पाण्डुरंग शास्त्री अठावले
पाण्डुरंग शास्त्री अठावले
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पूरा नाम | पाण्डुरंग शास्त्री अठावले |
अन्य नाम | दादा |
जन्म | 19 अक्टूबर 1920 |
जन्म भूमि | रोहा, मुम्बई (महाराष्ट्र) |
मृत्यु | 25 अक्टूबर, 2003 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | सामुदायिक नेतृत्व |
भाषा | संस्कृत |
पुरस्कार-उपाधि | 'महात्मा गाँधी पुरस्कार' (1988), 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' (1999), 'पद्म विभूषण' (1999) |
प्रसिद्धि | दार्शनिक तथा समाज सुधारक |
विशेष योगदान | पाण्डुरंग शास्त्री ने समाज में स्वाध्याय के माध्यम से आत्मा चेतना जगाने आदर्श स्थापित करने पर बल दिया। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | बानो जहाँगीर कोयाजी, अरुणा राय |
अन्य जानकारी | पाण्डुरंग ने 1956 में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसका नाम, 'तत्व ज्ञान विद्यापीठ' रखा। इस स्कूल में उन्होंने भारत के आदिकालीन ज्ञान तथा पाश्चात्य ज्ञान, दोनों का समंवय रखा। |
बाहरी कड़ियाँ | अठावले पाण्डुरंग शास्त्री का जीवन परिचय |
अद्यतन | 18:34, 16 अगस्त 2016 (IST)
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पाण्डुरंग शास्त्री अठावले अथवा अठावले पाण्डुरंग शास्त्री (अंग्रेज़ी: Pandurang Shastri Athavale, जन्म: 19 अक्टूबर, 1920; मृत्यु: 25 अक्टूबर, 2003) भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु, समाज सुधारक तथा दार्शनिक थे। पाण्डुरंग अठावले को 'दादा' (बड़ा भाई) के नाम से भी जाना जाता था। उन्होंने समाज में स्वाध्याय के माध्यम से आत्म चेतना जगाने का आदर्श स्थापित करने की कोशिश की तथा समाज सुधार आंदोलन भी चलाया। अठावले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जाग्रत किया तथा आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग सम्भव बनाया।[1] वर्ष 1999 में भारत सरकार ने दादा पाण्डुरंग को 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया था।
जन्म तथा शिक्षा
अठावले का जन्म 19 अक्टूबर 1920 को मुम्बई के पास रोहा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। धार्मिक प्रवृत्तियों से परिपूर्ण पाण्डुरंग के परिवार में विद्वत्ता की परम्परा थी और उसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भी संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और हिंदू ग्रंथों के अध्ययन में लग गए। पाण्डुरंग ने अपनी स्व-प्रेरणा से स्वाध्याय आंदोलन चलाया, जो भगवद्गीता पर आधारित था। इसी स्वाध्याय के आधार पर पाण्डुरंग ने युक्ति निकाली कि इससे सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाओं का समुचित समाधान किया जा सकता है। पाण्डुरंग ने स्वाध्याय से अनुभव और परिपक्वता का सम्बन्ध जोड़ते हुए समाज में इसका महत्त्व प्रचारित किया तथा बहुत सी समस्याओं का हल प्रस्तुत किया।
दूसरा विश्व धर्म सम्मेलन
1954 में पाण्डुरंग को शिम्त्सु जापान में 'दूसरा विश्व धर्म सम्मेलन' में भाग लेने का अवसर मिला। वहाँ इस सम्मेलन में इन्होंने वैदिक ज्ञान तथा जीवन दर्शन के महत्त्व पर व्याख्यान दिया तथा उसे अपनाए जाने पर जोर दिया। वहाँ उस सभा में उनसे एक श्रोता ने प्रश्न किया, "आपके देश में क्या कोई एक भी सम्प्रदाय ऐसा है, जो इन आदर्शों तथा जीवन-दर्शन को जीवन व्यवहार में अपनाए हुए है....?" इस प्रश्न ने अठावले को परेशान कर दिया। वह चुपचाप वहाँ से लौट आए तथा उन्होंने स्वदेश आकर भारतीय जीवन की वर्तमान तथा प्रासंगिक स्थिति पर विचार तथा चर्चा करनी शुरू कर दी।[1]
विद्यालय की स्थापना
पाण्डुरंग ने 1956 में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसका नाम, 'तत्व ज्ञान विद्यापीठ' रखा। इस स्कूल में उन्होंने भारत के आदिकालीन ज्ञान तथा पाश्चात्य ज्ञान, दोनों का समंवय रखा। वह लगातार भ्रमण करते हुए जन संपर्क में लग गए। वह युवा जिज्ञासु लोगों से मिलते रहे। इन्होंने डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों, तथा उद्योगपतियों से बात की तथा उन्हें स्वाध्याय के माध्यम से आत्मा चेतना जगाने का संदेश दिया। उन्होंने समाज में यह आदर्श स्थापित करने की कोशिश की, कि लोग अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकल कर ईश्वर का ध्यान करें तथा भक्ति भाव अपनाएँ।
- दादा के रूप में सम्बोधन
अठावले के इस आह्वान पर 1958 में उनके भक्तों ने गाँव-गाँव घूमकर अठावले का संदेश प्रसारित करते हुए स्वाध्याय की महिमा सबको बतानी शुरू की और उन्होंने अपने गुरु का यह विवेक सबको दिया कि स्वाध्याय के मार्ग में किसी भी धर्म, जाति या स्त्री, पुरुष का कोई भेद नहीं है और धर्म मानव जाति की बराबरी में विश्वास करता है। अठावले के इस स्वाध्याय आंदोलन ने लगातार विकास किया और उसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई और पाण्डुरंग अठावले शास्त्री अपने भक्तों के बीच दादा (बड़ा भाई) कहकर सम्बोधित किए जाने लगे। 1964 में पोप पॉल चतुर्थ भारत आए और उन्होंने दादा से उनके दर्शन को लेकर चर्चा की।
समाज सुधार आंदोलन
दादा के आंदोलन में समाज सुधार की जबरदस्त शक्ति देखने को मिली। कितने ही लोगों ने मद्यपान छोड़ दिया, जुआ खेलना बंद कर दिया, इससे घर परिवार में पत्नियों को प्रताड़ित करना भी रुका। छोटे-मोटे अपराधों में लिप्त लोग सामुदायिक बेहतरी के कामों में रुचि लेने लगे। पाण्डुरंग अठावले शास्त्री के इस आंदोलन ने एक मनोहारी दृश्य उपस्थित किया और यह दैनिक संस्कृति बन गई। स्थानीय मछुआरे संस्कृत के श्लोक गाते हुए काम कर जाते तथा जितनी भी मछलियाँ मिलतीं, उसमें से ग़रीबों का अंश निकाल कर बाँट देते। उनके लिए उनकी नावें मंदिर की संज्ञा पा गईं। गाँव वालों ने बड़े विस्तार में वृक्षारोपण किया और उन वृक्षों को मंदिर वृक्ष कहा गया। इससे बंजर धरती कुछ समय में हरियाली से भर गई।[1]
सद्भावना का पुनर्संचार
दादा के स्वाध्याय व्यवहार से गाँवों की संस्कृति बदलने लगी। गाँवों में सफाई की चेतना आई। परिवारों के बीच पास-पड़ोस तक में सद्भावना का पुनर्संचार हुआ। बच्चे प्रसन्नचित स्कूल जाने लगे। गाँवों में अस्पृश्यता जैसी भावना खत्म कहा गया और उसकी उपज ज़रूरत मंदों को दिए जाने के लिए रखी गई। यहाँ तक कि विभिन्न धर्मों के पूजा स्थल एक स्थान पर आ गए।
पाण्डुरंग अठावले शास्त्री ने गाँव-गाँव में जाकर यह संदेश दिया कि स्वाध्याय का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। इसे दुनिया की मुश्किलें हल करने की चाबी नहीं समझा जाना चाहिए, स्वाध्याय के जरिए तो हम बस, प्रेम, पारम्परिक, शांति तथा निस्वार्थ भाव की संस्कृति फैला रहे हैं।
पाण्डुरंग ईश्वर को सर्वविद्यमान होने का संदेश देते हैं तथा आध्यात्मिक एकता उनका अभिष्ट है। वह पुरातन कालीन हिंदू ज्ञान सम्पदा की बात तथा उसका महत्त्व उसी श्रद्धा से बताते हैं, जिससे वह पाश्चात्य विचारकों का जिक्र करते हैं। वह अपने श्रोताओं को खुद से मुक्त करने की प्रेरणा देते हैं। वह कहते हैं, स्वबंधन जटिल है।
पुरस्कार व सम्मान
- महात्मा गाँधी पुरस्कार
दादा पाण्डुरंग को वर्ष 1988 में 'महात्मा गाँधी पुरस्कार' दिया गया। 19 मार्च, 1995 में उन्होंने अपने भक्तों की विशाल जनसभा को सम्बोधित किया। यह सभा राजकोट में जुटी थी।[1]
- मैग्सेसे पुरस्कार
वेदों और उपनिषदों में भारत की अकूत ज्ञान सम्पदा निहित है तथा हिंदू संस्कृति उससे इस सीमा तक समृद्ध है कि उसके माध्यम से आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकताहै। अठावले पाण्डुरंग शास्त्री ने इस तथ्य को समझा तथा उन कारणों की खोज की, जिनको उन ग्रंथों की सामर्थ्य की अपेक्षा के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अठावले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जाग्रत किया तथा आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग सम्भव बनाया। अठावले पाण्डुरंग शास्त्री को सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1999 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया।
- वर्ष 1999 में ही भारत सरकार ने दादा पाण्डुरंग को 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया था।
- सन 1997 में उन्हें धर्म के क्षेत्र में उन्नति के लिये 'टेम्पल्टन पुरस्कार' (Templton Prize) से सम्मानित किया गया।
मृत्यु
दादा पाण्डुरंग शास्त्री अठावले 25 अक्टूबर, 2003 को मुम्बई में, इस संसार से विदा हो गए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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