में विद्याओं का विवरण देते समय ‘वाकोवाक्य’ पद का व्यवहार हुआ है, जिसकी व्याख्या शंकर भगवत्पाद ने तर्कशास्त्र की है एवं सुबालोपनिषद के द्वितीय खण्ड में वेद के साथ न्याय शास्त्र का भी उल्लेख हुआ है 'तस्यैतस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमिवैतद् ऋग्वेदो यजुर्वेद:............ न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्रीणीति'
  13. "हेतूपचारकुशलान् हेतुकांश्च बहुश्रुतान् 8"। बा. रा. उ. का. 7/94/8/ वाग्मिन: परस्परजिगीषया हेतुवादान् /1/14/19/ नावादकुशलो द्विज: /1/14/21/
  14. ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
    यत्र धर्मस्तथैवार्थ: कामश्चैवापि वर्णित:॥
    त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
    दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिता: (शांति पर्व 59.29, 33)

  15. आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च। एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दहृत:॥ तृ. स्क. 12.44
  16. सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा। तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिञ्च षड्विधाम्॥ दशम स्कन्ध 85.38, यहाँ न्यायपथ से मीमांसा और आन्वीक्षिकी से यह न्यायविद्या तर्कशास्त्र अभिप्रेत है।
  17. त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्याद् दण्डनीतिञ्च शाश्वतीम्। आन्वीक्षिकीञ्चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकत:॥ मनुस्मृति 7.43
  18. स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यां दण्डनीत्यां तथैव च।
  19. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जं साधुकारी स्यात्। साधुवादी त्रय्यामान्वीक्षिक्यां चाभिविनीत:॥ (गौतमधर्मसूत्र, अध्याय 11
  20. अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तर:।
    पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।
    आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रय:।
    अर्थशास्त्रं चतुर्थ तु विद्या ह्यष्टादशैव तु॥ (विष्णुधमोत्तरपुराण......)
    पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रङ्गमिश्रिता:।
    वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चर्तुदश॥ (याज्ञ. स्मृ. 1.3
  21. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा सम्पादित तथा विद्या भूषण का 'हिस्ट्री आफ इण्डियन लॉजिक' पृ0 20-291
  22. शिक्षामन्त्रालय भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पूर्व एवं पश्चिम दर्शन का इतिहास- (History of philosophy Eastern and Western) डॉ. विभूतिभूषण भट्टाचार्य का लेख)। (प्रथम भाग)
  23. शान्तिपर्व 268.64

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