पारिजात षष्ठ सर्ग

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पारिजात षष्ठ सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग षष्ठ_सर्ग
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पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

दृश्यजगत्

वसुन्धारा

(1)

प्रकृति-बधूटी केलि-निरत थी काल अंक था कलित हुआ।
तिमिर कलेवर बदल रहा था, लोकालय था ललित हुआ।
ज्योतिर्मण्डित पिंड अनेकों नभ-मंडल में फिरते थे।
सृजन वारिनिधिक-मध्य बुद्बुदों के समूह-से तिरते थे॥1॥

लाख-लाख कोसों में फैले रंग-बिरंगे बहु गोले।
जाते थे छवि-दिव्य-तुला पर कल कौतुक-कर से तोले।
उछल-उछल थे छटा दिखाते कान्तिमयी किरणों को ले।
फिरते थे आलात-चक्र-से विस्फुलिंग छिटकाते थे।
कभी टूटकर हो सहस्रधा नाना लोक बनाते थे॥2॥

लीला-निलय सकल नभतल था नव-नव ज्योति-निकेतन था।
नीहारिका अनन्त करों में दिव-पिंडों का केतन था।
काल अलौकिक कृति-स्वरूपिणी भूतिमयी बहु बालाएँ।
डाल रही थीं कला-कंठ में उडु-अवली की मालाएँ॥3॥

होती थी जिस काल यह क्रिया किसी कल्प में उसी समय।
प्रकृति-अंक में दिखलाई दी वसुधा विपुल विभूति-निलय।
निधिक के लघुतम एक लहर-सी नभ में उसकी सत्ता थी।
परम विशाल विश्व-वट-तरु की वह अतीव लघु पत्ताक थी॥4॥

बहुत दिनों तक तिमिर-पुंज में उसने कई खेल खेले।
कीं कितनी कमनीय कलाएँ कान्तिमयी किरणें ले-ले।
अजब छटा उस काल दिखाती थीं अति दिव्य दिशाएँ बन।
विविध रत्न से खचित हुआ था उनका कनकाभांकित तन॥5॥

बहुत काल तक उसके चारों ओर घोर तम था छाया।
पुंजीभूत तिमिर-दानव-तन में अन्तर्हित थी काया।
जिस दिन तिमिर-पटल का घूँघट गया प्रकृति-कर से टाला।
ज्योति-पुंज ने जिस दिन उसपर था अपना जादू डाला॥6॥

उसी दिव्य वासर को उसकी मिली दिव्यता थी ऐसी।
धीरे-धीरे सकल तारकावलि ने पाई थी जैसी।
हीरक के विलसित गोलक-सी वह उस काल दिखाती थी।
निर्मल नील गगन-तल में निज छटा दिखा छवि पाती थी॥7॥

फिर भी इतनी जलती थी, जल ठहर न उसमें पाता था।
उसके तन को छूते ही वह वाष्प-पुंज बन जाता था।
घूम-घूमकर काले-काले घन आ-आ घहराते थे।
बड़ी-बड़ी बूँदों से उसपर विपुल वारि बरसाते थे॥8॥

किन्तु बात कहते सारा जल छूमन्तर हो जाता था।
तप्त तवा के तोय-बिन्दु-सा अद्भुत दृश्य दिखाता था।
था उन दिनों मरुस्थल से भी नीरस सारा भू-मंडल।
परम अकान्त, अनुर्वर, धू-धू करता, पूरित बहु कश्मल॥9॥
यथा-काल फिर भू के तन में वांछित शीतलता आयी।
धीरे-धीरे सजला सुफला शस्य-श्यामला बन पायी॥10॥

उसके महाविशाल अंक में जलधिक विलसता दिखलाया।
जिसको अगम अगाधा सहस्रों कोसों में फैला पाया।
रत्न-राजि उत्ताकल तरंगें उसको अर्पित करती थीं।
माँग वसुमती-सी देवी की मुक्ताओं से भरती थीं॥11॥

नाना गिरि-समूह से कितने निर्झर थे झर-झर झरते।
दिखा विचित्र दृश्य नयनों को वे थे बहुत चकित करते।
होता था यह ज्ञात, बन गयी छलनी गिरि की काया है।
उससे जल पाताल का निकल धारा सींचने आया है॥12॥

बहुश: सरिताएँ दिखलाईं, मंद-मंद जो बहती थीं।
कर्ण-रसायन कल-कल रव कर मुग्ध बनाती रहती थीं।
वे विस्तृत भू-भाग लाभ कर फूली नहीं समाती थीं।
वसुधा को नाचती, थिरकती, गा-गा गीत रिझाती थीं॥13॥

हरी-भरी तृण-राजि मिल गये बनी हरितवसना बाला।
विपिनावलि से हुए भूषिता पाई उसने वन-माला।
नभ-तल-चुम्बी फल-दल-शोभी विविध पादपों के पाये।
विपुल पुलकिता हुई मेदिनी लतिकाओं के लहराये॥14॥

वह जिस काल त्रिकलोक-रंजिनी कुसुमावलि पाकर विलसी।
रंग-बिरंगी कलिकाओं को खिलते देख गयी खिल-सी।
पहनी उसने कलित कण्ठ में जब सुमनों की मालाएँ।
उसकी छटा देखने आयीं सारी सुरपुर-बालाएँ॥15॥

जिस दिन जल के जन्तु जन्म ले कलित केलि-रत दिखलाये।
जिस दिन गीत मछलियों के गौरव के साथ गये गाये।
जिस दिन जल के जीवों ने जगती-तल की रंगत बदली।
उसी दिवस से हुई विकसिता सजीवता की कान्त कली॥16॥

कभी नाचते, कभी कहीं करते कलोल पाये जाते।
कभी फुदकते, कभी बोलते, कभी कुतरकर कुछ खाते।
कभी विटप-डाली पर बैठे राग मनोहर थे गाते।
कभी विहंगम रंग-रंग के नभ में उड़ते दिखलाते॥17॥

वनचारी अनेक बन-बनकर वन में थे विहार करते।
गिरि की गोद बड़े गौरव से सा गिरिवासी भरते।
इने-गिने थे कहीं, कहीं पर बहुधा तन से तन छिलते।
जल में, थल में, जहाँ देखिये वहाँ जीव अब थे मिलते॥18॥

रचना हुए सकल जीवों की एक मूर्ति सम्मुख आयी।
अपने साथ अलौकिक प्रतिभा जो भूतल में थी लाई।
था कपाल उसका जगती-तल के कमाल तरु का थाला।
उसका हृदय मनोज्ञ भावना सरस सुधा का था प्यारेला॥19॥

उसने परम रुचिर रचना कर भू को स्वर्ग बनाया है।
अमरावती-समान मनोहर सुन्दर नगर बसाया है।
है उसका साहस असीम उसकी करतूत निराली है।
वसुधा-तल-वैभव-ताला की उसके कर में ताली है॥20॥

मानव ने ऐसे महान अद्भुत मन्दिर हैं रच डाले।
ऐसे कार्य किये हैं जो हैं परम चकित करनेवाले।
ऐसे-ऐसे दिव्य बीज वह विज्ञानों के बोता है।
देख सहस्र दृगों से जिनको सुरपति विस्मित होता है॥21॥

आज बहु विमोहिनी धारा है वारिधिक-वारि-विलसिता है।
विपिन-राजि-राजिता कुसुमिता आलोकिता विकसिता है।
नगरावली विभूति-शोभिता कान्त कला-आकलिता है।
जन-कोलाहलमयी लोक की लीलाओं से ललिता है॥22॥

दिन है दिव्य, रात आलोकित, दिशा दमकती रहती है।
रस की धारा बड़े वेग से उमड़-उमड़कर बहती है।
सुख नर्त्तन करता रहता है मत्त विनोद दिखाता है।
आती हैं झूमती उमंगें, मन पारस बन पाता है॥23॥

आज हुन बरसता है, छूते मिट्टी सोना बनती है।
जन-जीवनदायिनी जीवनी-धारा मरु-महि जनती है।
नभ-मंडल में उड़ पाते हैं घन-माला दम भरती है।
बनी कामिनी-सी गृहदासी कहा दामिनी करती है॥24॥

अवसर पाकर के वसंत अपना वैभव दिखलाता है।
फूल-फूल में हँसता कलियों को विकसाता आता है।
दिन में आ करके सहस्र-कर निज दिव्यता दिखाता है।
रजनी में रजनी-रंजन हँस सरस सुधा बरसाता है॥25॥

महनीया महि

(2)

वसुंधा! बतला दो हमको, क्यों चक्कर में रहती हो।
नहीं साँस लेने पाती हो, बहुत साँसतें सहती हो।
कौन-सी लगन तुम्हें लग गयी या कि लाग में आयी हो।
किसने तुम्हें बेतरह फाँसा, किससे गयी सताई हो॥1॥

ऑंख जो नहीं लग पाई तो ऑंख क्यों न लग पाती है।
रात-रात-भर कौन वेदना तुमको जाग जगाती है।
नहीं पास जाने पाती हो, सदा दूर ही रहती हो।
खींच-तान में पड़कर फिर क्यों दुख-धारा में बहती हो॥2॥

रवि तुमको प्रकाश देता है, किरणें कान्त बनाती हैं।
जीवन-दान किया करती हैं, रस तुमपर बरसाती हैं।
प्यारे सुअन तुम्हा तरु हैं, दुहिताएँ लतिकाएँ हैं।
सा तृण वीरुधा तुमने ही करके यत्न जिलाएँ हैं॥3॥

किन्तु हाथ है इसमें रवि का, ये सब उसके हैं पाले।
होते जो न दिवाकर के कर, पड़ते जीवन के लाले।
जो मयंक अपना मंजुल मुख रजनी में दिखलाता है।
विहँस-विहँसकर कर पसार जो सदा सुधा बरसाता है॥4॥

जिसकी चारु चाँदनी तुमको महाचारुता देती है।
लिपट-लिपट जो सदा तुम्हा तापों को हर लेती है।
उसने भी कलनीय निज कला कमलबंधु से पाई है।
इसीलिए क्या रवि! कृतज्ञता तुममें अधिक समाई है॥5॥

ऐ कृतज्ञ-हृदय! परिक्रमा जो यों रवि की करती हो।
तो हो धान्य अपार कीत्तिक सा भुवनों में भरती हो।
यद्यपि रवि को इन बातों की थोड़ी भी परवाह नहीं।
जो तुम करती हो रत्ताी-भर उसकी उसको चाह नहीं॥।6॥

वह महान है, बड़े-बड़े ग्रह उससे उपकृत होते हैं।
कविगुरु-जैसे उज्ज्वलतम बन अपने तम को खोते हैं।
वह है जनक सौरमंडल का उसका प्रकृत विधाता है।
उसके तिमिर-भ अन्तर की दिव्य ज्योति का दाता है॥7॥

वह सहस्र-कर रज-कण तक को किरणों से चमकाता है।
स्वार्थ-रहित हो तरुवर क्या तृण तक का जीवन-दाता है।
जड-जंगम का उपकारक है, तारकचय का पाता है।
सर्वभूत का हित-चिन्तक है, उसका सबसे नाता है॥8॥

करता है चुपचाप कौन हित, निस्पृह कौन दिखाता है।
ढँपा हुआ उपकार खोल करके दिखलाया जाता है।
उचित जानकर उचित हुआ कब उचित न उचित पिपासाहै।
है संसार स्वार्थ का पुतला, प्रेम प्रेम का प्यारेसा है॥9॥

सह साँसत कर्तव्य-बुध्दि से बँधा कृतज्ञता-बंधन में।
दिन-मणि की अज्ञात दशा में कोई स्वार्थ न रख मन में।
जो करती हो उसे देख यह कहती है मति कमनीया।
हों रवि महामहिम वसुंधा! पर तुम भी हो महनीया॥10॥

विचित्र वसुमती

(3)

मणि-मंडित मुकुटावलि-शोभित अचल हिमाचल-से गिरिचय।
किसपर हैं प्रति वासर लसते बनकर विविध विभूति-निलय।
किस पर नभ-सा वर वितान सब काल तना दिखलाता है।
जिसको रजनी में रजनीपति बहुरंजित कर पाता है॥1॥

खिलती आकर अरुण-कान में बात अनूठी कहती है।
प्रात:काल रंगिणी ऊषा किसको रँगती रहती है।
अगणित सरिता-सर-समूह में मंजुल मणियाँ भरती हैं।
किसमें प्रति दिन रवि अनन्त किरणें क्रीड़ाएँ करती हैं॥2॥

किसके सब जलाशयों में पड़ घन श्यामल तन की छाया।
यों लसती है क्षीरसिंधु में ज्यों कमलापति की काया।
हरित छटा अवलोक सरस बन घि घूमते आते हैं।
साधा-भरों की सुधा कर किसपर जलद सुधा बरसाते हैं॥3॥

दिन में किसका रवि सहस्र कर से आलिंगन करता है।
निशा में निशा-नायक किसकी नस-नस में रस भरता है।
ऑंखें फाड़-फाड़ किसको अवलोकन करते हैं ता।
करके जीवन-दान वारिधार बनते हैं किसके प्यारे॥4॥

सदा समीर प्यारे से किसको पंखा झलता रहता है।
हिला-हिला लतिका-समूह को सुरभित बनकर बहता है।
कीचक-छिद्रों में प्रवेश कर गीत मनोहर गाता है।
विकसित कर अनन्त कलियों को किसको बहुत रिझाता है॥5॥

किसके बहु श्यामायमान वन बन-ठन छटा दिखाते हैं।
नन्दन-वन-समान सब उपवन किसकी बात बनाते हैं।
किसके ह-भ ऊँचे तरु नभ से बातें करते हैं।
कलित किसलयों से लसते हैं, भूरि फलों से भरते है॥6॥

किसकी कलित-भूत लतिकाएँ करती कान्त कलाएँ हैं।
खिला-खिला करके दिल किसकी खिल उठती कलिकाएँ हैं।
किसके सुमन-समूह विकसकर सुमनस-मन को हरते हैं।
सरस सुरभि से भर-भरकर सुरभित दिगन्त को करते हैं॥7॥

आ करके वसंत किसको अनुपम हरियाली देता है।
जन-जन के मन तरु-तन तक को बहु रसमय कर लेता है।
डाल कंठ में विपुल प्रफुल्ल प्रसूनों की मंजुल माला।
किसे पिलाता है सुरपुर की पूत सुरा-पूरित प्यारेला॥8॥

शस्यश्यामला कौन कहाई, रत्न-भरा है किसका तन।
किसमें गड़ा हुआ है वसुधा के अनेक धनदों का धन।
किसकी रज में परम अकिंचन जन कद्बचन पा जाते हैं।
किसके मलिन कारबन कानों में ही मिल पाते हैं॥9॥

सुन्दर तल पर रजत-लीक-सी पल-पल खींचा करती हैं।
किसको सदा सहस्रों नदियाँ जल से सींचा करती हैं।
हैं हीरक-नग-जटित बनाते किसके तन को सब सरवर।
हैं मुक्ता-समूह बरसाते किसपर प्रति वासर निर्झर॥10॥

किसमें कनक-समान कान्तिमय कितने धातु विलसते हैं।
जो कमनीय कामिनी-से ही मानव-मन में बसते हैं।
पारद-सी अपार उपकारक तथा डियम-सी न्यारी।
किसमें है विभूति दिखलाती चित्रा-विचित्र चकितकारी॥11॥

आठ पहर जिनमें सब दिन सोना ही बरसा करता है।
अवलोके जिनकी विभूतियाँ सुरपति तरसा करता है।
रजनी में बहु बिजली-दीपक जिनको दिव्य बनाते हैं।
ऐसे अमरावती-विमोहक नगर कहाँ हम पाते हैं॥12॥

जो है विपुल विभूति-निकेतन रत्नाकर कहलाता है।
नर्त्तन करता है विमुग्ध बन कल-कल नाद सुनाता है।
जो है बहु विचित्रता-संकुल दिव्य दृश्य का धाता है।
किसपर वह उत्ताकल-तरंगाकुल समुद्र लहराता है॥13॥

किसकी हैं विभूतियाँ ऐसी, किसके वैभव ऐसे हैं।
क्यों बतालाऊँ किसी सिध्दि के साधन उसके कैसे हैं।
किसके दिव्य दिवस हैं इतने, इतनी सुन्दर रातें हैं।
बहु विचित्रताओं से विलसित वसुंधरा की बातें हैं॥14॥

क्षमामयी क्षमा

(4)

हैं अनेक गुण तुममें वसुधो! किन्तु क्षमा-गुण है ऐसा।
समय-नयन ने कहीं नहीं अवलोकन कर पाया जैसा।
पद-प्रहार सहती रहती हो, बहु अपमानित होती हो।
नाना दुख भोगती सदा हो, सुख से कभी न सोती हो॥1॥

तुमपर वज्रपात होता है, पत्थर हैं पड़ते रहते।
अग्निदेव भी गात तुम्हारा प्राय: हैं दहते रहते।
सदा पीटते हैं दंडों से, सब दिन खोदा करते हैं।
अवसर पाये तुम्हें बेधा देते जन, अल्प न डरते हैं॥2॥

पेट चीरकर लोग तुम्हा अन्तर्धान को हरते हैं।
सा जीव-जन्तु निज मल से मलिन पूत तन करते हैं।
नींव डालकर, नहर खोद, नर नित्य वेदना देते हैं।
खानें बना-बनाकर गहरी, दिव्य रत्न हर लेते हैं॥3॥

बड़े-बड़े बहु विवर तुम्हा तन में साँप बनाते हैं।
माँद विरचकर मंद जीव अपनी मंदता दिखाते हैं।
बहुधा उर विदारकर बहु वापिका सरोवर बनते हैं।
छेद-छेदकर तव छाती नर कूप सहस्रों खनते हैं॥4॥

बेधा-बेधाकर हृदय बहुत लाइनें निकाली जाती हैं।
दलती मूँग तुम्हारी छाती पर लें दिखलाती हैं।
काले क्वैले के निमित्त बहु गत्ता बनाये जाते हैं।
जिनसे मीलों अंग तुम्हा कालिख-पुते दिखाते हैं॥5॥

ह-भ कुसुमित फल-विलसित नयन-विमोहन बहु-सुन्दर।
नव तृण श्यामल शस्य सरसतम लतिकाएँ अनुपम तरुवर।
जिनका बड़े प्रेम से प्रति दिन तुम प्रतिपालन करती हो।
जिनके तन में, दल में, फल में पल-पल प्रिय रस भरती हो॥6॥

वे हैं अनुदिन नोचे जाते, कटते-पिटते रहते हैं।
निर्दय मानव के हाथों से बड़ी यातना सहते हैं।
फिर भी कभी तुम्हा तेवर बदले नहीं दिखाते हैं।
देती हो तुम त्राकण सभी को, सब तुमसे सुख पाते हैं॥7॥

वे अति सुन्दर नगर जहाँ सुषमाएँ नर्त्तन करती हैं।
जहाँ रमा वैकुण्ठ छोड़कर प्रमुदित बनी विचरती हैं।
सकल स्वर्ग-सुख पाँव तोड़कर बैठे जहाँ दिखाते हैं।
जिनको धन-जनपूर्ण स्वर्ण-मन्दिर से सज्जित पाते हैं॥8॥

ज्वालामुखी उगल ज्वालाएँ उन्हें भस्म कर देता है।
उनको बना भूतिमय उनकी वर विभूति हर लेता है।
पलक मारते तव तन-भूषण मिट्टी में मिल जाते हैं।
फिर भी ये विधवंसक तुममे धाँसते नहीं दिखाते हैं॥9॥

बड़े-बड़े बहु धन-जन-संकुल सुन्दर-सुन्दर देश कई।
जो थे भूति-निकेतन, सुरपुर तक थी जिनकी कीत्तिक गयी।
जो चिरकाल तुम्हा पावन-भूत अंक में पल पाये।
तुम्हें गौरवित करके गौरव-गीत गये जिनके गाये॥10॥

वे हैं कहाँ, उदधिक कितनों को प्राय: निगला करता है।
उसका पेट, पेट में ऐसे देशों को रख, भरता है।
फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥

तप से रीझ देवता बनता है वांछित फल का दाता।
अपराधी का भी हित करते तुमको है देखा जाता।
इसीलिए है क्षमा तुम्हारा नाम और तुम हो भारी।
धा! कहाँ तक कहें तुम्हारी क्षमाशीलता है न्यारी॥12॥

विकंपित वसुंधरा

(5)

वसुंधरा ! यह बतला दो तुम, क्यों तन कम्पित होता है।
क्यों अनर्थ का बीज लोक में कोप तुम्हारा बोता है।
माता कहलाती हो तो किसलिए विमाता बनती हो।
पूत पूत है, सब पूतों को तुम्हीं क्या नहीं जनती हो॥1॥

पूत कुपूत बने, पर माता नहीं कुमाता होती है।
अवलोकन कर व्यथा सुतों की बिलख-बिलख वह रोती है।
फिर किसलिए कुपित होकर तुम महा गर्जना करती हो।
भूरि भीति किसलिए भयातुर प्राणिपुंज में भरती हो॥2॥

क्यों पल में अपार क्रन्दन-रव घर-घर-में भर जाता है।
कोलाहल होने लगता है, हा-हाकार सुनाता है।
दीवारें गिरने लगती हैं, सदन भू-पतित होते हैं।
गेहदशा अवलोक सैकड़ों दुखी खड़े दुख-रोते हैं॥3॥

कितने छत के टूट पड़े अपने प्रिय प्राण गँवाते हैं।
कितने दबकर, कितने पिसकर मिट्टी में मिल जाते हैं।
अंग भंग हो गये अनेकों आहें भरते मिलते हैं।
भय से हो अभिभूत सैकड़ों चल दल-दल-से हिलते हैं॥4॥

कितने भाग खड़े होते हैं, तो भी प्राण न बचते हैं।
कितने अपनी चिता बहँक अपने हाथों से रचते हैं।
कितने धन के, कितने जन के लिए कलपते फिरते हैं।
कितने सब-कुछ गँवा प्रबलतम दुख-समूह से घिरते हैं॥5॥

कितने चले रसातल जाते हैं, कितने धाँसे जाते हैं।
कितने निकली सबल सलिल-धारा में बहे दिखाते हैं।
बनते हैं धन-जन-विहीन वांछित विभूतियाँ खोते हैं।
नगर-निकर हैं नगर न रहते,धवंस ग्राम पुर होते हैं॥6॥

जल से थल, थल से जल बन बहु परिर्वत्तन हो जाते हैं।
कतिपय पल में ही ये सा प्रलय-दृश्य दिखलाते हैं।
कैसी है यह वज्र-हृदयता? क्यों तुम इतनी निर्मम हो।
क्यों संहार मुर्ति धारण कर बनती तुम कृतान्त-सम हो॥7॥

क्यों इतनी दुरन्तता-प्रिय हो, क्या न क्षमा कहलाती हो।
क्या तुम किसी महान शक्ति-बल से विवशा बन जाती हो।
यह सुनते हैं, शेषनाग के शिर पर वास तुम्हारा है।
क्या उसके विकराल विष-वमन का प्रपंच यह सारा है॥8॥

या सहस्र-फण-फूत्कार से जब बहु कम्पित होती हो।
तब सुधा-बुध खोकर विपत्तिक के बीज अचानक बोती हो।
या पुराण ने जिसकी गौरवमय गुणावली गाई है।
उस कच्छप की कठिन पीठ से तुम्हें मिली कठिनाई है॥9॥

या जिसके अतुलित बल से दानवता दलित दिखाती है।
उस वाराह-दशन से तुमको दंशनता मिल पाती है।
या भगवति वसुंधा! भव में वैसी ही तव लीला है।
जैसी प्रकृति अकोमल-कोमल अकरुण करुणाशीला है॥10॥

विभूतिमयी वसुधा

(6)

जब सहस्रकर छ महिने का दिवस दिखा छिप जाता है।
तब आरंजित क्षितिज अलौकिक दृश्य सामने लाता है।
उसकी ललित लालिमा संध्या-कलित-करों से लालित हो।
प्रगतिशील पल-पल बन-बन कनकाभा से प्रतिपालित हो॥1॥

रंग-बिरंगे लाल नील सित पीत बैंगनी बहु गोले।
है उछालने लगती क्षण-क्षण क्षिति-विमोहिनी छवि को ले।
उधार गगन में तरह-तरह के ता रंग दिखाते हैं।
बार-बार जगमगा-जगमगा अपनी ज्योति जगाते हैं॥2॥

इधार क्षितिज से निकले गोले ऊपर उठ-उठ खिलते हैं।
उल्कापात-समान विभाएँ भू में भरते मिलते हैं।
यों छ मास का तम करके कमनीय कलाएँ खोती है।
धारुव-प्रदेश की रजनी अतिशय मनोरंजिनी होती है॥3॥

हरे-भरे मैदान कनाडा के मीलों में फैले हैं।
जो हरियाली-छटा-वधू के परम छबीले छैले हैं।
जिनकी शस्य-विभूति सहज श्यामलता की पत रखती है।
जिनमें प्रकृति बैठ प्राय: निज उत्फुल्लता परखती है॥4॥

रंग-बिरंगे तृण-समूह से सज वे जैसे लसते हैं।
विपुल सुविकसित कुसुमावलि के मिस वे जैसे हँसते हैं।
वायु मिले वे हरीतिमा के जैसे नृत्य दिखाते हैं।
वैसे दृश्य कहाँ पर लोचन अवलोकन कर पाते हैं॥5॥

अमरीका है परम मनोहर, स्वर्ग-लोक-सा सुन्दर है।
जिसकी विपुल विभूति विलोके बनता चकित पुरन्दर है।
उसके विद्युद्दीप-विमण्डित नगर दिव्य द्युतिवाले हैं।
जिनके गगन-विचुम्बी सत्तार खन के सदन निराले हैं॥6॥

उनके कलित कलस दिनमणि को भी मलीन कर देते हैं।
दिखा-दिखा निज छटा क्षपाकर की छवि छीने लेते हैं।
उसका एक प्रताप जल-पतन का वह समाँ दिखाता है।
जिसपर मत्त प्रमोद रीझ मुक्तावलि सदा लुटाता है॥7॥

उसके विविध अलौकिक कल कुछ ऐसी कला दिखाते हैं।
जिन्हें विलोक विश्वकर्मा के कौशल भूले जाते हैं।
कितने आविष्कार हुए हैं उसमें ऐसे लोकोत्तर।
जिससे सारा देश गया है बहु अमूल्य मणियों से भर॥8॥

यूरप में अति रम्य रमा की मूर्ति रमी दिखलाती है।
विलस अंक में उसके विभुता मंद-मंद मुसकाती है।
प्राय: श्वेत गात के मानव उसमें लसते मिलते हैं।
सुन्दरता की कलित कुंज में ललित कुसुम-से खिलते हैं॥9॥

पारसता पैरिस-समान नगरों में पाई जाती है।
लंदन में नन्दनवन-सी अभिनन्दनता छवि पाती है।
प्रकृति-सुन्दरी सदा जहाँ निज प्रकृत रूप दिखलाती है।
स्विटजरलैण्ड-मेदिनी वैसी प्रमोदिनी कहलाती है॥10॥

विविध भाँति की बहु विद्याएँ श्रम-संकलित कलाएँ कुल।
हैं उसको गौरवित बनाते कौशल-वलित अनेकों पुल।
सुर-समूह को कीत्तिक-कथाएँ उड़ नभ-यान सुनाते हैं।
विहर-विहर जलयान जलधिक में गौरव-गाथा गाते हैं॥11॥

अफरीका के नाना कानन कौतुक-सदन निराले हैं।
उसने अपनी पशुशाला में बहु विचित्र पशु पाले हैं।
जैसे अद्भुत जीव-जन्तु खग-मृग उसमें दिखलाते हैं।
वैसे कहाँ दूस देशों के विपिनों में पाते हैं॥12॥

शीतल मधुर सलिल से विलसित कल-कल रव करनेवाली।
विपुल मंजु जलयान-वाहिनी बहु मनोहरा मतवाली।
ह-भ रस-सिक्त कूल के कान्त अंक में लहराई।
नील-समान सरसतम सुन्दर सरिता है उसने पाई॥13॥

जिनमें कई सहस्र साल के शव रक्षित दिखलाते हैं।
ज्यों-के-त्यों सउपस्कर जिनको देख दिल दहल जाते हैं।
जिनकी बहु विशाल रचना-विधिक बुधजन समझ न पाते हैं।
परम विचित्र पिरामिड उसके किसे न चकित बनाते हैं॥14॥

क्या हैं ये उत्तांग पिरामिड, कैसे गये बनाये हैं।
गिरि-से प्रस्तर-खंड किस तरह ऊपर गये उठाये हैं।
किस महान कौशल के बल से विरचित उनकी काया है।
क्या यह मायिक मिश्र-नगर के मय-दानव की माया है॥15॥

वह सभ्यता, पिरामिड पर हैं जिसकी छाप लगी पाते।
वह पदार्थ जिससे सहस्र वत्सर तक हैं शव रह जाते।
कब थी? मिला कहाँ पर कैसे? कौन इसे बतलावेगा।
कोई विबुध कभी इस मसले को क्या हल कर पावेगा॥16॥

है एशिया महा महिमामय उसमें भरी महत्ता है।
वन्दनीय वेदों से उसको मिली सात्तिवकी सत्ता है।
महा तिमिर जिस काल सकल अवनी-मंडल में छाया था।
मिले ज्ञान-आलोक तभी वह आलोकित हो पाया था॥17॥

भारत ही ने प्रथम भारती की आरती उतारी है।
उसने ही उर-अंधकार में अवगति-ज्योति पसारी है।
वह है वह सर जिससे निकले सब धर्मों के सोते हैं।
वह है वह जल जिसके बल से सकल पाप मल धोते हैं॥18॥

कहाँ हिमाचल-मलयाचल-से अद्भुत अचल दिखाते हैं।
पतित-पावनी सुर-सरिता-सी सरिता कहीं न पाते हैं।
नयन-रसायन कान्त-कलेवर कुसुमित कुसुमाकर प्यारा।
है कश्मीर अपर सुर-उपवन सुधासिक्त छवि नभ-तारा॥19॥

मानसरोवर के समान सर किसे कहाँ मिल पाया है।
जिसका शतदल अमल कमल जातीय पुष्प कहलाया है।
नीर-क्षीर-सुविवेक-निपुण बहु हंस जहाँ मिल पाते हैं।
मचल-मचल मोती चुगते हैं, चल-चल चित्त चुराते हैं॥20॥

जिसके कनक-विमंडित मठ हैं, जिसमें भूति विलसती है।
रमा जहाँ के लामाओं के वदन विलोक विहँसती है।
जिसके गिरि का हिम-समूह बन हेम बहुत छवि पाता है।
उस तिब्बत के वैभव-सा किसका वैभव दिखलाता है॥21॥

चीन बहुत प्राचीन काल से चिन्तनीय बन पाया है।
उसकी भूतल-भूति भित्तिक का भूरि प्रभाव दिखाया है।
उसका बहु विस्तार बहुलता अवलोके जनसंख्या की।
है विचित्र संसार-मूर्ति की दिखलाती अद्भुत झाँकी॥22॥

है एशिया-खंड का उपवन कुसुमावलि से विलसित है।
राका-राशि से कान्त नृपति की कीत्तिक-कौमुदी से सित है।
रसिक जनों का वृन्दावन है, बुधजन-वृन्द बनारस है।
फारस का भू-भाग गौरवित आर्र्य-वंश का पारस है॥23॥

जिसने अंधकारमय अवनी को आलोकित कर डाला।
जिसने तन का, मन का, जन-जन के नयनों का तम टाला।
जो पच्चीस करोड़ मुसलमानों का भाग्य-विधाता है।
अरब-धारा उस परम पुरुष के पैगम्बर की माता है॥24॥

काकेशस-प्रदेश की सारी सुषमा सुन्दरता न्यारी।
कुस्तुनतुनिया का वैभव वर मसजिद की पच्चीकारी।
टरकी की वीरता-धीरता परिवर्त्तन-गति की बातें।
हैं रंजिनी बनी हैं जिनसे उज्ज्वलतम काली रातें॥25॥

जिसके दिव्य अंक में जनमा वह मरियम का सुत प्यारा।
जिसकी ज्योति लाभ करके जगमगा उठा योरप सारा।
दे-दे ख्याति कीत्तिक-मंदिर में उसकी मूर्ति बिठाती हैं।
फिलस्तीन की बातें उसको महिमामय बतलती हैं॥26॥

देश-प्रदेश प्रायद्वीपों द्वीपों से भरी दिखाती है।
नगर-निकर नाना विभूति-वैभव से बहु छवि पाती है।
खेल-खेल वारिधिक-तरंग से रंग दिखाती बहुधा है।
चित्रिकत विविध चरित्रा-चित्रा से विचित्रतामय वसुधा है॥27॥

शार्दूल-विक्रीडित

(7)

कोई पावन पंथ का पथिक हो या हो महा पातकी।
कोई हो बुध वन्दनीय अथवा हो निन्दनीयाग्रणी।
कोई हो बहु आर्द्रचित्त अथवा संहार की मूर्ति हो।
योग्यायोग्य-विवेक है न रखती, है वीरभोग्या धारा॥1॥

जो देखे इतिहास-ग्रंथ कितने, बातें पुरानी सुनीं।
सा भारत के रहस्य समझे, रासो पढ़े सैकड़ों।
तो पाया कहते सहस्र मुख से संग्राम-मर्मज्ञ को।
वे थे भू-अनुरक्त हाथ जिनके आरक्त थे रक्त से॥2॥

भूलेगा धन से भ भवन को भाये हुए भोग को।
भ्राता को, सुत को, पिता प्रभृति को, भामा-मुखाम्भोज को।
भावों की अनुभूति को, विभव को, भूतेश की भक्ति को।
भू-स्वामी सब भूल जाय उसको, भू भूल पाती नहीं॥3॥

आरक्ता कलिकाल-मूर्ति कुटिला काली करालानना।
भूखी मानव-मांस की भय-भरी आतंक-आपूरिता।
उन्मत्ताक करुणा-दया-विरहिता अत्यन्त उत्तोजिता।
लोहू से रह लाल है लपकती भू-लाभ की लालसा॥4॥

देशों की, पुर-ग्राम की, नगर की देखे बड़ी दुर्दशा।
पाते हैं उसको महा पुलकिता काटे गला कोटिश:।
लीलाएँ अवलोक के प्रलय की है हर्ष होता उसे।
पी-पी प्राणिसमूह-रक्त महि की है दूर होती तृषा॥5॥

हैं सा पुर ग्राम धाम जलते, हैं दग्धा होते गृही।
है नाना नगरी विभूति बनती वर्षा हुए अग्नि की।
भू! ते अविवेक का कुफल है या है क्षमाशीलता।
जो ज्वाला बन काल है निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से॥6॥

जो निर्जीव बनी समस्त जनता हो मज्जिता राख में।
सा वैभव से भ नगर जो ज्वालामुखी से जले।
तो क्या हैं सर के समूह सरिता में है कहाँ सिक्तता।
तो है सागर में कहाँ सरसता, कैसे रसा है रसा॥7॥

हो-हो दग्धा बनी विशाल नगरी दावाग्नि-क्रीड़ास्थली।
लाखों लोग जले-भुने, भवन की भीतें चिता-सी बलीं।
भू! ते अवलोकते प्रलय क्यों ज्वालामुखी यों की ।
क्यों होते जल-राशि पास जगती यों ज्वालमाला रहे॥8॥

दोषों को क्षम सर्वदा जगत में जो है कहाती क्षमा।
क्यों हो-हो वह कम्पिता प्रलय की दृश्यावली दे दिखा।
कैसे सो वसुधा विरक्त बन दे ज्वालामुखी से जला।
जो पाले सुजला तथैव सुफला हो शस्य से श्यामला॥9॥

नाना दानवता दुरन्त नर की, ज्वालामुखी-यंत्रणा।
ओलों का, पवि का प्रहार, रवि के उत्ताकप की उग्रता।
तो कैसे सहती समुद्र-शठता दुर्वृत्तिक दावाग्नि की।
तो होती महती न, जो न क्षिति में होती क्षमाशीलता॥10॥

होती है हरिता हरापन मिले न्या ह पेड़ का।
काली है करती अमा, अरुणता देती ऊषा है उसे।
प्राय: है करती विमुग्ध मन को हो शस्य से श्यामला।
पाके दिव्य सिता विभूति बनती है दुग्धा-धाता धारा॥11॥

आराधया बुध-वृन्द की विबुधता आधारिता वन्दिता।
है विज्ञान-विभूति भूति भव की सद्भाव से भाविता।
है सद्बुध्दि-विधायिनी गुण-भरी है सर्व-विद्यामयी।
है पात्राी प्रतिपत्तिक की प्रगति की है सिध्दि:दात्री धारा॥12॥

पाता गौरव है पयोधिक पहना मुक्तावली-मालिका।
गाती है कल कीत्तिक कान्त स्वर से सारी विहंगावली।
देते हैं उपहार पादप खडे नाना फलों को लिए।
पूजा करती है सदैव महि की उत्फुल्ल पुष्पावली॥13॥

आ-आ के घन हैं सुधा बरसते, हैं भानु देते विभा।
होती है वन-भूति धान्य दिखला सर्वांग दृश्यावली।
पाता है कमनीय अंक गिरि से दिव्याभ रत्नावली।
पाये शुभ्र सिता सदैव बनती है भूमि दिव्याम्बरा॥14॥

पाती है कमनीय कान्ति विधु से, उत्फुल्लता पुष्प से।
देता चन्दन है सुवास तन को, है चाँदनी चूमती।
लेती है मधु से महा मधुरिमा मानी मनोहारिता।
होती है सरसा सदैव रस से भींगे रसा सुन्दरी॥15॥

भू में हैं जनमे, विभूति-बल से भू के बली हो सके।
जागे भाग अनेक भोग भव के भू-भाग ही से मिले।
आये काल भगे कहीं न भर के भू-अंक में हैं पड़े।
भू से भूप पले सदैव कब भू भूपाल पाले पली॥16॥

देता है यदि भौम साथ तज तो साथी मिला सोम-सा।
होता है यदि वज्रपात बहुधा तो है क्षमा में क्षमा।
जो है भू सरसा, सहस्रकर के उत्ताकप को क्यों सहे।
जो है पास सुधा, सहस्र-फन से क्यों हो धारा शंकिता॥17॥

लाखों पाप मिले समाधिक-रज में या हैं चिता में जले।
आयी मौत, बला मनुष्य सिर की है प्रायश: टालती।
लेती है तन ही मिला न तन में या राख में राख ही।
भूलों की बहु भूल-चूक पर भी भू धूल है डालती॥18॥

संसिक्ता सरसा सरोज-वदना उल्लासिता उर्वरा।
नाना पादप-पुंज-पंक्ति-लसिता पुष्पावली-पूरिता।
लीला-आकलिता नितान्त ललिता संभार से सज्जिता।
है मुक्तावलिमंडिता मणियुता आमोदिता मेदिनी॥19॥

था सिंहासन रत्नकान्त जिनका, कान्तार में वे म।
थे जो स्वर्गविभूति, गात उनके हैं भूमिशायी हुए।
वे सोये तम में पसार पग जो अलोक थे लोक के।
वे आये मर तीन हाथ महि में भू में समाये न जो॥20॥

है अंगारक-सा कुमार उसका तेजस्विता से भरा।
सेवा है करता मयंक, सितता देती सिता है उसे।
है रत्नाकर अंक-रत्न, दिव है देता उसे दिव्यता।
है नाना स्वर्गीय भूतिभरिता है भाग्यमाना मही॥21॥

दी है भूधार ने उमासम सुता दिव्यांग देवांगना।
पाई है उसने पयोधिक-पय से लोकाभिरामा रमा।
मिट्टी से उसको मिली पति-रता सीता समाना सती।
है मान्या महिमामयी मति-मती धान्या वदान्या धारा॥22॥

हो पाते यदि भद्र, भूत-हित को जो भूल जाते नहीं।
जो भाते भव भले भाव उनको, जो भागती भीरुता।
जो होतीं उनमें नहीं कुमति की दुर्भावनाएँ भरी।
तो भारी बनते उभार जन के भू-भार होते नहीं॥23॥

लाखों भूप हुए महा प्रबल हो डूबे अहंभाव में।
भू के इन्द्र बने, तपे तपन-से, डंका बजा विश्व में।
तो भी छूट सके न काल-कर से, काया मिली धूल में।
हो पाई किसकी विभूति यह भू? भू है भयों से भरी॥24॥

ऑंखें हैं मुँदती, मुँदें, अवनि तो होगी सदा सज्जिता।
कोई है मरता, मरे, पर मही होगी प्रसन्नानना।
साँसें हैं चलती, चलें, वसुमती यों ही रहेगी खिली।
अन्यों का दुख, हीन हो हृदय से कैसे धारा जानती॥25॥

जायेगी मुँद ऑंख एक दिन, हो शोभामयी मेदिनी।
छूटेगी यह देह हो अवनि में संजीवनी-सी जड़ी।
होगा नाश अवश्यमेव, महि में हो स्वर्ग की ही सुधा।
होना है तज भूति-भूति नर को, हो भूति से भू भरी॥26॥

डूबे क्यों न पयोधिक में, उदर में ते समाये न क्यों।
टूटा क्यों न पहाड़, क्यों न मुख में ज्वालामुखी के पड़े।
कैसा है यह चाव, भाव इनके क्यों हैं सहे जा रहे।
होता है दुख देख, भूमि! तुझमें भू-भार ही हैं भ॥27॥

तो होता सर सिंधु, शान्त बनता ज्वालामुखी सिक्त हो।
होते सर्व प्रपंच तो न दव के आतीं न आपत्तिकयाँ।
कोई क्यों जलता, न वारिनिधिक में कोई कहीं डूबता।
जो होती जड़ता न, भाव अपना जो भूल पाती न भू॥28॥

क्या पूछँ, पर मानता मन नहीं पूछे बिना, क्या करूँ।
क्या ऑंधी, बहु वात-चक्र, वसुधो! ते दुरुच्छ्वास हैं।
क्या पाथोधिक-प्रकोप कोप तव है, है गर्जना भर्त्सना।
है ज्वाला वह कौन जो धारणि है ज्वालामुखी में भरी॥29॥

संतापाग्नि सदैव है, निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से।
आहें हैं पवमान कोप, निधिक का उन्माद उद्वेग है।
भूपों की पशुता-प्रवृत्तिक, मनुजों की दानवी वृत्तिक से।
होती है गुरु पाप-भार-पवि से कम्पायमाना मही॥30॥

माता-सी है दिव्य मूर्ति उसकी नाना महत्तामयी।
सारी ऋध्दि समृध्दि सिध्दि उससे है प्राप्त होती सदा।
क्या प्राणी, तरु क्या, तृणादि तक की है अन्नपूर्णा वही।
है सत्कर्मपरायणा हितरता, है धर्मशीला धारा॥31॥

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