न्याय दर्शन में प्रमेय का उल्लेख

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न्याय दर्शन संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है- "व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला"। न्याय दर्शन में प्रमाण के वाद प्रमेय का उल्लेख हुआ है। प्रथम सूत्र में उल्लिखित तत्त्वज्ञान से प्रमिति अभिप्रेत है, जिसकी उत्पत्ति में इसके विषय अपेक्षित होते जो प्रमेय कहलाते हैं। मुमुक्षुओं के लिए इस प्रमेय पदार्थ का ज्ञान आवश्यक है। प्रकृष्ट - सर्वश्रेष्ठ, मेय-ज्ञेय= प्रमेय बारह प्रकार के यहाँ हे गये हैं- आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मनस्, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग[1]। वस्तुमात्र, जो प्रमाण से सिद्ध किया जाता है, प्रमेय होता है अतएव महर्षि गौतम ने अवसर पर प्रमाण को भी प्रमेय कहा है- ‘प्रमेया च तुला प्रामाण्यवत्‘ (2/1/16)। जैसे सुवर्ण आदि द्रव्य के गुरुत्व विशेष का निर्धारण तराजू (तुला) से होता है, उस समय तराजू (तुला) गुरुत्व निर्धारक होने से प्रमाण माना जाता है। किन्तु उस तराजू (तुला) में ही यदि किसी का सन्देह हो तो दूसरे तराजू पर उसे रखकर उसके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती है, तब वह प्रमेय हो जाता है। इसी तरह प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, किन्तु उनमें यदि प्रामाण्य सन्दिग्ध हो जाए तो प्रमाणान्तर से उसकी प्रामाण्यसिद्धि के समय वह प्रमाण भी प्रमेय हो जाता है।

भाष्यकार ने वैशेषिक शास्त्र के पदार्थों को भी यहाँ प्रमेय में समाविष्ट किया है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय आदि भी प्रमेय कहे गये हैं। इन पदार्थों के भेद-प्रभेद चूँकि असंख्य हैं, अतएव नैय्यायिकों को अनियत प्रमेयवादी कहा गया है। न्यायमत में प्रमेय अनन्त हैं, किन्तु उन प्रमेयों में आत्मा आदि उपर्युक्त बारह प्रमेयों का तत्त्वसाक्षात्कार सकल पदार्थविषयक विथ्याज्ञान की निवृत्ति के द्वारा मुक्ति का साक्षात्कार होता है। अतएव इन्हें प्रमेय अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञेय कहा गया है।

आत्मा

पहला प्रमेय है आत्मा,, जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञान अनुमापक हेतु हैं।[2] इच्छा आदि गुणों से (हेतुओं से) अनुमान के आधार पर इन गुणों का आश्रय सिद्ध होता है, पश्चात् इच्छा आदि गुणों का अधिकरण देह आदि नहीं हो सकते हैं- इस अनुमान के द्वारा देह आदि से भिन्न उन गुणों के आश्रयरूप में आत्मा की सिद्धि होती है। मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ- इस प्रकार से सुख आदि के मानस-प्रत्यक्ष के समय में प्रत्येक जीव स्व का भी (आत्मा का भी) मानस प्रत्यक्ष कर लेता है। किन्तु मिथ्या अभिमान में लिप्त जीव उस समय में देह आदि से भिन्नरूप में आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं कर पाता हे। इसी तात्पर्य से महर्षि कणाद जीवात्मा को अप्रत्यक्ष कहकर उसके विषय में अनुमान-प्रमाण दिखाते हैं। इच्छा आदि आत्मा के असाधारण (विशेष) गुण हैं। अन्यथा इच्छा आदि गुण आत्मा के लक्षण नहीं हो सकते। न्यायमत में आत्मा की अनेकता, विभुता तथा नित्यता मानी गयी है। धर्माधर्म रूप अदृश्य का आश्रय आत्मा यहाँ ज्ञान आदि गुणों का अधिकरण है। यही कारण है कि कोई सुखी और कोई दु:खी इस संसार में देखा जाता हैं। आत्मा ज्ञान स्वरूप नहीं माना गया है। पश्चात् ईश्वर भी नित्यज्ञान, नित्यसुख आदि के आधाररूप में यहाँ स्वीकृत हुए हैं, जो इस संसार का कर्ता, वेद का निर्माता तथा अदृष्ट का अधिष्ठाता कहा जाता है।

शरीर

दूसरा प्रमेय शरीर है। आत्मा के प्रयत्न से जो क्रिया होती है उसका नाम है चेष्टा। इस चेष्टा का आश्रय शरीर होता है। अत: चेष्टाश्रयत्व शरीर का लक्षण होता है।[3] इसी तरह प्राण आदि इन्द्रियसमूह भी शरीर को ही आश्रय बनाकर रहता है, अतएव ये शरीराश्रित हैं। शरीर के साथ ही इन इन्द्रियों की सत्ता है। अत: अवच्छेदकता-संम्बन्ध से शरीर उनका आश्रय होता है। इन्द्रियाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण है। अर्थाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण होता है। यहाँ अर्थ से सुख और दु:ख अभिप्रत है।

यद्यपि महर्षि गौतम के मत से जीवात्मा ही साक्षात सम्बन्ध से सुख तथा दु:ख का आश्रय होता है, तथापि जीवात्मा अपने शरीर से ही सुख और दु:ख का भोग करता है। शरीर से बाहर उसका सुख-दु:ख का) अनुभव नहीं होता है। प्रत्येक जीवात्मा का अपना शरीर ही सकल सुख तथा दु:ख के भोग का आयतन या अधिष्ठान है। अत: सुखाश्रय और दु:खश्रय भी शरीर होता है।

इन्द्रिय

तीसरा प्रमेय इन्द्रिय है। यद्यपि छठां प्रमेय मनस भी इन्द्रिय है। तथापि मनस के विषय में विशेष ज्ञान के लिए यहाँ उसका पृथक् उल्लेख किया गया है। यद्यपि सांख्य आदि दर्शनों में वाक, पाणि, पाद, पायु, और उपस्थ- इन पाँच कर्मेन्द्रियों का भी यहाँ परिग्रह हुआ है। और वहीं यह भी कहा गया है कि अहंकार सभी इन्द्रियों को उत्पन्न करता है। तथापि महर्षि गौतम हस्त आदि अंगविशेषों को इन्द्रिय नहीं मानते हैं। इन के मत में घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों हैं, [4] क्योंकि वे प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के साक्षात साधन हैं। हस्त आदि इन्द्रियों के सदृश हैं। अतएव उनमें इन्द्रिय पद का लाक्षणिक प्रयोग होता है। ‘तात्पर्य’ टीकाकार वाचस्पति मिश्र[5] भी न्याय के इस सिद्धान्त के समर्थन में कहते हैं। कि यदि असाधारण कार्य के साधन हस्त आदि को इन्द्रिय कहा जाय तब तो कण्ठ, हृदय, आमाशय तथा पक्वाशय को भी कर्मेंन्द्रिय कहा जा सकता है। गौतम के मत में अहंकार किसी इन्द्रिय का उपादान कारण नहीं है, किन्तु पृथिवी आदि पंचभूत ही क्रमश: घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों के उपादान कारण हैं। न्यायदर्शन में इन्द्रिय को भौतिक पदार्थ कहा गया है। इन्द्रिय-लक्षणसूत्र के अन्त में महर्षि गौतम ने ‘भूतेभ्य:’ पद का प्रयोग किया है।

इनकी मूल युक्ति यही है कि गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्दों के बीच में घ्राण इन्द्रिय जब केवल गन्ध को ही ग्रह करता है तथा रसना केवल रस का ही प्रत्यक्ष कराता है, तब उसे भौतिक ही कहना उचित होगा। क्योंकि तत्तत भूतजन्यत्व ही वहाँ अनुमान द्वारा सिद्ध होता है। श्रवणेन्द्रिय उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि जीव का कर्णगोलकावच्छिन्न नित्य आकाश ही वस्तुत: श्रवण है। उसी कर्णगोलक की उत्पत्ति मानकर शास्त्र में श्रवणेन्द्रिय को उत्पन्न कहा गया है। कर्णगोलक उपाधि के भेद से श्रवणेन्द्रियरूप आकाश के भेद की कल्पना की जाती है। महर्षि गौतम ने आकाश को श्रवणेन्द्रिय की योनि (मूल) कहा है। श्रवणेन्द्रिय भी अभौतिक पदार्थ नहीं है। किन्तु आकाशात्मक भूतरूप है।

गौतम के मत में आकाश विभु अर्थात् सर्वव्यापी तथा नित्य पदार्थ हे। विभुद्रव्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अत एव आकाश रूप श्रवणेन्द्रिय वस्तुत: नित्य पदार्थ है। गौतम के इन्द्रिय - लक्षणसूत्र में - ‘भूतेभ्य’’ इस पद में पंचमी विभक्ति का अर्थ जन्यत्व नहीं हैं किन्तु प्रयोजकत्व है। जिसकी सत्ता के बिना जिसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है, उसे उसका प्रयोज्य कहते हैं। आकाश की सत्ता के बिना श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सिद्ध नहीं होती है, अतएव वह आकाश का प्रयोज्य है और आकाश उसका प्रयोजक।

अर्थ

चौथा प्रमेय का नाम अर्थ है यह इन्द्रिय का अर्थ होता है। क्रमश: पाँच इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य पाँच विशेष गुण - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द को इन्द्रियार्थ कहते हैं।[6] गन्ध, रस, रूप तथा स्पर्श पृथिवी के गुण हैं। रस, रूप तथा स्पर्श जल के गुण हैं, रूप और स्पर्श तेजस के गुण हैं केवल स्पर्श वायु का और केवल शब्द आकाश का गुण है। जिस इन्द्रिय में जिस गुण का उत्कर्ष रहता है, उससे उसी गुण का प्रत्यक्ष होता है। घ्राण पार्थिव द्रव्य है। उसमें यद्यपि गन्ध, रूप, रस तथा स्पर्श इन चार गुणों का समावेश रहता है तथापि गन्ध का ही उत्कर्ष रहता है। अतएव उससे गन्ध का ही प्रत्यक्ष होता है। जिस द्रव्य तथा जिस गुण में प्रत्यक्ष का प्रयोजक धर्म रहता है, उस द्रव्य और गुण का प्रत्यक्ष होता है। केवल उद्भूतत्त्व धर्म से युक्त रूप विशेष और उस रूप से युक्त द्रव्य का ही प्रत्यक्ष होता है। यद्यपि रूप चक्षुष में भी है किन्तु वह उद्भूतत्त्व धर्म-विशिष्ट नहीं है। अतएव उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। जैसे पाषाण आदि अनेक द्रव्यों में गन्ध रहने पर भी उसमें गन्ध की उत्कटता नहीं है, अत: उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसी तरह से घ्राणगत गन्ध का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है। रसना आदि इन्द्रियों में रहने वाले रस आदि गुणों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस मत में इन्द्रिय को अतीन्द्रिय माना गया है।

बुद्धि

पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक हे। महर्षि गौतम ने बाद में इसी अर्थ में बुद्धिपद का प्रयोग किया है। तथापि प्रमेय के रूप में बुद्धि की चर्चा हे, वह आत्मा का प्रत्यक्ष आदि ज्ञानरूप है।[7] ज्ञानार्थक ‘बुध्’ धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न बुद्धि पद ज्ञानरूप अर्थ का वाचक होता है। इसी को उपलब्धि भी कहते हैं। न्यायमत में बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान भिन्न पदार्थ नहीं हैं।

मन

छठा प्रमेय मनस है। जीव के सुख तथा दु:ख आदि के मानस-प्रत्यक्ष का कारण अन्तरिन्द्रिय मनस है। मनस के अस्तित्व साधक अनेक हेतुओं के रहने पर भी महर्षि गौतम ने अपने एक विशेष हेतु को प्रदर्शित किया है- ‘युग्पज् ज्ञानानुपपत्तिर्मनसो लिङ्गम्‘ 1/1/16 । एक समय में अनेक इन्द्रियों से अनेक विषयों के प्रत्यक्ष का नहीं होना मनस को सिद्ध करता है। जिस काल में किसी विषय के साथ किसी इन्द्रिय का सन्निकर्ष रहने पर भी एक समय में अनेक विषयों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। किन्तु समय के विलम्ब से ही अपर प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है अत: अनुमान होता है। जीव के शरीर में इस तरह का पदार्थ अवश्य है, जिसका संयोग यदि इन्द्रिय से नहीं है, तो उस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता है।

वह पदार्थ परमाणु की तरह अतिसूक्ष्म है। अतएव एक समय में अनेक इन्द्रियों से उसका संयोग नहीं हो पाता है। इन्द्रिय के साथ जिसका संयोग होने पर उस इन्द्रिय से ग्राह्य विषय का प्रत्यक्ष होता है। और जिसके संयोग के अभाव में अन्य कारणों के रहने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, वही अतिसूक्ष्म द्रव्य मनस है। जीव के देह में वह एक ही मनस रहता है। शरीर में एक से अधिक मनस की सत्ता यदि मान ली जाये तो एक काल में विभिन्न इन्द्रियों के साथ अनेक मनस का संयोग संभव हो जायेगा, जो अनेक विषयों का प्रत्यक्ष एक काल में करा देगा। उस एक ही मनस को यदि शरीरव्यापी मान लिया जाय तो एक समय में सभी इन्द्रियों के साथ उसका संयोग होना संभव हो जायेगा, जिससे अनेक विषयों का प्रत्यक्ष अनेक इन्द्रियों से एक समय में होने लगेगा।[8] मनस की परीक्षा प्रकरण में उसके विभुत्व का खण्डन किया गया है। ‘न गत्यभावात्’ 3/2/8 मनस विभु (सर्वव्यापी) नहीं है। विभुद्रव्य में गति-क्रिया नहीं रहती है और मनस का व्यापार चलता रहता है। मृत्यु के समय में मनस शरीर से बाहर चला जाता है। वह विभु नहीं हो सकता है।

प्रवृत्ति

सातवाँ प्रमेय है प्रवृत्ति । मनुष्यों के शुभाशुभ कर्म[9] प्रवृत्ति पद से लिये जाते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. शारीरिक,
  2. वाचनिक और
  3. मानसिक।

दान, रक्षा और सेवा शारीरिक शुभ कर्म हैं। सत्य, हित तथा प्रिय बोलना और स्वाध्याय वाचनिक शुभ कर्म हैं। दया, अस्पृहा और श्रद्धा मानसिक शुभ कर्म हैं। इसी तरह हिंसा, स्तेय तथा अगम्यागमन शारीरिक अशुभ कर्म हैं। कठोर, मिथ्या, असंबद्ध कथन तथा चुगलखोरी वाचिक अशुभ कर्म हैं। परद्रोह, परधन में लोभ तथा नास्तिकता मानसिक अशुभ कर्म हैं। यद्यपि शुभाशुभ कर्मजन्य धर्मोधर्म भी प्रवृत्ति पद से लिया जाता है तथापि वह उसका मुख्य नहीं गौण अर्थ है। शुभ एवं अशुभ कर्म कारणरूपा मुख्य प्रवृत्ति है, पुण्य और पाप कार्यरूपा गौण प्रवृत्ति है। इस तरह प्रवृत्ति के दो प्रकार होते हैं।

दोष

आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के राग, द्वेष और मोह इन तीनों को दोष कहते हैं।[10] यह प्रवृत्ति का जनक-उत्पादक होता है। विषय में आसक्तिरूप राग, दूसरों के अनिष्ट की इच्छा रूप अथवा द्विष्ट साधनता ज्ञानजन्य गुण रूप, द्वेष तथा हित में अहित बुद्धि और अहित में हित बुद्धि रूप, मोह जीवात्मा को शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त कराता है। काम, क्रोध, मत्सर, असूया, प्रभृति दोष इन तीन प्रकारों के दोष में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। इनमें भी मोह सबसे अधर्म है।

प्रेत्यभाव

नवम प्रमेय है प्रेत्यभाव। इसका अर्थ होता है मरण के बाद जन्म।[11] जीव के धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति का फल होता है उसका पुनर्जन्म होना। धर्माधर्म दोषमूलक है, अत: पुनर्जन्म भी परम्परा संबन्ध से दोषमूलक ही होता है। जीवात्मा नित्य है। अतएव उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है। अनादिकाल से ही जीव बारम्बार स्थूल शरीर को धारण करता आ रहा है, जिसे यहाँ पुनरुत्पत्ति या प्रेत्यभाव कहते हैं। जीवात्मा के नित्य होने से ही उसका पुनर्जन्म रूप प्रेत्यभाव सिद्ध होता है।

फल

दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण। जीव के सुख तथा दु:ख का भोग उसका मुख्य फल है और उस भोग का साधन देह तथा इन्द्रिय आदि गौण फल कहलाते हैं। जीव का फल किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह उसके पूर्वजन्मकृत धर्म और अधर्म से उत्पन्न होता है और वह धर्माधर्म उसके दोष से उत्पन्न होता है। फलत: धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति और राग तथा द्वेष आदि से उत्पन्न पदार्थ मात्र ही जीव का फल कहलाता है।[12] दोष रूप जल से सिक्त आत्मरूप भूमि में धर्म और अधर्म रूप बीज सुख और दु:ख रूप फल को उत्पन्न करता है।

दु:ख

ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है। बांधना, पीड़ा तथा ताप आदि शब्द का अर्थ ही दु:ख हैं।[13] प्राचीन आचार्यों के मत से इसके तीन भेद हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। जो ‘त्रिताप‘ पद से प्रसिद्ध है। प्रतिकूल अनुभूति के कारण दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय पदार्थ है। इसका लक्षण ‘प्रतिकूल वेदनीय‘ कहा गया है। आचार्य उद्योतकर ने इसके इक्कीस प्रकार बताए हैं।

जीवों के दु:ख का घर है शरीर, उस दु:ख के साधन घ्राण आदि छह इन्द्रियाँ, उन इन्द्रियों के ग्राह्य विभिन्न छ: विषय, उन छह विषयों के ज्ञान तथा दु:ख से लिप्त सुख ये बीस प्रकार के गौण दु:ख है और मुख्य दु:ख प्रतिकूल वेदनीय है। भाष्यकार ने कहा है- जहाँ सुख है वहाँ दु:ख अवश्य रहता है। सुख के साथ दु:ख का अविनाभाव संबन्ध है। फलत: जीवों के सुख भी दु:ख हैं। सुख के कारण शरीर आदि तो दु:ख है ही। इन सभी दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मुक्ति के रूप में व्याख्या की गयी है। यहाँ एक बात अवधेय है। यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि महर्षि गौतम सुख पदार्थ को नहीं मानते हैं। उन्होंने अनेक सूत्रों में सुख पद का व्यवहार किया है। किन्तु उनका कहना है कि मुमुक्षु व्यक्ति सुख का भी दु:ख के रूप में ही ध्यान करता है अतएव प्रमेय वर्ग में उसका उल्लेख नहीं किया गया है।

अपवर्ग

बारहवाँ प्रमेय अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।[14] सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं। तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है। यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है।


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  1. न्यायसूत्र 1/1/9।
  2. न्यायसूत्र 1/1/9।
  3. न्यायसूत्र 1/1/11
  4. न्यायसूत्र 1/1/12
  5. न्यायसूत्र 3/1/61 की तात्पर्यटीका
  6. न्यायसूत्र 1/1/14
  7. न्यायसूत्र 1/1/15
  8. न्यायसूत्र 3.2.56-59
  9. न्यायसूत्र 1.1.17
  10. वही 1.1.18
  11. न्यायसूत्र 1/1/19
  12. न्यायसूत्र 1/1/20
  13. न्यायसूत्र 1/1/21
  14. न्यायसूत्र 1/1/22