प्रबोधक काव्य

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प्रबोधक काव्य (अंग्रेज़ी: Didactic Poetry) कोई निश्चित काव्य रूप नहीं, बल्कि शैली, विषय-वस्तु और उद्देश्य की दृष्टि से एक विशिष्ट काव्य-प्रकार है। अंग्रेज़ी में इसे 'डाइडेक्टिक पोएट्री' कहा जाता है। ऐसा काव्य, जिसका उद्देश्य सीधे-सीधे उपदेश देना और पाठकों का सुधार करना हो और जिसका कलात्मक पक्ष उसके नैतिक या उपदेशात्मक पक्ष से बिल्कुल दब गया हो, 'प्रबोधक काव्य' कहा जाता है।[1]

विषयवस्तु

कुछ कविताओं में कवि स्पष्ट शब्दों में किसी विशेष विषय या वस्तु के सम्बन्ध में पर्याप्त सूचनाएँ देते हैं या अपने ज्ञान का प्रदर्शन इसलिए करते हैं कि पाठक उससे लाभ उठाएँ। ऐसा काव्य भी प्रबोधक काव्य की श्रेणी में ही आता है। इस दृष्टि से मध्यकालीन हिन्दी साहित्य का वह समस्त नीतिकाव्य, जिसका उद्देश्य नीति का उपदेश देकर पाठकों को प्रबुद्ध या सचेतन करना था, प्रबोधक काव्य ही माना जाएगा। आधुनिक काल में द्विवेदी युग के बहुत-से कवियों ने देश, समाज और धर्म-सुधार के लिए अभिधात्मक शैली में जो कविताएँ लिखीं, वे भी प्रबोधक काव्य की कोटि में ही आती हैं।

द्विवेदी युगीन प्रबोधक काव्य

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'भारत भारती' प्रबोधक काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। स्थूल आदर्शवाद और पुनरुत्थान की प्रवृत्ति के कारण तथा आर्य समाज की अतिशय सुधारवादी भावना के प्रभाव से द्विवेदी युगीन कविता में खण्डन-मण्डन, बौद्धिक तर्क-वितर्क और सीधे-सादे उपदेश देने की पद्धति विशेष रूप से अपनायी गयी और कलात्मक मूल्यों से अधिक नैतिक मूल्यों पर बल दिया गया। इस कारण उस युग की कविताएँ अधिकांशत: वर्णनात्मक, स्थूल, उपदेशात्मक और नीरस हैं। वे प्राय: सभी प्रबोधक काव्य हैं। अंग्रेज़ी में ड्राइडेन और पोप की बहुत-सी कविताएँ तथा वर्ड्सवर्थ की कुछ उत्तरकालीन कविताएँ प्रबोधक काव्य की कोटि में मानी जाती हैं।[1]

विद्वान् मतभेद

प्रबोधन या उपदेश देना काव्य का प्राथमिक उद्देश्य है या नहीं, इस सम्बन्ध में प्राचीन काल से लेकर अब तक साहित्य-शास्त्रियों में बहुत मतभेद रहा है। व्यापक दृष्टि से देखने पर तो काव्य मात्र प्रबोधक होता है, क्योंकि प्रत्येक कविता से मनुष्य का किसी-न-किसी रूप में लाभ होता ही है। परंतु कुछ विचारक काव्य का सर्वप्रथम उद्देश्य प्रबोधन मानते हैं। प्लेटो तो स्पष्ट शब्दों में काव्य को उपदेश या नैतिक शिक्षण का साधन मानता था और विशुद्ध लिखने वालों को वह अपने आदर्श गणराज्य में स्थान देने तक को तैयार नहीं था। रोमन कवि और साहित्यशास्त्री हॉरेस ने प्रबोधन को काव्य का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मानते हुए भी उसे एकमात्र उद्देश्य नहीं माना। उसके अनुसार कवि अपनी कविता द्वारा या तो शिक्षा देता है या आनन्द प्रदान करता है या दोनों कार्य करता है। आधुनिक युग के विचारक रस्किन, टॉल्सटाय और महात्मा गाँधी काव्य का उद्देश्य प्रबोधनात्मक ही मानते हैं।

भारतीय आलंकारिक मम्मट ने काव्य का प्रयोजन इस प्रकार बताया है-

"काव्यं यश से अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।, सद्य:परिनिर्वृतये कांतासम्मिततयोपदेशयुजे।"

इस प्रकार मम्मट भी मानते हैं कि काव्य से व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा मिलती है, पर उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यह उपदेश उसी प्रकार मधुर और आकर्षक रूप में होना चाहिए, जैसे पत्नी अपने पति को माधुर्यवेष्टित शैली में उपदेश देती है। अत: मम्मट भी हॉरेस की तरह उपदेश और आनन्द दोनों को ही काव्य का उद्देश्य मानते हैं, किंतु उपदेश इतना सीधा और स्पष्ट नहीं होना चाहिए कि श्रोता उसे प्रारम्भ में ही समझ जाएँ। हॉरेस के शब्दों में काव्यगत उपदेश बच्चे को दी जाने वाली प्याले की कड़वी दवा है और उसका माधुर्य प्याले के छोर पर लिपटा शहद है। जैसे शहद के सहारे बच्चा कड़वी दवा पी लेता है, उसी तरह माधुर्य और आनन्द के माध्यम से पाठक या श्रोता उपदेश ग्रहण करते हैं। अत: जिस कविता में उपदेश माधुर्य या काव्य-सौन्दर्य से पूर्णरूपेण आवेष्टित नहीं होता, उसे प्रबोधक काव्य समझना चाहिये।[2][1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 408 |
  2. 'दृष्टांत काव्य'

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