बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती

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बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती
प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती
विवरण श्रावस्ती उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों में से एक है। बौद्ध एवं जैन तीर्थ स्थानों के लिए श्रावस्ती प्रसिद्ध है। यहाँ के उत्खनन से पुरातत्त्व महत्त्व की कई वस्तुएँ मिली हैं।
ज़िला श्रावस्ती
निर्माण काल प्राचीन काल से ही रामायण, महाभारत तथा जैन, बौद्ध साहित्य आदि में अनेक उल्लेख।
मार्ग स्थिति श्रावस्ती बलरामपुर से 17 कि.मी., लखनऊ से 176 कि.मी., कानपुर से 249 कि.मी., इलाहाबाद से 262 कि.मी., दिल्ली से 562 कि.मी. की दूरी पर है।
प्रसिद्धि पुरावशेष, ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल।
कब जाएँ अक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचें हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है।
हवाई अड्डा लखनऊ हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन बलरामपुर रेलवे स्टेशन
बस अड्डा मेगा टर्मिनस गोंडा, श्रावस्ती शहर से 50 कि.मी. की दूरी पर है
संबंधित लेख जेतवन, शोभनाथ मन्दिर, मूलगंध कुटी विहार, कौशल महाजनपद आदि।


बुद्ध काल में कौशल जैसे समृद्धशाली जनपद की राजधानी होने के कारण श्रावस्ती का ऊँचा स्थान था। साथ ही बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रमुख केंद्र होने के कारण बौद्ध साहित्य में इस नगर का विशद वर्णन मिलता है।

  • ललितविस्तर[1] के अनुसार श्रावस्ती कोशल जनपद की राजधानी थी। यह राजाओं, राजकुमारों, मंत्रियों, सभासदों तथा उनके समर्थकों-क्षत्रियों, ब्राह्मणों एवं गृहस्वामियों से भरी हुई थी।[2] इस नगर के नागरिक तथागत के बड़े प्रशंसक थे।
  • बौद्ध धर्म के प्रचार की ओर संकेत करते हुए मिलिंदपन्हों में भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ बतलायी गई है।[3], जो निश्चय ही अतिरंजना है।
  • बुद्धघोष के अनुसार उस समय श्रावस्ती में 57 हज़ार परिवार निवास करते थे।[4] इसी ग्रंथ में यहाँ की जनसंख्या 18 करोड़ बताई गई है, जो स्पष्टत: अतिरंजित है।[5]

व्यापार का केंद्र

जेतवन मठ, श्रावस्ती

श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि का प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर तीन प्रमुख व्यापारिक पथ मिलते थे जिससे यह व्यापार का एक महान् केंद्र बन गया था। यह नगर पूर्व में राजगृह से, उत्तर-पश्चिम में तक्षशिला से और दक्षिण में प्रतिष्ठान से जुड़ा हुआ था।[6] राजगृह से 45 योजन दूर आकर बुद्ध (शास्ता) ने श्रावस्ती में विहार किया था।[7] श्रावस्ती से राजगृह का रास्ता वैशाली से होकर गुजरता था। यह मार्ग सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा[8], पावा, भोगनगर और वैशाली से होकर जाता था।[9] प्रतिष्ठान को जाने वाला मार्ग साकेत, कोशांबी, विदिशा, गोनधा और उज्जैन से होकर गुजरता था। इस नगर का संबंध वाराणसी से भी था।[10] इन दोनों के मध्य कोटागिरी नामक स्थान पड़ता था।[11] श्रावस्ती से तक्षशिला का मार्ग सोरेय्य आधुनिक सोरों होते हुए जाता था। इस मार्ग में सार्थ निरंतर चलते रहते थे।[12] इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रावस्ती का बौद्ध काल में भारत के सभी प्रमुख नगरों से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था।

पालि साहित्य में श्रावस्ती

पालि साहित्य में विभिन्न नगरों से श्रावस्ती की दूरी दी हुई है, जिससे उसका व्यापारिक महत्त्व प्रकट होता है। श्रावस्ती से तक्षशिला 192 योजन[13], संकाश्य (संकीसा) से 30 योजन[14], साकेत 6 योजन, राजगृह 60 योजन, मच्छिकासंड 30 योजन[15] उग्रनगर 120 योजन तथा चंद्रभागा नदी[16] 120 योजन[17] पर थी। प्राचीन भारत में ‘योजन’ की माप निश्चित न होने के कारण श्रावस्ती से इन स्थानों की वास्तविक दूरी निश्चित करना कठिन है।

बुद्ध के उपदेश

श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवन और कार्यों का विशेष संबंध था। उल्लेख्य है कि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के वर्षावास श्रावस्ती में ही व्यतीत किए थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की दृष्टि से भी श्रावस्ती का महत्त्वपूर्ण स्थान था। भगवान बुद्ध ने प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिनमें 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में और 4 श्रावस्ती के आस-पास के अन्य स्थानों में उपदिष्ट किए गए।[18] बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र के रूप में श्रावस्ती की ख्याति का ज्ञान यहाँ उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर निश्चित हो जाता है।

जेतवन

बुद्ध के जीवन-काल में श्रावस्ती के दक्षिण में स्थित जेतवन एवं पुब्बाराम दो प्रसिद्ध वैहारिक अधिष्ठान एवं बौद्धमत के प्रभावशाली केंद्र थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जेतवन का आरोपण, संवर्धन तथा परिपालन जेत नामक एक राजकुमार द्वारा किया गया था।[19] राजगृह में वेणुवन और वैशाली के महावन के ही भाँति जेतवन का भी विशेष महत्त्व था।[20] इस नगर में निवास करने वाले अनाथपिंडक ने जेतवन में विहार[21], परिवेण[22], उपस्थान शालाएँ[23], कापिय कुटी[24], चंक्रम[25], पुष्करणियाँ और मंडप बनवाए।[26] अनाथपिंडक के निमंत्रण पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती स्थित जेतवन पहुँचे। अनाथापिण्डक ने उन्हें खाद्य भोज्य अपने हाथों से अर्पित कर जेतवन को बौद्ध संघ को दान कर दिया। इसमें अनाथ पिंडक को 18 करोड़ मुद्राओं को व्यय करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि इस घटना का अंकन भरहुत कला में भी हुआ है।[27] तथागत ने जेतवन में प्रथम वर्षावास बोधि के चौदहवें वर्ष में किया था। इससे यह निश्चित होता है कि जेतवन का निर्माण इसी वर्ष (514-513 ई. वर्ष पूर्व) में हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि जेतवन के निर्माण के पश्चात् अनाथपिण्डक ने तथागत को निमंत्रित किया था।

पुब्बाराम

जेतवन, श्रावस्ती

जेतवन के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान पुब्बाराम (पूर्वाराम) था। इसका निर्माण नगर के एक प्रमुख धनिक सेठ मिगार (मृगधर) की पुत्रवधू विशाखा ने कराया था। यह नगर के पूर्वी द्वार के पास स्थित था।[28] संभवत: इसीलिए इसका नाम पूर्वाराम पड़ा। इसके निर्माण तथा समर्पण में लगभग 27 करोड़ मुद्राओं का व्यय करना पड़ा था। यह लकड़ी (रुक्ख) तथा पत्थर द्वारा निर्मित था, जिसमें दो मंजिलें थीं।[29] पूर्वाराम विहार की आधुनिक स्थिति सहेत-महेत के पास उनके पूर्व का हनुमनवा स्थान है।

नगर का वर्णन

इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में मल्लिकाराम का निर्माण प्रसेनजित की महारानी मल्लिका द्वारा किया गया था। यह एक परिब्राजकाराम था; जहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ होता था। तीर्थकाराम एक बड़ा आराम था जिसमें 700 से 3000 तक परिव्राजक निवास कर सकते थे। इस नगर की परिखा, प्राकार एवं नगर द्वार के विषय में प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। उस समय भवन निर्माण में मुख्यत: लकड़ी का उपयोग होता था। नगर के चारों ओर मिट्टी के प्राकार बने थे। नगर के द्वार एवं राजमार्ग पर्याप्त चौड़े थे। संयुक्त-निकाय में उल्लेख है कि यहाँ के नागरिक हाथी[30] राजमार्गों पर निकलते थे।[31] श्रावस्ती में मूख्यत: चार दरवाज़े थे, जिनमें तीन तो उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण दरवाज़ों के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें से जेतवन से नगर में आने का प्रवेश द्वार दक्षिण द्वार था। पूर्वाराम पूर्व दरवाज़े के सामने था। इनके अतिरिक्त पश्चिम दरवाज़े का होना भी स्वाभाविक है तथापि इसका वर्णन त्रिपिटक या अट्ठकथा में नहीं मिलता। उल्लेखनीय है इन प्रवेश-द्वारों के अतिरिक्त उत्खनन से कई अन्य प्रवेश द्वारों का भी पता चला है, लेकिन ये दरवाज़े वास्तविक नहीं थे। बल्कि समय-समय पर प्राकारों के गिर जाने के कारण सुविधानुसार प्रयोग में लाए गए स्थानापन्न दरवाज़े थे।[32]

अन्य प्रसिद्ध स्थान

इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में 'पूर्वाराम और मल्लिकाराम' उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाज़े के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम[33] पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मज़बूती लाने के लिये पत्थरों की चिनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले बौद्ध परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, जैन साधु-संन्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द, सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा महाकाश्यप आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ स्तूप बने हुये थे। अशोक धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन स्तूपों पर भी पूजा चढ़ाई थी।[34]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ललितविस्तर अध्याय 1
  2. विमलचरण लाहा, श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर, दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 20
  3. ‘नगरे महाराज पंचकोटिमत्ता अरियसावका भगवती उपासक-उपासिकायो सत्तण्णा सहसानि तोझि सतहससानि अनागामि फले पतित्थिता ने सब्बेऽपि गिही न पच्चजिता।’ मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 349
  4. परमत्थजोतिका, भाग 1, पृष्ठ 371; सामंतपासादिका, भाग 3, पृष्ठ 636
  5. 46- भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 237
  6. विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963), पृष्ठ 59
  7. ‘राजगंह कपिलवस्थुतो दूरं सट्ठि योजनानि, सावत्थि पन पंचदश। सत्था राजगहतो पंचतालीसयोजनं आगन्त्या सावत्थियं विहरति।’ मच्झिमनिकाय, अट्ठकथा, 1/3/4
  8. कुशीनगर
  9. पावामोतीचंद्र, सार्थवाह, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, 1953), पृष्ठ 17
  10. सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13
  11. मच्झिमनिकाय, पालि टेक्स्ट् सोसायटी, लंदन, भाग 1, पृष्ठ 473; मोतीचंद्र, सार्थवाह, पृष्ठ 17
  12. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 239
  13. ‘वुक्कसाति नाम कुलपुत्रो (तक्कसलातो) अट्ठ हि उनकानि योजनसतानि गतो जेतवनद्वारकोठकस्थ पर समीपे गच्छत्तो’ मच्झिमनिकाय, अट्ककथा, 3/4/10
  14. ‘सावत्थितो संकस्य नगरं तिसयोजनानि’ धम्मपद अट्ठकथा, 14/2
  15. राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 20
  16. चेनाव
  17. ‘वीसं योजनसतं पच्चुग्गत्वा चंद्रभागाय नदियातोरे’ धम्मपद अट्ठकथा 6/4
  18. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 237
  19. तंहि जेतेन राजकुमारेन रोपितं संवर्द्धिंत परिपालित। सो च तस्सि सामी अहोसि, तस्मा, जेतवने ति वुच्चति॥ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 60
  20. उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 118
  21. भिक्षु विश्राम स्थल
  22. आँगनयुक्त घर
  23. सभागृह
  24. भंडार
  25. टहलने के स्थान
  26. विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ 462; बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 240; तुल. विशुद्धानन्द पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 61
  27. बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31
  28. धम्मपदटीका, भाग 1, पृष्ठ 384; अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग (हिन्दी अनुवाद, भदंत आनंद कौसल्यायन, महाबोधि सभा, कलकत्ता 1957, पृष्ठ 212 मेमायर्स आदि दि आर्कियोलाजिक सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 25
  29. राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 79
  30. हत्थिखंडम् भारोहेय्य
  31. मज्झिमनिकाय, भाग 2, पृष्ठ 22
  32. देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84
  33. अर्थात् पूरबी मठ
  34. हमारे पुराने नगर |लेखक: डॉ. उदय नारायण राय |प्रकाशक: हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहाबाद |पृष्ठ संख्या: 43-46 |
  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

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