बुद्धू का काँटा -चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

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रघुनाथ प्रसाद त्त् त्रिवेदी- या रुग्नात् पर्शाद तिर्वेद- यह क्या?

क्या करें, दुविधा में जान है। एक ओर तो हिन्दी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिन्दी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, हमारी करनी पर मत चलो, वैसे ही जैसे हिन्दी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा? हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकररकषायित कंठ से कहें ‘पर्सोत्तमदास’ और ‘हर्किसन्लाल’ और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह की पढ़ा जाए – ‘पुरुषोत्तम अ दास अ’ और ‘हरि कृष्णलाल अ!’

अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?

अच्छा, तो हुकुम। हम लालाजी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्साद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहने वाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ़्तर के पीछे चौक में उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते हैं कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगाकर स्टेशन पर दरभंगा महाराज के स्वागत को जाएँ, और न ऐसी समाजी ही हैं कि खंजड़ी लेकर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’ करनह दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।

हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नहीं छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्या मजाल है कि बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पास वालों पर हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ़्तर के काम की अँग्रेजी चिट्ठी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अँग्रेजी शब्द के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुकर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ का उपाख्यान नए बी.ए. हेड क्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लाइब्रेरी में जाकर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन शेप की तरहबाबू अलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी अलमारियों से मन चाहे जैसी किताब निकालकर मन चाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दु:ख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके; लाट साहब ने अपने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अँग्रेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कहती जाती थी।

इन उसूल धन बाबूजी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में नहीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़के वालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहाने वालों के लिए; और वे कभी-कभी दरवाज़े पर धरना देकर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबूजी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़कर आगरे आकर बाबूजी की निद्रा भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबूजी बैंक की लेजर-बुक खोलकर बैठ जाते, या लक्रडी उठाकर घूमने चल देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई जीता, पर पुष्ट मारकर जीत सकता है।

बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को आसीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू को गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्ध ने कहा- ‘पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।’ दूसरी वृद्ध, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, ‘बड़े भागों से बेटों का ब्याह होता है।’

तीसरी ने नाक की झुलनी हिलाकर कहा- ‘अपना खाने-पहरने का लोभ कोई छोटे तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।’ चौथी ने कहा- ‘ऐसे कमाने-खाने को आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं।’ इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली कम्बल ओढ़ लिया था।

अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जान्तथी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जानकर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उनकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़िया ने एक हलके से अनुदात्त से कहा- ‘अब तुम रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी?’ उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहे हैं’- रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हलके उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई, और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।

‘मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न? तू क्यों नहीं बोलती?’

‘मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ का-सा बेटा होता तो अब दत्तक पोता खिलाती।’ यों और दो-चार बातें करके यह स्त्री-दल चला गया और गृहिणी के हृदय समुद्र को कई विचारों की लहरों से छलकाता हुआ छोड़ गया।

सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, ‘इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।’

स्त्री ने अपने ही लेजर और छड़ी छिपाकर ठान ली थी कि आज बाबूजी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी- ‘हैं, आज यह कैसे सूझी?’ ‘दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्थ हो जाएगा; फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, वृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की कुँवारी बचेगी। फिर जब वृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहने न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।’

‘भैया ठीक तो कहते हैं।’

‘मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के का उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।’ ‘भैया की को, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से जो मान रहे हो।’

‘अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें। और दिन भी। अब तुम आगरे बहू को लेकर आओगी।’

स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़िया का उलहना तो मिटेगा।


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