पारसी धर्म

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पारसी धर्म
पारसी धर्म का प्रतीक
पारसी धर्म का प्रतीक
विवरण पारसी धर्म या 'ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र) धर्म' विश्व का अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी।
प्रकार 'पारसी' या 'ज़रथुष्ट्र' धर्म एकैकाधिदेववादी धर्म है, जिसका तात्पर्य यह है कि पारसी लोग एक ईश्वर 'अहुर मज़्दा' में आस्था रखते हुए भी अन्य देवताओं की सत्ता को नहीं नकारते।
धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' जो ऋग्वेदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखी गई है।
पवित्र चिह्न सदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा।
सदरो विशेष आकृति वाली सदरो को निर्माण सफ़ेद सूती कपड़े के नौ टुकड़ों से किया जाता है। इसमें एक जेब होती है, जिसे 'किस्म-ए-कर्फ' कहते हैं।
संबंधित लेख ज़रथुष्ट्र, ज़रथुस्त्रवाद, अहुर मज़्दा
अन्य जानकारी भारत में पारसी धर्म के मानने वालों की जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70 प्रतिशत लोग महानगरी बम्बई में रहते हैं।

पारसी धर्म या 'ज़रथुष्ट्र (ज़रथुष्त्र) धर्म' विश्व का अत्यंत प्राचीन धर्म है, जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी। इस्लाम के आविर्भाव के पूर्व प्राचीन ईरान में ज़रथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में अरबों ने ईरान को पराजित कर वहाँ के ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों को जबरन इस्लाम में दीक्षित कर लिया था। ऐसी मान्यता है कि कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आये और यहाँ गुजरात तट पर नवसारी में आकर बस गये। वर्तमान में भारत में उनकी जनसंख्या लगभग एक लाख है, जिसका 70% बम्बई में रहते हैं।

स्थापना

पारसी धर्म को 'ज़रथुष्ट्र धर्म' भी कहा जाता है, क्योंकि संत ज़रथुष्ट्र ने इसकी शुरुआत की थी। संत ज़रथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। परन्तु ऋग्वेदिक ऋषियों के विपरीत ज़रथुष्ट्र ने एक संस्थागत धर्म का प्रतिपादन किया। सम्भवत: किसी संस्थागत धर्म के वे प्रथम पैगम्बर थे। इतिहासकारों का मत है कि वे 1700-1500 ई.पू. के बीच सक्रिय थे। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था। 30 वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई।

अर्थ

'पारसी' या 'ज़रथुष्ट्र' धर्म एकैकाधिदेववादी धर्म है, जिसका तात्पर्य यह है कि पारसी लोग एक ईश्वर 'अहुरमज्द' में आस्था रखते हुए भी अन्य देवताओं की सत्ता को नहीं नकारते। यद्यपि अहुरमज्द उनके सर्वोच्च देवता हैं, परन्तु दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व कर्मकांडों में 'अग्नि' उनके प्रमुख देवता के रूप में दृष्टिगत होते हैं। इसीलिए पारसियों को अग्निपूजक भी कहा जाता है। पारसियों की शव-विसर्जन विधि विलक्षण है। वे शवों को किसी ऊँची मीनार पर खुला छोड़ देते हैं, जहाँ गिद्ध-चील उसे नोंच-नांचकर खा जाते हैं। बाद में उसकी अस्थियाँ एकत्रित कर दफना दी जाती है। परन्तु हाल के वर्षों में इस परम्परा में कमी हो रही है और शव को सीधे दफनाया जा रहा है।

धर्मदीक्षा संस्कार

ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बियों के दो अत्यंत पवित्र चिह्न हैं- सदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा। धर्मदीक्षा संस्कार के रूप में ज़रथुष्ट्रधर्मी बालक तथा बालिका- दोनों को एक विशेष समारोह में ये पवित्र चिह्न दिये जाते हैं, जिन्हें वे आजीवन धारण करते हैं। मान्यता है कि इन्हें धारण करने से व्यक्ति दुष्प्रभावों और दुष्ट आत्माओं से सुरक्षित रह सकता है। विशेष आकृति वाली सदरों को निर्माण सफ़ेद सूती कपड़े के नौ टुकड़ों से किया जाता है। इसमें एक जेब होती है, जिसे 'किस्म-ए-कर्फ' कहते हैं। पवित्र धागा, जिसे 'कुश्ती' कहते हैं, ऊन के 72 धागों को बंटकर बनाते हैं और उसे कमर के चारों ओर बांध दिया जाता है, जिसमें दो गांठें सामने और दो गांठे पीछे बांधी जाती हैं।

ज़रथुष्ट्र धर्म की मान्यता

ज़रथुष्ट्र धर्म में दो शक्तियों की मान्यता है-

  • स्पेन्ता मैन्यू, जो विकास और प्रगति की शक्ति है और
  • अंग्र मैन्यू, जो विघटन और विनाशकारी शक्ति है।

ज़रथुष्ट्र धर्मावलम्बी सात देवदूतों (यज़त) की कल्पना करते हैं, जिनमें से प्रत्येक सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, अग्नि तथा सृष्टि के अन्य तत्वों पर शासन करते हैं। इनकी स्तुति करके लोग अहुरमज्द को भी प्रसन्न कर सकते हैं।

धर्मग्रंथ

पारसियों का प्रवित्र धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वेदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखी गई है। ईरान के सासानी काल में जेंद अवेस्ता का पहलवी भाषा में अनुवाद किया गया, जिसे 'पंजंद' कहा जाता है। परन्तु इस ग्रंथ का सिर्फ़ पाँचवा भाग ही आज उपलब्ध है। इस उपलब्ध ग्रंथ भाग को पांच भागों में बांटा गया है-

  1. यस्त्र (यज्ञ)- अनुष्ठानों एवं संस्कारों के मंत्रों का संग्रह,
  2. विसपराद- राक्षसों एवं पिशाचों को दूर रखने के नियम,
  3. यष्ट- पूजा-प्रार्थना,
  4. खोरदा अवेस्ता- दैनिक प्रार्थना पुस्तक,
  5. अमेश स्पेन्ता- यज़तों की स्तुति।

पारसी धर्म का विस्तार

ज़रथुस्त्र की मृत्यु के बाद (551 ई. पू.) उनकी शिक्षाएं धीरे-धीरे बैक्ट्रिया और फ़ारस में फैलीं। तीसरी सदी में फ़ारस में सासेनियाई राजवंश के उदय के साथ पारसी धर्म को मान्यता मिलने लगी और इसे देश का आधिकारिक धर्म बना दिया गया। इसके पुरोहितों के पास काफ़ी अधिकार आ गए; अवेस्ता का संकलन और अनुवाद स्थानीय भाषा पहलवी में किया गया।[1]

भारत आगमन

633 ई. में अरब मुसलमानों का आक्रमण शुरू होने पर इराक़ को और फिर 651 ई. में ईरान को जीत लिया गया। अग्नि मंदिर नष्ट किए गए, धार्मिक ग्रंथ जलाए गए और लोगों को बलपूर्वक धर्मांतरित किया गया। कई लोग भागकर रेगिस्तान या पहाड़ों में छिप गए। अन्य दक्षिण ईरान के प्राचीन राज्य पर्सिस[2] चले गए और वहां उन्होंने स्वयं को सुरक्षित कर लिया। कुछ अन्य हॉरमुज़ खाड़ी पर स्थित हॉरमुज़ तक पहुंच गए। वहां वे 100 साल रहे और गुप्त रूप से पालदार जहाज़ बनाते रहे। अंतत: वे जहाज़ से भारत रवाना हुए और गुजरात में काठियावाड़ के सिरे पर मछुआरों के दिऊ गांव पहुंचे। भारतीय पारसी इन्हीं प्रारंभिक बसने वालों के वंशज हैं।

'पारसी' शब्द का अर्थ 'पर्सिस से आया व्यक्ति है'। 'पारसीपन' या 'पारसीवाद' का ज़िक्र धर्म के लिए नहीं, बल्कि विशिष्ट पारसी लोकोक्तियों, व्यवहार-वैचित्र्य, प्रहसन और हास्य के लिए होता है। भारत में पारसियों का एक छोटा समुदाय है, उनकी संख्या घट रही है। वे मुख्य रूप से पश्चिमी तट, कोलकाता (भूतपूर्व कलकत्ता), चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) और दिल्ली में रहते हैं। इसके विपरीत 19वीं सदी के मध्य में ईरान से भारत आए ज़रथुस्त्री (पारसी) एक बढ़ता हुआ समुदाय है। दोनों समूह पारसी अग्नि मंदिरों में पूजा करते हैं और पारसी धर्म के रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।

नवजोत, सुद्रेह और कुस्ति

ये धर्म की पर्यावरणीय चेतना को मूर्त रूप देने वाले समारोह हैं। ये पृथ्वी के चतुर्थांशों को आहुतियों से लेकर व्यापक 'यस्ना' समारोह तक, मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच अंतर्संबंध के संपूर्णतावादी दृष्टिकोण को प्रदर्शित करते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण समारोह 'नवजोत' (धर्म में दीक्षा) है। पारसी माता-पिता से पैदा होने के बावजूद बच्चे को पारसी बनाने के लिए स्वयं धर्म चुनना और इस पर क़ायम रहना ज़रूरी हैं। प्राचीन ईरान की तरह आज भी बच्चे के 15 वर्ष का होने पर नवजोत आयोजित किया जाता है। नवजोत समारोह में बच्चे को पवित्र क़मीज़ 'सुद्रेह' और पवित्र करधनी 'कुस्ति' से पहनाए जाते हैं। कमीज़ को 'वोहु मानिक' वस्त्र, यानी अच्छे मन का वस्त्र कहा जाता है। कुस्ति को अच्छी ऊन के 72 धागों से बुनकर बनाया जाता है, जो यस्ना के 72 अध्यायों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिरे पर के फुंदने ऊन के 24 धागों से बुने जाते हैं। ये विस्पेरद के 24 अध्यायों के प्रतीक हैं। कुस्ति उत्तम धर्म का प्रतीक है। सुद्रेह धर्म के सफ़ेद रंग का होता है और सूत का बना होता है।[1]

तस्मे वाला सुद्रेह 19वीं सदी में प्रचलन में आया था। इसकी विशेषता अंग्रेज़ी के 'वी' आकार के गले के नीचे स्थित छोटा 'किस्सेह-इ-कर्फ़ेह' या 'गरेबां'[3] है, जिसमें पीछे फांक होती है। गरेबां पारसियों को याद दिलाता है कि अहुर मज़्दा की अच्छाई की तुलना में मानवीय प्रयास अत्यंत छोटे हैं। गरेबां को अच्छे कर्मों से भरा जाना चाहिए और हर रात अहुर मज़्दा की कृपा के लिए उनके सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। गले के पीछे एक और छोटी ज़ेब होती है, जो 'गर्द्यू' (गिर्दो) कहलाती है। प्रतीकात्मक रूप से इसमें धारक की उपलब्धियां होती हैं। 'तिरि' कहलाने वाले तीन धागे सुद्रेह के दाएं हाथ के निचले कोने पर त्रिकोण में सिले होते हैं, जो धर्म के आदर्श वाक्य- "अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कार्य" का प्रतिनिधित्व करते है। कुस्ति को विशेष प्रार्थना के साथ कमर पर बांधते हैं, जिसमें गाथाओं के दो भजन शामिल हैं। सुद्रेह और कुस्ति को जीवन भर पहनना होता है। मृत्यु के समय भी शव के लिए नया सुद्रेह उपलब्ध न हो पाने की स्थिति में पुराने फटे हुए सुद्रेह में लपेटा जाता है।

भारतीय सार्वजनिक जीवन में पारसियों का योगदान

हालांकि भारत और ईरान के बीच व्यापार संबंध और राजनैतिक संपर्क आरंभिक काल से रहे हैं, भारत में पारसी आठवीं से दसवीं सदी के दौरान आकर बसे, जबकि ईरानी लगभग 19वीं सदी के मध्य में यहाँ पहुंचे। ईरानियों ने चाय की छोटी दुकानें खोलकर मामूली शुरुआत की। इसके बाद कृषि व औषधि क्षेत्र में प्रवेश किया और आज यह एक फलता-फूलता समुदाय है। पारसियों ने नारियल और ताड़ के पेड़ उगाने वाले फल उत्पादक और कृषकों के रूप में शुरुआत की और फिर बड़े व्यवसायों में आ गए। सूरत के 'वाडिया परिवार' ने जहाज़-निर्माण के रूप में नाम कमाया और शाही नौसैना को युद्ध पोतों की आपूर्ति की। इस परिवार के एक सदस्य अर्देशिर कर्सेतजी वाडिया (1808-77) ने युद्ध पोतों में भाप के इंजन का पहली बार इस्तेमाल किया और बंबई (वर्तमान मुंबई) में गैस से रोशनी की भी शुरुआत की। वह 'रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन' द्वारा 1941 में सदस्य चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।

तीन पारसियों ने भारतीय राजनीति में विशेष रूप से ख्याति प्राप्त की। दादाभाई नौरोजी (1825-1917), फ़िरोजशाह मेहता (1845-1915) और दिनशॉ वाचा। वाणिज्य और उद्योग के क्षेत्र में जमशेदजी नौशेरवानजी टाटा (1839-1904) का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने भारत के लौह और इस्पात उद्योग की आधारशिला रखी। लोनावला में पनबिजली परियोजना स्थापित की और बंगलोर में 'भारतीय विज्ञान संस्थान' की स्थापना के लिए वह उत्तरदायी थे, हालांकि यह उनकी मृत्यु के बाद स्थापित किया गया था। 'टाटा परिवार' के वंशज जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा ने 1932 में 'टाटा एयरलाइंस' के साथ देश भर में नागरिक उड्डयन की शुरुआत की, जो बाद में विकसित होकर 'एंडियन एयरलाइंस' और 'एयर एंडिया इंटरनेशनल' में बदल गया। दोनों का 1953 में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। कला के क्षेत्र में जुबिन मेहता अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संगीत संचालक हैं। जहांगीर सबाला के चित्रों को व्यापक मान्यता मिली है और पीनाज़ मसानी गज़ल गायन के लिए प्रसिद्ध हैं। अबन ई. मिस्त्री प्रथम प्रसिद्ध पारसी तबला वादक हैं।[1]

एक अन्य पारसी होमी जहांगीर भाभा (1909-1966) अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त परमाणु वैज्ञानिक थे। 1941 में 31 वर्ष की उम्र में वह 'रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन' के फ़ेलो चुने गए थे। वह 'टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च' और 'भारतीय परमाणु आयोग' के संस्थापक थे। उनके समकालीन दाराशॉ वाडिया (1883-1969) भूगर्भशास्त्र के प्रवर्तक थे, जिन्होंने हिमालय की प्रमुख श्रेणियों का मानचित्रण किया। इस दौरान क़ीमती पत्थर 'लहसुनिया' (बेरिल) भी खोज निकाला। नानाभाई अर्देशर मूस (1859-1936) विद्युत चुंबकत्व के क्षेत्र में अग्रणी थे और उन्होंने भारत की दो प्रयोगशालाएं स्थापित कीं, जो अब 'भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान'[4] का हिस्सा हैं।

औषधि के क्षेत्र में जाल कावशॉ पेमास्तर (1908-1980) ने कैंसर अनुसंधान में उत्कृष्ट कार्य किया। 1959 में 'भारत सरकार' ने उन्हें मुंह और ग्रसनी के कैंसर के रोग विज्ञान के क्षेत्र में अग्रगामी कार्य तथा उनके इलाज के लिए साधारण तकनीक विकसित करने के लिए 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। हृदय रोग विज्ञान में रुस्तम जाल वकील (1911-1974) का काम भी उल्लेखनीय है। नेत्ररोग विज्ञान में जमशेदजी नौसेरवानजी दुग्गन (1884-1958) अग्रणी थे, जिस तरह दिल्ली में 'श्रॉफ़ नेत्र अस्पताल' के संस्थापक सोराबजी पी. श्रॉफ़ (1878-1964) रहे। 1914 में स्थापित यह अस्पताल दक्षिण-पूर्व एशिया में कई वर्षों तक अपनी तरह का एक ही अस्पताल रहा।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 224 |
  2. अब फ़ार्स कहलाने वाला क्षेत्र
  3. सद्कर्मों की ज़ेब
  4. एंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ जियोमैग्नेटिज़्म

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