पैंगलोपनिषद

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यह भी शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद है। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इसमें ऋषि पैंगल और महर्षि याज्ञवल्क्य के प्रश्नोत्तर के माध्यम से परम कैवल्य (ब्रह्म) का रहस्य वर्णित हैं।

प्रथम अध्याय

इस अध्याय में 'सृष्टि के सृजन' का बड़ा ही वैज्ञानिक और स्पष्ट विवेचन किया गया है। ऋषि याज्ञवल्क्य ने पैंगल ऋषि को बताया कि पूर्व में केवल 'सत' ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान और आनन्द से पूरित सनातन एकमात्र अद्वैत ब्रह्म है। वह अपने भीतर विलीन सम्पूर्ण जगत् का आविर्भाव करने वाला है। हिरण्यगर्भ में निवास करने वाले उस 'ब्रह्म' ने अपनी विशेष शक्ति से, तमोगुण वाली अहंकार नामक स्थूल शक्ति को प्रकट किया। उसमें जो प्रतिबिम्बित है, वही विराट चैतन्य है। उसी ने पंचतत्त्वों के रूप में अपने आपको प्रकट किया व उनसे अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों और लोकों की सृष्टि की। पंचभूतों के रजोगुणयुक्त अंश से चार भाग करके तीन भागों से पांच प्रकार के 'प्राणों' का सृजन किया और चौथे अंश से 'कर्मोन्द्रियां' बनायीं। इसी प्रकार पंचभूतों के सतोगुण युक्त अंश को चार भागों में विभाजित करके उसके तीन भागों से पंचवृत्यात्मक' अन्त:करण' बनाये औ चौथे अंश से 'ज्ञानेन्द्रियों' का सृजन किया है। उसने अपनी सत्त्व समष्टि से पांचों इन्द्रियों के पालक देवताओं का निर्माण किया और उन्हें ब्रह्माण्डों में स्थापित कर दिया। ब्रह्माण्ड में स्थित देवगण उस ब्रह्म की इच्छा के बिना स्पन्दनहीन ही बने रहे। तब उस ब्रह्म ने उन्हें चैतन्य किया। वह स्वयं ब्रह्माण्ड, ब्रह्मरन्ध्र और समस्त व्यष्टि के मस्तक को विदीर्ण करके उसी में प्रवेश कर गया। उनके चैतन्य होते ही सभी कर्म में प्रवृत्त हो गये। यह चेतना-शक्ति ही 'आत्म-शक्ति' कहलाई। इसे ही 'जीव' कहा गय।

दूसरा अध्याय

  • पैंगल ऋषि ने पूछा-'समस्त लोकों की सृष्टि, उनका पालन और अन्त करने वाला ईश्वर किस प्रकार जीव-भाव को प्राप्त होता है?'
  • याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया-'स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का निर्माण पंचीकृत पंच महाभूतों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश द्वारा किया गया है। पृथ्वी से कपाल, चर्म, अस्थि, मांस और नाख़ून आदि बने, जल से रक्त, मूत्र, लार, पसीना आदि बना, अग्नि से भूख-प्यास, उष्णता, मोह, मैथुन आदि बने, वायु से चलना (गति) उठना-बैठना, श्वास आदि बने और आकाश से काम, क्रोध आदि बने। सबके समुच्चय का स्थूल रूप 'शरीर' है।'
  • ऋषि ने आगे बताया कि अपंजीकृत महाभूतों के रजोगुण अंश से तीन भागों में 'प्राण' का सृजन किया गया। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान- ये पांच 'प्राण' हैं। नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय- पांच 'उपप्राण' हैं। हृदय, आसन(मूलाधार), नाभि, कण्ठ और सर्वांग उस प्राण के स्थान हैं। आकाश आदि पंचमहाभूतों के रजोगुण युक्त अंश के चौथे भाग से कर्मेन्द्रियों का निर्माण किया। इसके सत्व अंश के चौथे भाग से पांच ज्ञानेन्द्रियों का निर्माण किया।
  • दिशाएं, वायु,सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, यम, चन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव आदि सभी देवगण इन इन्द्रियों के स्वामी हैं।
  • इसके उपरान्त 'अन्नमय, 'प्राणमय,' 'मनोमय,' 'विज्ञानमय' और 'आनन्दमय' ये पांच कोश हैं। ईश्वर शरीर में स्थित होकर इन्हीं समस्त इन्द्रियों, कोशों और प्राणतत्त्व के द्वारा जीव का पालन करता है। मृत्यु के उपरान्त ये सभी क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं और जीव उसी परमात्मा का अंश बनकर पुन: परमात्मा की दिव्य ज्योति में समा जाता है।

तीसरा अध्याय

इस अध्याय में पैंगल ऋषि ने महावाक्यों का विवरण समझाने के लिए कहा, तो याज्ञवल्क्य ने कहा कि 'वह तुम हो' (तत्त्वमसि)', 'तुम वह हो' (त्वं तदसि), 'तुम ब्रह्म हो' (तवं ब्रह्मासि), 'मैं ब्रह्म हूं' (अहं ब्रह्मास्मि) ये महावाक्य हैं।

  • 'तत्वमसि'- से सर्वज्ञ, मायावी, सच्चिदानन्द, जगत् योनि अर्थात् मूल कारण अव्यक्त ईश्वर का बोध होता है।
  • 'तत्त्वमसि' और 'अहं ब्रह्मास्मि' के अर्थ पर विचार करना श्रवण कहलाता है। श्रवण किये अर्थ का एकान्त में अनुसन्धान मनन कहलाता है। दोनों के द्वारा एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थापन निदिध्यासन कहलाता है। जब चित्तवृत्ति केवल ध्येय में स्थिर हो जाये, तब वह अवस्था समाधि कहलाती है। 'ब्रह्म' का साक्षात्कार होते ही योगी जीवन्मुक्त हो जाता है।

चौथा अध्याय

इस अध्याय में 'ज्ञानियों के कर्मों' के विषय में प्रश्न किया गया है। उसके उत्तर में ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि 'इन्द्रिय' और 'मन' से युक्त होकर ही यह 'आत्मा' भोक्ता बन जाता है। इसके बाद हृदय में साक्षात नारायण प्रतिष्ठित होते हैं। यह शरीर नाशवान है। इसका मोह व्यर्थ है। अत: जब तक इस शरीर के साथ सांसारिक उपाधियां जुड़ी हैं, तब तक ज्ञानी व्यक्ति को गुरु की सेवा करनी चाहिए। ज्ञानामृत से तृप्त योगी के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यदि कोई कर्तव्य शेष है, तो वह तत्त्वविद् नहीं है। जब ज्ञान के द्वारा देह में स्थित अभिमान नष्ट हो जाता है और बुद्धि अखण्ड सृष्टि में लीन हो जाती है, तब ज्ञानी पुरुष 'ब्रह्मज्ञान-रूपी' अग्नि से समस्त कर्म-बन्धनों को भस्म कर देता है। ज्ञानी कहीं भी और कैसे भी मृत्यु को प्राप्त करे, वह हर स्थिति में 'ब्रह्म' में लय हो जाता है।
मैं ब्रह्म हूं (अहम् ब्रह्माऽस्मि) यही भाव महात्मा पुरुषों के मोक्ष का आधार है। बन्धन और मोक्ष के कारण-रूप, ये दो पद हैं। 'यह मेरा है,' 'बन्धन' है और 'यह मेरा नहीं है', 'मोक्ष' है। जब द्वैत भाव समाप्त हो जाता है, तभी परमपद प्राप्त होता है। जो यह नहीं जानता, उसकी मुक्ति आकाश में मुष्टिप्रहार के समान है। जो इस उपनिषद का पाठ करता है, वह अग्नि, वायु, आदित्य, ब्रह्म, विष्णु और रुद्र के समान पवित्र होता है। उसे दस सहस्त्र 'प्रणव' (ओंकार) नाम के जप का फल प्राप्त होता हैं। ज्ञानी जन विश्वव्यापी भगवान विष्णु के परमपद के द्युलोक में व्याप्त दिव्य प्रकाश की भांति देखते हैं-
तद्विष्णों: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:।
दिवीब चक्षुराततम् ॥30॥
इस प्रकार ब्रह्मनिष्ठ जीवन-यापन करने वाले ज्ञानी पुरुष प्रमादादि से रहित होकर सदैव श्रेष्ठ कर्म करने वाले विष्णु के परमपद को प्राप्त करते हैं। इस उपनिषद का यही सार तत्त्व है।


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