ब्रजभाषा की साहित्य यात्रा
बोलचाल की भाषा और साहित्यिक ब्रजभाषा में अन्तर करने की आवश्यकता दो कारणों से पड़ती है, बोलचाल की ब्रजभाषा ब्रज के भौगोलिक क्षेत्र के बाहर उपयोग में नहीं लाई जाती, जबकि साहित्यिक ब्रजभाषा का उपयोग ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवियों ने भी उसी कुशलता के साथ किया है, जिस कुशलता के साथ ब्रजक्षेत्र के कवियों ने किया है। दूसरा अन्तर यह है कि बोलचाल की ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच में एक मानक ब्रज है, जिसमें ब्रजभाषा के उपबोलियों के सभी रूप स्वीकार्य नहीं है, दूसरे शब्दों में ब्रजक्षेत्र के विभिन्न रूप-विकल्पों में से कुछ ही विकल्प मानक रूप में स्वीकृत हैं और इस मानक रूप को ब्रज के किसी क्षेत्र विशेष से पूर्ण रूप से जोड़ना सम्भव नहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि, ब्रज प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा मानक ब्रज का आधार बनती है। जिस तरह मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली बोली (जिसे कौरवी नाम दिया गया है) मानक हिन्दी से भिन्न है, किन्तु उसका व्याकरणिक ढाँचा मानक हिन्दी का आधार है, उसी तरह मध्यवर्ती ब्रज का ढाँचा मानक ब्रज का आधार है। मानक ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच भी उसी प्रकार का अन्तर है, यह भेद वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और उक्ति-भंगिमा के स्तरों पर भी रेखांकित होता है। यह तो भाषा विज्ञान का माना हुआ सिद्धान्त है कि, साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में अन्तर प्रयोजनवश आता है और चूँकि साहित्यिक भाषा अपने सन्देश से कम महत्व नहीं रखती और उसमें बार-बार दुहराये जाने की, नया अर्थ उदभावित करने की क्षमता अपेक्षित होती है, उसमें मानक भाषा की यान्त्रिकता अपने आप टूट जाती है, उसमें एक-दिशीयता के स्थान पर बहुदिशीयता आ जाती है और शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास सब इस प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिए कुछ न कुछ बदल जाते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्याकरण बदल जाता है या शब्द कोश बदल जाता है, केवल व्याकरण और शब्द के कार्य बदल जाते हैं, क्योंकि दोनों अतिरिक्त सोद्देश्यता से विद्युत चालित कर दिये जाते हैं।
जनमानस की भाषा
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में ठीक ही कहा है कि, गीतिकाव्य की रचना के लिए ब्रजभाषा का व्यवहार सर्वव्यापी था, जो निर्गुणपंथी सन्त कवि उपदेश की भाषा के लिए खड़ी बोली पर आधारित सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग करते थे, वे ही गेय पदों की रचना करते समय ब्रजभाषा का प्रयोग ही प्राय: करते हैं। इसी तरह प्रबन्धकाव्य लिखते समय भले ही अधिकतर लोगों ने पूर्वी क्षेत्र में अवधी भाषा, पश्चिम क्षेत्र में डिंगल का प्रयोग किया, किन्तु गेय पदों या मुक्तकों की रचना करते समय पूर्व या पश्चिम हर एक प्रदेश के कवि ब्रजभाषा का अध्ययन करते हैं। एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। एक अंग्रेज़ी अधिकारी मेजर टॉमस डुएरब्रूटन (1814) ने ‘सलेक्शन फ़्रॉए दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में निरक्षर सिपाहियों से लोकप्रिय पदों का संग्रह किया और उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस संग्रह में संकलित मुक्तकों में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं। सभी सरल हों, ऐसी बात नहीं, केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं। इससे यह बात स्पष्ट प्रमाणित होती है कि, मौखिक परम्परा से ब्रजभाषा के छन्द दूर-दूर तक फैले और लोगों ने उन्हें रस और चाव से कंठस्थ किया। उनके अर्थ पर विचार किया और उन्हें अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया। इस मायने में साहित्यिक ब्रजभाषा का भाग्य आज की साहित्यिक हिन्दी की अपेक्षा अधिक स्पृहणीय है।
सांस्कृतिक एकता की कड़ी
भक्ति की धारा को आलौकिक मानना ही ग़लत है, उसी प्रकार रीतिकालीन कविता को दरबारी कविता या एक रुँधे हुए जीवन की कविता मानना भी ग़लत है। दोनों कविताओं की भूमि लोक है और इसी कारण दोनों में अभिव्यक्ति और वर्ण्य-विषय दोनों ही स्तरों पर सामान्य जीवन को मुख्य आधार माना गया है। इसलिए बिम्ब अधिकतर कुछ एक अपवादों को छोड़कर सामान्य जीवन के ही ब्रजभाषा साहित्य में मिलते हैं और इसीलिए ब्रजभाषा काव्य में तरह-तरह के ठेठ मुहावरे मिलते हैं, जो उस काव्य के सौन्दर्य को विशेष दीप्ति प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए रसखान की यह पंक्ति, ‘वारहि गोरस बेचन जाहु री माइ लें मूड़ चढ़ै जिन मौड़ी’, जहाँ मूड़ चढ़ने का मुहावरा ठेठ ब्रज गाँव से लिया गया मुहावरा है। भिखारीदास की इस पंक्ति में आया मुहावरा ‘वा अमरइया ने राम-राम कही है’ अवधी क्षेत्र के ठेठ प्रयोग के द्वारा एक आत्मीय आमंत्रण का स्वर जगाया गया है या बोधा की इस पंक्ति में ‘कवि बोधा न चाउ सरी कबहूँ नितही हरबा सौ हिरैबौ करै’, जंगल में खो जाने वाले पशुओं की तरह एक असहाय स्थिति का बोध कराया गया है। ब्रजभाषा काव्य की यात्रा जितनी एकांगी मानी जाती है, उतनी एकांगी है नहीं। उसमें एक बिन्दु पर स्वर अवश्य ही मिलता है, वह बिन्दु है, तरह-तरह के भेदों और अलगावों को बिसराकर एक सामान्य भाव-भूमि तैयार करना। इसी कारण ब्रजभाषा कविता हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई तक व्याप्त हुई। केवल छन्द और सवैया लिखने वाले मुसलमान कवियों की संख्या डेढ़ सौ से ऊपर है।
उन्नीसवीं शताब्दी के एक मुसलमान अध्यापक हफ़ीजुल्ला ने विषय वार चयन के एक हज़ार कवित्त-सवैयों का संकलन तैयार करके छपाया। उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद धमार में, चाहे ख्याल में, चाहे ठुमरी में या दादरे में, सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है। इसका कारण केवल संगीत का वर्ण्य-विषय प्यार ही नहीं है, इसका कारण एक समान भाव-भूमि की तलाश है। मध्ययुग और उत्तर मध्ययुग के चित्रकारों ने भी ब्रजभाषा काव्य से प्रेरणा ली है, जैसा की पहले ही कहा जा चुका है, कुष्ठ ने ब्रजभाषा की कविता भी की। देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी चार शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई है।
ब्रजभाषा साहित्य का कोई अलग इतिहास नहीं लिखा गया है, इसका कारण यह है कि हिन्दी और ब्रजभाषा दो सत्ताएँ नहीं हैं। यदि दो हैं भी तो, एक-दूसरे की पूरक हैं। परन्तु जिस प्रकार की अल्प परिश्रम से विद्या प्राप्त करने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ती जा रही है, जिस तरह का संकीर्ण उपयोगितावाद लोगों के मन में घर करता जा रहा है, उसमें एक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, कि हिन्दी साहित्य को यदि पढ़ना-पढ़ाना है तो, उसे श्रीधर पाठक या मैथिलीशरण गुप्त से शुरू करना चाहिए। यह कितना बड़ा आत्मघात है, उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साहित्य या संस्कृति में इस प्रकार की विच्छिन्नता तभी आती है, जब कोई जाति अपने भाव-स्वभाव को भूलकर पूर्ण रूप से दास हो जाती है। हिन्दुस्तान में ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी, आज आ सकती है, यदि इस प्रकार विच्छेद करने का प्रयत्न हो।
ब्रजभाषी गेय पद रचना
चण्डीदास, विद्यावति तथा गोविन्दस्वामी को छोड़कर गेय पद रचना पर ब्रजभाषा का अक्षुण्ण अधिकार है। तुलसीदास जी ने स्वयं भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया। अवधी में उन्होंने रामचरितमानस लिखा। ब्रजभाषा में विनय-पत्रिका, गीतावली, दोहावली, कृष्ण-गीतावली लिखी, ठेठ अवधी में उन्होंने पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल लिखा और यही नहीं साहित्यिक ब्रजभाषा के भी अनेक रूप उन्होंने प्रस्तुत किए। स्तुतियों के लिए तत्सम बहुल भाषा का उपयोग करने में उन्हें यह आकर्षण हुआ कि ये स्तुतियाँ एक विशेष प्रकार की गरिमा का प्रभाव उत्पन्न कर सकेंगी। किन्तु आत्म-निवेदन की भाषा को उन्होंने तद्भव बहुल रखा, जिससे उनका आत्म-निवेदन सामान्य जन के आत्म-निवेदन के समीप हो। ब्रजभाषा साहित्य के द्वितीय चरण की यह विशेषता है कि उसमें विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषणों, विभिन्न प्रकार की शैली प्रयुक्तियों का आविष्कार और विकास किया गया है। इस दृष्टि से ब्रजभाषा को साहित्य की भाषा बनाने में इस काल के रससिद्ध कवियों की बड़ी ज़बर्दस्त भूमिका है। सबसे अधिक श्रेय इस विषय में सूरदास को दिया जाना चाहिए। सूर ब्रजभाषा के पहले कवि हैं, जिन्होंने इसकी सृजनात्मक सम्भावनाओं की सबसे अधिक सार्थक खोज की और जिन्होंने ब्रजभाषा को गति और लोच देकर इसकी यान्त्रिकता तोड़ी। सूर के बाद ब्रजभाषा में परिष्कार या साज-संवार या निखार के प्रयत्न तो अवश्य हुए और ब्रजभाषा की काव्य धारा एक लम्बे अरसे तक गतिशील और विकासशील काव्य धारा बनी रही, पर सूर की ब्रजभाषा में जो प्राणवत्ता मिलती है, वह उस मात्रा में अन्यत्र नहीं मिलती। इसके दो मुख्य कारण हैं, एक तो यह कि सूर ने लीला के मोहक और दृश्य वितान को श्रव्य से भी अधिक गेय रूप में परिवर्तित करने का प्रयत्न किया, इस कारण उसमें नाटकीय आरोह-अवरोह अपने आप आया। दूसरा कारण यह है कि सूर के लिए भाषा साधन थी। साध्य नहीं और साधन का अभ्यास उन्होंने इतनी लम्बी अवधि तक किया कि वह साधन हो गया और वह भाषा भी सहज हो गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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