बद्रीनाथ आर्य

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बद्रीनाथ आर्य
बद्रीनाथ आर्य
बद्रीनाथ आर्य
पूरा नाम बद्रीनाथ आर्य
जन्म 1936
जन्म भूमि पेशावर, पाकिस्तान
कर्म भूमि भारत
पुरस्कार-उपाधि 'ललित कला रत्न' (2007)
प्रसिद्धि वॉश चित्रकार
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख भारतीय चित्रकला
अन्य जानकारी बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में बद्रीनाथ आर्य द्वारा रचे गये चित्र प्रायोगिक दृष्टिकोण से अति सराहनीय हैं, जो समकालीन कला में अपना स्थान बना पाये और वॉश को क्षेत्रीय स्तर से निकालकर समकालीन कला की मुख्य धारा से जोड़ते हुए वैश्विक पटल पर लाये।

बद्रीनाथ आर्य (अंग्रेज़ी: Badrinath Arya, जन्म- 1936, पेशावर, पाकिस्तान) भारतीय चित्रकार हैं। कम आकृतियों के साथ मुख्य विषय को आलोकित करते हुए वॉश चित्रण विधि के व्याकरण के अन्तर्गत विषयों की दृष्टि से 'लखनऊ वॉश' को क्षेत्रीय शैली से राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर की समकालीन कला की मुख्य धारा से जोड़ने का श्रेय बद्रीनाथ आर्य को जाता है। बद्रीनाथ आर्य के बाद के चित्रों में विषयगत अमूर्तता और प्रयोग दिखता है। चित्रों में केवल आदर्श सौंदर्य ही नहीं बल्कि अवचेतन मन में हिलोरे ले रही अनगिनत आकृतियों का मिला-जुला व अमूर्त रूप भी देखा जा सकता है। सितंबर, 2007 में 'ललित कला अकादमी' द्वारा कला के क्षेत्र में विशेष योगदान देने के लिए इन्हें सर्वोच्च सम्मान 'ललित कला रत्न' से सम्मानित किया गया था।

परिचय

बद्रीनाथ आर्य का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान) के ऐसे व्यवसायी परिवार में सन् 1936 में हुआ, जहाँ न तो कला का कोई वातावरण था, न ही प्रोत्साहन। परिवार के सदस्य भी यही चाहते थे कि बद्रीनाथ कला के अतिरिक्त किसी और क्षेत्र के विशेषज्ञ या व्यवसायी बनें, जो प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ से जुड़ा हो, पर न कि सिर्फ निज व्यवसाय से अरुचि रही, बल्कि पढ़ाई-लिखाई के प्रति भी बद्री गंभीर नहीं रहे। कलात्मक अभिरुचि, देखी जाये तो पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा अधिक रही, क्योंकि काल्पनिक आकृतियों को दीवारों व भूमि पर उकेरना, प्रकृति के रूपाकारों को गंभीरता से देखना, आत्मसात करना व अनुभव के आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति प्रवृत्ति बनने लगी थी।[1]

लखनऊ आगमन

सन् 1947 में भारत के विभाजन के पश्चात् बद्री जी को सपरिवार लखनऊ आना पड़ा, क्योंकि अशान्ति के समय, बद्री के पिता के दोस्त ने, जो लखनऊ में रहते थे, यहाँ आने की सलाह दी। रास्ते में भी एक दुर्घटना हुई कि भीड़ में बद्रीनाथ कहीं खो गए। गुरुदासपुर में ही रुकना पड़ा। वहाँ अचानक ही बद्रीनाथ को गाड़ी में बिछड़े हुए पिताजी दिख गए और दंगा थमते ही लखनऊ की ओर रवाना हुए। इस घटना का जिक्र इसलिए भी आवश्यक है कि बद्री को बाल्यकाल से ही किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, समाज और व्यक्ति की कैसी-कैसी छवि मानस पटल पर बनी, जो आज काल्पनिक रूप में अभिव्यंजित हो रही है, उसका अनुमान लगाया जा सके। लखनऊ आकर बद्री हीवेट रोड पर अपने पिताजी के साथ रहने लगे, जहाँ प्रसिद्ध लेखक यशपाल रहते थे। यह संयोग था कि उनके समकालीन कलाकार रणवीर सिंह बिष्ट भी बद्री के ठीक सामने रहते थे। लखनऊ में निवास बना लेने के उपरान्त बद्री को पुनः अपनी कल्पनाओं को एक रूप देने का वातावरण खोजना पड़ा और इस क्षेत्र में आने का एक रास्ता बना फोटोग्राफी। रुचि होने के कारण हजरतगंज के सेठ फोटोग्राफर के स्टूडियो में प्रायः फोटो देखने जाने लगे। यह रुचि और समर्पण देखकर, कला गुरू ललित मोहन सेन[2], जो इस स्टूडियो पर आया-जाया करते थे, बहुत प्रभावित हुए और उन्हें 'आर्ट्स कालेज' बुलवाया। बद्रीनाथ आर्य की कला अभिरुचि की छोटी सी परीक्षा ली और प्रवेश की अनुमति दे दी।

चित्रकला तथा मूर्तिकला मर्मज्ञ

सन् 1951 में बद्री ने कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ में कला-शिक्षा के लिए प्रवेश लिया और चित्रकला तथा मूर्तिकला दोनों के मर्मज्ञ बने, क्योंकि जिन कला गुरुओं का सानिध्य, शिष्यत्व बद्रीनाथ को प्राप्त हुआ, वे दृश्य कला की लगभग समस्त विधाओं पर अपनी समानान्तर पकड़ रखते थे। बद्री ने भी समस्त विधाओं, शैलियों, माध्यमों के मर्म जानकर एक दिशा निर्धारित की, जो तत्कालीन वातावरण में प्रभावी थी। उस समय कलागुरू असित कुमार हल्दार द्वारा लखनऊ में परिचित कराई गई शैली 'वॉश' का वर्चस्व बन चुका था और उस शास्त्रीय शैली से परे जाकर कलाकार अपना निजत्व नहीं बना सकता था, अतः अपनी दक्षता और सृजनात्मकता प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक था कि वॉश शैली में ही कार्य किया जाये। हालाँकि पारंपरिक विषय वस्तु व चित्रण व्यवहार के कारण वॉश की स्थिति क्षेत्रीय, स्कूल से अधिक नहीं थी और समकालीन कला से काफी अन्तराल लिए हुए थी, पर बद्री सामाजिक व राजनैतिक विषयों के अतिरिक्त निसर्ग पर अधिक केन्द्रित हुए। प्रकृति के रहस्यों को उजागर करने के लिए जाड़ा, गर्मी, बरसात, विविध ऋतुओं व परिवर्तित होते पल-पल का अनुभव प्राप्त किया और जहाँ सुखवीर सिंह सिंहल ने वॉश को बड़े आकार में प्रस्तुत किया था, भले ही उनके विषय दरबारी दृश्य, पौराणिक/धार्मिक ही रहे, बद्री ने उसी बड़े आकार को अपनाया और विषयों को परिवर्तित कर दार्शनिकता से परिपूर्ण बनाते हुए अमूर्तनोन्मुख हुए।[1]

वॉश चित्रकला शैली

जिस समय बद्री ने कला जगत में कदम रखा, उस समय तक वॉश चित्रकला शैली स्थापित हो चुकी थी, क्योंकि इसका आरंभ तो असित कुमार हल्दार के लखनऊ आने से बहुत पहले ही हो चुका था। लखनऊ स्कूल के लिए यह शैली एक पारंपरिक शैली बन चुकी थी। बी.एन. जिज्जा, पुरंजय बनर्जी, पी.आर. राय, ए.डी. थामस, शमी उज्जमा, विश्वनाथ मुखर्जी, आर.सी. साथी, फ्रैंक वैज़्ली, एस.सेन. राय, एन.के. मिश्र, सुखबीर सिंघल, हरिहर लाल मेढ़, ईश्वरदास, श्रीराम वैश्य, नित्यानंद महापात्र आदि कलाकार इस शैली में खूब प्रयोग कर रहे थे, पर इन सभी कलाकारों द्वारा आकृति मूलक संयोजनों/दैनिक जीवन या धार्मिक विषयों से संबंधित संयोजनों को महत्व दिया गया। हालाँकि बद्रीनाथ आर्य का आधार तो यही कला संस्कार था, पर बद्रीनाथ ने एक परंपरा पर चलते रहना ही स्वीकार नहीं किया, बल्कि इसके आगे एक ऐसा रास्ता खोजना चाहा, जो उनके निजत्व को प्रकाश में लाए और बंगाल से लखनऊ आई वॉश चित्रकला परंपरा को एक उल्लेखनीय दिशा दे सके। बद्री ने प्रयोग किया, संयोजन के मूलतत्वों के साथ आकारों को सूक्ष्म व प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया।

चित्र रचना के पूर्व किए गए रेखांकनों को देखें, विशेषकर प्रारंभिक समय के, तो पाएँगे कि घुमावदार आकृतियाँ एक-दूजे से गुंथी हुई रेखाएँ कुछ अंतर्द्वन्द्व जैसी स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। एक रेखांकन जिसमें तीन चार साँप आपस में गुंथे हुए से दर्शाए गए हैं, ऐसे रेखांकनों का अच्छा उदाहरण है। अन्य रेखांकन में ग्रामीण, दैनिक जीवन के विषय, नारी आकृतियाँ व पशु-पक्षियों का अंकन दृष्टव्य है। इन रेखांकनों में मानव शरीर की संरचना, लयात्मक रेखाएँ और सशक्त भावभिव्यक्ति देखा जा सकता है। बद्री ने पशु-पक्षी आदि का अध्ययन विशेष रूप से किया है, जो उनके संयोजन व रेखांकन के विषयों में प्रमुख हैं। एक रेखांकन जिसमें भैंस पानी में जा रही है और उसके सिर पर कौवा बैठा है, अति प्रभावी व मार्मिक रेखांकन है। यह कलाकार की उस दृष्टि और प्रतीत को पुष्ट करता है, जो अति संवेदनशीलता के साथ इन क्षणों को जिया हो।

बद्रीनाथ आर्य के आरंभिक चित्र आकृति मूलक, स्वाभाविक व यथार्थता लिए हुए थे, पर भारतीय कला की विशिष्टताओं में प्रमुख 'लयात्मक रेखाओं' की प्रधानता होने के बावजूद छाया, प्रकाश अलंकरण व घनत्व का ध्यान दिया गया है। जिससे यह प्रमाणित है कि भारतीय कला का आधार होने के साथ ही निजत्व व सृजनात्मकता को समानान्तर ही महत्व देते रहे। नारी सौंदर्य, संवेदनशीलता और स्वामिभक्ति तथा भारतीय संस्कृति को पुष्ट धरातल देने वाले अनुभव दर्शनीय हैं। इन चित्रों में जहाँ शैली दर्शनीय शास्त्रीय है, वहीं विषयों के प्रस्तुतिकरण व प्रयोगों में नवीनता है। वह नवीनता जो युगों तक आधुनिकता व प्रयोगात्मकता का मानक बन सके।[1]

सम्पूर्ण कलाकार

बद्रीनाथ आर्य को उनके द्वारा कलाजगत में किए गए अवदान के आधार पर एक सम्पूर्ण कलाकार की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि जहाँ अध्यापक के रूप में दृश्य कला की समस्त शैलियों, माध्यमों में पारंगत होकर विद्यार्थियों में कला का बीजारोपण किया, अंकुरित कल्लों को पल्लवित, पुष्पित होने में जल व उर्वरा रूपी अपना स्नेह व ज्ञान दिया, वहीं कलाकार के रूप में अपने नित नए प्रयोगों के आधार पर उस घेरे से अपने को अलग किया और समकालीन कला जगत में पहचान दिलाई जो केवल लखनऊ स्कूल तक सीमित रह गया था। आज 'बद्रीनाथ आर्य' वॉश शैली के पर्याय बन चुके हैं, क्योंकि वे गुप्तकालीन चित्रों की लयात्मक रेखाओं, आदर्श सौंदर्य के अनुसार रची जाने वाली मानवाकृतियों व उस पद्धति तक ही सीमित नहीं है, जो बंगाल स्कूल से लखनऊ तक आई थी, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वॉश चित्रों की पहचान बनी और वह भी समकालीन कला के सौंदर्यशास्त्रीय मूल्यों की नवीन परिभाषाओं के अनुरूप, तो इसका श्रेय केवल बद्रीनाथ आर्य और उनकी अदम्य इच्छा शक्ति को है।

बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में बद्रीनाथ आर्य द्वारा रचे गये चित्र प्रायोगिक दृष्टिकोण से अति सराहनीय हैं, जो समकालीन कला में अपना स्थान बना पाये और वॉश को क्षेत्रीय स्तर से निकालकर समकालीन कला की मुख्य धारा से जोड़ते हुए वैश्विक पटल पर लाये। कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ के चित्रकला विभागाध्यक्ष और प्रधानाचार्य पद को सुशोभित कर चुके बद्रीनाथ आज भी नियमित रूप से कला साधना में स्वयं को व्यस्त रखते हैं। माध्यम की दृष्टि से उनकी कला में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है। इस समय तैल रंग में भी कुछ प्रयोग देखे जा सकते हैं, पर इस माध्यम में भी अपनी रचना और शिल्प दक्षता से बद्री दर्शक के समक्ष एक भ्रम पैदा करते हैं। तैल रंग की कई पतली परतों को इस तरह प्रयोग करते हैं कि वह जल रंग का प्रभाव देने लगे। कैनवस को भी सैंड पेपर से घिस कर वॉश का ही प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इस तरह से सदैव रचनाशील रहे बद्रीनाथ आर्य ने अपने कई शिष्यों को 'लखनऊ वॉश' का गुर देकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किया है, जहाँ वे इस परम्परा को नई कला प्रवृत्तियों के साथ जोड़ते हुए इस विशेष कला शैली को गौरव प्रदान कर रहे हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 मिश्र, अवधेश। लखनऊ वॉश और बद्रीनाथ आर्य (हिंदी) abhivyakti-hindi.org। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2017।
  2. तत्कालीन प्रधानाचार्य, कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ

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