भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (द्वितीय चरण)

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भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (द्वितीय चरण)
विवरण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन, भारत की आज़ादी के लिए सबसे लम्बे समय तक चलने वाला एक प्रमुख राष्ट्रीय आन्दोलन था।
शुरुआत 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही इस आंदोलन की शुरुआत हुई, जो कुछ उतार-चढ़ावों के साथ 15 अगस्त, 1947 ई. तक अनवरत रूप से जारी रहा।
प्रमुख संगठन एवं पार्टी गरम दल, नरम दल, गदर पार्टी, आज़ाद हिंद फ़ौज, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, इंडियन होमरूल लीग, मुस्लिम लीग
अन्य प्रमुख आंदोलन असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, स्वदेशी आन्दोलन, नमक सत्याग्रह
परिणाम भारत स्वतंत्र राष्ट्र घोषित हुआ।
संबंधित लेख गाँधी युग, रॉलेट एक्ट, थियोसॉफिकल सोसायटी, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, इण्डियन कौंसिल एक्ट, हार्टोग समिति, हन्टर समिति, बटलर समिति रिपोर्ट, नेहरू समिति, गोलमेज़ सम्मेलन
अन्य जानकारी भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
  1. प्रथम चरण
  2. द्वितीय चरण
  3. तृतीय चरण
आन्दोलन का द्वितीय चरण (1905-1919 ई.)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इस चरण में एक ओर उग्रवादी तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन चलाये गये। दोनों ही एक मात्र उद्देश्य, ब्रिटिश राज्य से मुक्ति एवं पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति, के लिए लड़ रहे थे। एक तरफ़ उग्रवादी विचारधारा के लोग 'बहिष्कार आन्दोलन' को आधार बनाकर लड़ रहे थे तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग बमों और बन्दूकों के उपयोग से स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते थे। जहाँ एक ओर उग्रवादी शान्तिपूर्ण सक्रिय राजनीतिक आन्दोलनों में विश्वास करते थे, वहीं क्रातिकारी अंग्रेज़ों को भारत से भगाने में शक्ति एवं हिंसा के उपयोग में विश्वास करते थे।

भारत में उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल ने किया। इन नेताओं के योग्य नेतृत्व में ही यह आन्दोलन फला-फूला। तिलक मानते थे कि "अच्छी विदेशी सरकार की अपेक्षा हीन स्वदेशी सरकार श्रेष्ठ है।" तिलक ने 'गणपति उत्सव' एवं 'शिवाजी उत्सव' को शुरू करवाकर भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की दिशा में प्रयास किया।

उग्रवादिता के कारण

  • ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार कांग्रेस की मांगो के प्रति अपनायी जाने वाली उपेक्षापूर्ण नीति ने कांग्रेस के युवा नेताओं, जैसे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल को अन्दर तक आन्दोलित कर दिया। इन युवा नेताओं ने उदारवादी नेताओं की राजनीतिक भिक्षावृति में कोई विश्वास नहीं जताया। इन्होंने सरकार से अपनी मांगे मनवाने के लिए कठोर क़दम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान ने भी उग्रवाद के उदय में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति में अपनी पूर्ण निष्ठा जताई, परन्तु दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द, दयानंद सरस्वती, तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष एवं विपिनचन्द्र पाल जैसे लोग भी थे, जिन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति से श्रेष्ठ प्रमाणित किया। अरविन्द घोष ने कहा कि "स्वतंत्रता हमारे जीवन का उद्देश्य है और हिन्दू धर्म ही हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा। राष्ट्रीयता एक धर्म है और वह ईश्वर की देन है। ऐनी बेसेन्ट ने कहा कि "सारी हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढकर है।"
  • 1876 ई. से 1900 ई. के मध्य भारत लगभग 18 बार अकाल की चपेट में आ चुका था, जिसमें धन-जन की भीषण हानि हुई। 1897-1898 ई. में बम्बई में प्लेग की बीमारी की चपेट में आकर लगभग 1 लाख, 73 हज़ार लोग काल कवलित हो गये। सरकार ने इस दिशा में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे इस बीमारी को रोका जा सकता, बल्कि उल्टे प्लेग की जाँच के बहाने भारतीयों के घरों में उनकी बहन-बेटियों के साथ अमानवीय व बर्बरता का व्यवहार किया गया। तिलक ने सरकार की इस काली करतूत की अपने पत्र 'केसरी' में कटु आलोचना की, जिसके कारण उन्हें 18 महीने तक सख्त पहरे में जेल में रहना पड़ा। प्लेग के समय की ज्यादतियों से प्रभावित होकर पूना के 'चापेकर बन्धुओं' (दामोदर एवं बालकृष्ण) ने प्लेग अधिकारी रैण्ड एवं आमर्स्ट को गोली मार दी। निःसंदेह इन घटनाओं ने उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया।
  • लॉर्ड बेकन का यह कथन कि 'अधिक दरिद्रता और आर्थिक असंतोष क्रान्ति को जन्म देता है', भारत के संदर्भ में अक्षरशः सत्य है, क्योंकि अंग्रेज़ों की तीव्र आर्थिक शोषण की नति ने सचमुच भारत में उग्रवाद को जन्म दिया। शिक्षित भारतीयों को रोज़गार से दूर रखने की सरकार की नीति ने भी उग्रवाद को बढ़ावा दिया। दादाभाई नौरोजी ने 'ड्रेन थ्योरी' का प्रतिपादन कर अंग्रेज़ राज्य की शोषण नीतियों का अनावरण कर दिया। गोविन्द रानाडे की 'ऐसे इन इंडियन इकोनोमिक्स, रमेश चन्द्र दत्त की 'इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, आदि पुस्तकों ने अंग्रेज़ी राज्य की आर्थिक नीतियों की ढोल की पोल खोल दी। इसने उग्रवाद एवं स्वराज्य की दिशा में नेताओं को उन्मुख किया।
  • तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का भी उग्रवादी तत्वों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। मिस्र, फ़ारस एवं तुर्की में सफल स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीयों को काफ़ी उत्साहित किया। 1896 ई. में अफ़्रीका का पिछड़े एवं छोटे राष्ट्र अबीसीनिया या इथियोपिया ने इटली को परास्त कर दिया। 1905 ई. में जापान की रूस पर विजय आदि से सचमुच उग्र राष्ट्रवादी लोगों को बढ़ावा मिला। गैरेट ने माना था कि "इटली की हार ने 1897 में लोकमान्य तिलक के आन्दोलन को बड़ा बल प्रदान किया।"
  • लॉर्ड कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों का भारतीय युवा मन पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई। कर्ज़न के सात वर्ष के शास काल को 'शिष्टमण्डलों, भूलों तथा आयोगों का काल' कहा जाता है। कर्ज़न के प्रतिक्रियावादी कार्यों, जैसे- 'कलकत्ता कॉरपोरेशन अधिनियम', 'विश्विद्यालय अधिनियम' एवं 'बंगाल विभाजन' ने भारत में उग्रवाद को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
  • भारत में उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल ने किया। इन नेताओं के योग्य नेतृत्व में ही यह आन्दोलन फला-फूला। तिलक मानते थे कि "अच्छी विदेशी सरकार की अपेक्षा हीन स्वदेशी सरकार श्रेष्ठ है एवं 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे मै लेकर रहूँगा।" तिलक ने 'गणपति उत्सव' एवं 'शिवाजी उत्सव' को शुरू करवाकर भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की दिशा में प्रयास किया।

लाजपत राय का कथन

लाला लाजपत राय कहा- "अंग्रेज़ भिखारी से अधिक घृणा करते हैं ओर मैं सोचता हूँ कि भिखारी घृणा के पात्र हैं भी। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम यह सिद्ध कर दें कि हम भिखारी नहीं है।" विपिन चन्द्र पाल ने बंगाल के युवाओं का नेतृत्व किया। उन्हें बंगाल में 'तिलक का सेनापति' माना जाता है। कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारण, जैसे- उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किया जाने वाले दुर्व्यवहार, जातीय कटुता एवं भारतीयों के साथ किये जाने वाले अभद्र व्यवहार भी भारत में उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने के लिए उत्तरादायी रहे।

राजनीतिक लक्ष्य एवं कार्य प्रणाली

कांग्रेस के चार प्रमुख नेताओं- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल एवं अरविन्द घोष ने भारत में उग्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व किया। इन नेताओं ने स्वराज्य प्राप्ति को ही अपना प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य बनाया। तिलक ने नारा दिया कि 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।' इसके अलावा उन्होंने कहा 'स्वराज्य अथवा स्वशासन स्वधर्म के लिए आवश्यकता है।' स्वराज्य के बिना न कोई सामाजिक सुधार हो सकता है, न कोई औद्योगिक प्रगति, न कोई उपयोगी शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता। यही हम चाहते हैं और इसी के लिए ईश्वर ने मुझे इस संसार में पैदा किया है।' अरविन्द घोष ने कहा कि 'राजनीतिक स्वतन्त्रता एक राष्ट्र का जीवन श्वास है। बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता के सामाजिक तथा शैक्षिणक सुधार, औद्योगिक प्रसार, एक जाति की नैतिक उन्नति आदि की बात सोचना मूर्खता की चरम सीमा है।' जहाँ उदारवादी दल के नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत 'औपनिवेशिक स्वशासन' चाहते थे, वहीं उग्रवादी नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश शासन का अन्त कर ही हम स्वराज्य या स्वशासन प्राप्त कर सकते हैं। उदारवादी दल संवैधानिक आन्दोलन में, अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता में, वार्षिक सम्मेलनों में, भाषण देने में, प्रस्ताव पारित करने में और इंग्लैण्ड को शिष्टमडल भेजने में विश्वास करता था। उग्रवादी नेता अहिंसात्मक प्रतिरोध, सामूहिक आन्दोलन एवं आत्म बलिदान में विश्वास करते थे। सर हेनरी कॉटन ने कहा कि 'उग्रवादी भारत में सब प्रकार से मुक्त और स्वतंत्र राष्ट्रीय शासन प्रणाली की स्थापना करना चाहते थे।'

बहिष्कार आन्दोलन

अपनी मांगों को मनवाने के लिए उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति को अस्वीकार करते हुए उसे उग्रवादियों ने 'राजनीतिक भिक्षावृत्ति' की संज्ञा दी। तिलक ने कहा कि 'हमारा उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।' विपिन चन्द्र पाल ने कहा कि 'यदि सरकार मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो, तो मैं उपहार के लिए धन्यवाद देते हुए कहूँगा कि 'मै उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता, जिसको प्राप्त करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।' इन नेताओं ने विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी माल को अंगीकार कर राष्ट्रीय शिक्षा एवं सत्याग्रह के महत्व पर बल दिया। उदारवादी नेता स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे और उनका बहिष्कार आन्दोलन विदेशी माल के बहिष्कार तक ही सीमित था, किन्तु उग्रवादी नेता इन आन्दोलनों का प्रसार देश के विस्तृत क्षेत्र में करना चाहते थे। इनके बहिष्कार आन्दोलन की तुलना गांधी जी के 'असहयोग आन्दोलन' से की जा सकती है। ये बहिष्कार आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध तक ले जाना चाहते थे। केवल विदेशी कपड़े का ही बहिष्कार नहीं, अपितु सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों सरकारी नौकरियों का भी बहिष्कार इसमें शामिल था।

क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े संगठन एवं संस्थापक
स्थापना वर्ष संगठन स्थान संस्थापक
1901 ई. मित्र मेला पूना सावरकर बन्धु
1902 ई. अनुशीलन समिति मिदनापुर ज्ञानेन्द्र नाथ बोस
1904 ई. अभिनव भारत पूना वी.डी. सावरकर
1905 ई. स्वदेश बांधव समिति वारिसाल अश्विनी कुमार दत्त
1907 ई. अनुशीलन समिति ढाका वारीन्द्र कुमार घोष तथा भूपेन्द्रनाथ दत्त
1907 ई. भारत माता सोसाइटी पंजाब अजीत सिह एवं अम्बा प्रसाद
1923 ई. हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिऐशन कानपुर शचीन्द्रनाथ सान्याल
1926 ई. नौजवान सभा लाहौर भगत सिंह
1928 ई. हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोएसिएशन दिल्ली चन्द्रशेखर आज़ाद

लाला लाजपत राय ने बहिष्कार के सन्दर्भ में कहा कि 'हम लोगों ने राजनिवास से मुख मोड़कर निर्धनों की झोपड़ियों की ओर कर लिया है।' यही है बहिष्कार आन्दोलन की मनोवृत्ति, नीति एवं आत्मिक महत्व। उग्रवादी नेताओ ने राष्ट्रीय शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हुए इसी में भारतीयों के हित के निहित होने की बात कही। विपिन चन्द्र पाल ने कहा 'राष्ट्रीय शिक्षा वह शिक्षा है, जो राष्ट्रीय रूपरेखाओं के आधार पर चलाई जाय, जो राष्ट्र के प्रतिनिधियों द्वारा नियंत्रित हो और जो इस प्रकार नियंत्रित एवं संचालित हो, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय भाग्य की प्राप्ति हो।' गुरुदास बनर्जी ने बंगाल में 'राष्ट्रीय शिक्षा परिषद' एवं तिलक ने 'दक्षिण शिक्षा समाज' की स्थापना की। बाल गंगाधर तिलक ने सरकार के साथ असहयोग करने की सलाह दी।

क्रान्तिकारी आन्दोलन

बम और पिस्तौल की राजनीति में विश्वास रखने वाले क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग समझौते की राजनीति में कदापि विश्वास नहीं करते थे। उनका उद्देश्य था- 'जान दो या जान लो।' बम की राजनीति उनके लिए इसलिए आवश्यक हो गयी थी, क्योंकि उन्हें अपनी भावनायें व्यक्त करने या आज़ादी के लिए संघर्ष करने का और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था। आतंकवादी शीघ्र-अतिशीघ्र परिणाम चाहते थे। वे उदारवादियों की प्रेरणा और उग्रवादियों के धीमें प्रभाव की नीति में विश्वास नहीं करते थे। मातृभूमि को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिए वे हत्या करना, डाका डालना, बैंक, डाकघर अथवा रेलगाड़ियों को लूटना सभी कुछ वैध समझते थे। क्रान्तिकारी विचारधारा के सर्वाधिक समर्थक बंगाल में थे। उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के प्रति घृणा थी। वे बोरिया-बिस्तर सहित अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भगाना चाहते थे। 'वारीसाल सम्मेलन' के बाद 22 अप्रैल, 1906 ई. के अख़बार 'युगांतर' ने लिखा, 'उपाय तो स्वयं लोगों के पास है। उत्पीड़न के इस अभिशाप को रोकने के लिए भारत में रहने वाले 30 करोड़ लोगों को अपने 60 करोड़ हाथ उठाने होंगें, बल को बल द्वारा ही रोका जाना चाहिए।' इन क्रान्तिकारी युवकों ने आयरिश आतंकवादियों एवं रूसी निहलिस्टों (अतिवादी) के संघर्ष के तरीकों को अपनाकर बदनाम अंग्रेज़ अधिकारियों को मारने की योजना बनाई। इस समय देश के अनेक भागों में, मुख्यतः, महाराष्ट्र एवं पंजाब में क्रान्तिकारी कार्यवाहियाँ हुई।

बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन

अगर यह मान लिया जाये कि बंगाल क्रान्तिकारी आन्दोलन का गढ़ था, तो अतिशयोक्ति न होगी। बंगाल में क्रान्तिकारी विचारधारा को बारीन्द्र कुमार घोष एवं भूपेन्द्रनाथ (विवेकानन्द के भाई) ने फैलाया। 1906 ई. में इन दोनों युवकों ने मिलकर 'युंगातर' नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया। बंगाल में क्रान्तिकारी आन्दोलन की शुरुआत 'भद्रलोक समाज' नामक समाचार पत्र ने की। इस समाचार पत्र ने क्रान्ति के प्रचार में सर्वाधिक योगदान दिया। पत्र के द्वारा लोगों में राजनीतिक व धार्मिक शिक्षा का प्रचार किया गया। बारीन्द्र घोष एवं भूपेन्द्रनाथ के सहयोग से ही 1907 ई. में मिदनापुर में 'अनुशीलन समिति' का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य था 'खून के बदले खून'। 'अनुशीलन समिति' के अलावा बंगाल की 'सुह्रद समिति' (मायसेन सिंह), 'स्वदेशी बांधव समिति' (वारीसाल), 'व्रती समिति' (फ़रीदपुर) आदि क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करती थीं। अनेक क्रान्तिकारी समाचार पत्रों का भी बंगाल से प्रकाशन शुरु हुआ, जिसमें ब्रह्म बंद्योपाध्याय द्वारा प्रकाशित 'सन्ध्या', अरविन्द्र घोष द्वारा सम्पादित 'वन्देमातरम', भूपेन्द्रनाथ दत्त द्वारा सम्पादित 'युगान्तर' आदि प्रमुख थे। वारीसाल में पुलिस द्वारा किये गए लाठी चार्ज पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये 'युगान्तर' ने कहा कि 'अंग्रेज़ सरकार के दमन को रोकने के लिए भारत की तीस करोड़ जनता अपने 60 करोड़ हाथ उठाए और ताकत का मुकाबला ताकत से किया जाये।'

क्रान्ति से जुड़े पत्र/पत्रिकाएँ व सम्पादक
पत्रिकाएँ/पुस्तकें संपादक/प्रकाशक
भवानी मंदिर अरविन्द घोष
युगान्तर बारीन्द्र कुमार घोष
सन्ध्या ब्रह्म बंधोपाध्याय
वंदेमातरम् मैडम भीकाजी कामा (लंदन में)
बम मैनुअल पी.एन. बापट
वन्दी जीवन शचीन्द्रनाथ सान्याल
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम वी.डी. सावरकर
भारत माता अजीत सिंह

बंगाल के क्रान्तिकारियों में हेमचन्द्र क़ानूनगों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने पेरिस में एक रूसी से सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर 1908 ई. में कलकत्ता में स्थित 'माणिकतल्ला' में बम बनाने हेतु कारख़ाना खोला। 23 दिसम्बर, 1907 ई. को ढाका के पूर्व ज़िलाधीश एलेन की पीठ पर गोली मारी गयी। प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने किंग्सफ़ोर्ड को मारने के लिए उस पर बम फेंका, परन्तु वह बच गया। पुलिस के घेरे से बचने के लिए चाकी ने स्वयं को गोली मार ली, जबकि खुदीराम बोस पकड़े गये। अन्ततः उन्हें 11 मई, 1908 ई. को फाँसी दे दी गयी। इस घटना के बाद पुलिस ने माणिकतल्ला पर छापा मारा। 34 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें बारीन्द्र घोष और अरविन्द घोष भी थे। इन सब पर 'अलीपुर षड़यन्त्र केस' के तहत मुकदमा चलाया गया। बारीन्द्र घोष को आजीवन कारावास की सज़ा मिली तथा अरविन्द को उचित साक्ष्य के अभाव में छोड़ दिया गया। 1905 ई. में बारीन्द्र कुमार घोष ने 'भवानी मंदिर' नामक क्रान्ति से सम्बन्धित पुस्तक लिखी।

बंगाल के एक और क्रान्तिकारी जतीन्द्र नाथ मुखर्जी थे, जिन्हें 'बाघा जतिन' के नाम से भी जाना जाता था। 9 सितम्बर, 1915 को बालासोर में पुलिस द्वारा मुठभेड़ में मारे गए। बंगाल के एक महान् क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस थे, जिन्होंने कलकत्ता से दिल्ली राजधानी परिवर्तन के समय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका था। गिरफ्तारी से बचने के लिए रासबिहारी बोस जापान चले गये थे। अवध बिहारी, अमीरचन्द्र, लाल मुकुंद, बसंत कुमार को गिरफ्तार कर इन पर 'दिल्ली षड़यंत्र' के तहत मुकदमा चलाया गया। बंगाल में बढ़ रही क्रान्तिकारियों की गतिविधियों के दमन हेतु सरकार ने 1900 ई. में 'विस्फोटक पदार्थ अधिनियम' तथा 1908 ई. में 'समाचार पत्र अधिनियम' का सहारा लेकर क्रान्ति को कुचलने का प्रयास किया। सरकार के दमन चक्र के चलते अरविन्द घोष क्रान्तिकारी क्रिया-कलापों को छोड़कर संन्यासी हो गए तथा पांडिचेरी में अपना आश्रम स्थापित कर लिया। ब्रह्म बंद्योपाध्याय, जिन्होंने सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर को 'गुरुदेव' कहकर सम्बोधित किया था, रामकृष्ण मठ में स्वामी जी बन गए।

पंजाब में क्रान्तिकारी आन्दोलन

पंजाब में 1906 ई. के प्रारम्भ में ही क्रान्तिकारी आन्दोलन फैल गया था। पंजाब सरकार के एक 'उपनिवेशीकरण विधेयक' के कारण किसानों में व्यापक असन्तोष व्याप्त था। इसका उद्देश्य चिनाब नदी के क्षेत्र में भूमि की चकबन्दी को हतोत्साहित करना तथा सम्पत्ति के विभाजन के अधिकारों में हस्तक्षेप करना था। इसी समय सरकार ने जल कर में वृद्धि करने का फैसला किया, जिससे जनता में असन्तोष फैल गया। इस तूफ़ान को उठता देखकर सरकार बेचैन हो गई। उसने रावलपिन्डी में आन्दोलन को कुचलने की दृष्टि से सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगा दी तथा लाला लाजपत राय व अजीत सिंह को गिरफ्तार कर माण्डले जेल भेज दिया गया। 1915 ई. में पंजाब में एक संगठित आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की गई, जिसमें निश्चित किया गया कि 21 फ़रवरी, 1915 को सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजाया जाय। यह योजना सरकार को पता चल गई। अनेक नेता पकड़े गये तथा इन पर 'लाहौर षड़यन्त्र' का मुकदमा चलाया गया। इन नेताओं में पृथ्वी सिंह, परमानंद, करतार सिंह, विनायक दामोदर सावरकर, जगत् सिंह, आदि देशभक्त थे। अमेरिका में 'ग़दर पार्टी' की स्थापना के बाद पंजाब ग़दर पार्टी की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था। अजीत सिंह ने लाहौर में 'अंजुमन-ए-मोहिब्बान-ए-वतन' नामक संस्था की स्थापना की तथा 'भारत माता' नाम से अख़बार निकाला।

महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन

महाराष्ट्र में क्रान्तिकारी आन्दोलन को उभारने का श्रेय लोकमान्य तिलक के पत्र 'केसरी' को जाता है। तिलक ने 1893 ई. 'शिवाजी उत्सव' मनाना आरम्भ किया। इसका उद्देश्य धार्मिक कम राजनीतिक अधिक था। महाराष्ट्र में 1893-1897 ई. के बीच प्लेग फैला व अंग्रेज़ सरकार ने मरहम लगाने के बजाय दमन कार्य किया। अतः 22 जून, 1897 ई. को प्लेग कमिश्नर आमर्स्ट की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस सम्बन्ध में दामोदर चापेकर को पकड़कर मृत्यु दण्ड दे दिया गया। तिलक को भी विद्रोह भड़काने के आरोप में 18 माह का कारावास दिया गया। 1908 ई. में बम्बई प्रांत के चार देशी भाषा के समाचार पत्रों पर सरकार ने कहर ढाया। 24 जून, 1908 ई. को तिलक को फिर गिरफ्तार किया गया और 'केसरी' में प्रकाशित लेखों के आधार पर पहले तो उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, फिर 6 वर्ष की सज़ा दे दी गई। बम्बई में इसके विरोध में मज़दूरों ने जबरदस्त हड़ताल की, जो छह दिनों तक चली। महाराष्ट्र में नासिक भी क्रान्तिकारी आन्दोलन का गढ़ था। विनायक दामोदर सावरकर ने 1901 ई. में नासिक में 'मित्रमेला' नामक संस्था की स्थापना की, जो कि मेजिनी के 'तरुण इटली' के नमूने पर 'अभिनव भारत' में परिवर्तित हो गयी। इस संस्था के मुख्य सदस्य अनन्त लक्ष्मण करकरे ने नासिक के न्यायाधीश जैक्शन की गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्याकाण्ड से जुड़े लोगों पर 'नासिक षड़यन्त्र केस' के तहत मुकदमा चलाया गया, जिसमें सावरकर के भाई गणेश शामिल थे; जिन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली। महाराष्ट्र से महत्त्वपूर्ण क्रान्तिकारी पत्र 'काल' का सम्पादन किया गया।

विदेशो में क्रान्तिकारी आन्दोलन

विदेशों में भारतीय क्रान्तिकारी संगठन
स्थापना वर्ष संगठन संस्थापक देश
1905 ई. इण्डिया हाउस श्यामजी कृष्णा वर्मा लंदन (इंग्लैण्ड)
1906 ई. अभिनव भारत वी.डी. सावरकर लंदन (इंगलैण्ड)
1907 ई. इण्डियन इण्डिपेंडेन्स लीग तारकनाथ दास अमेरिका
1913 ई. ग़दर पार्टी लाला हरदयाल, रामचन्द्र व बरकतुल्ला सैन फ़्राँसिस्को
1914 ई. इण्डियन इंडिपेंडेन्स लीग लाला हरदयाल व बारीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय बर्लिन (जर्मनी)
1915 ई. इण्डियन इंडिपेंडेन्स लीग व स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार राजा महेन्द्र प्रताप क़ाबुल (अफ़ग़ानिस्तान)
1942 ई. इण्डियन इण्डिपेंडेन्स लीग रास बिहारी बोस टोक्यो (जापान)
1942 ई. आज़ाद हिन्द फौज सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर

अंग्रेज़ी प्रशासन के चंगुल से बचने के लिए क्रान्तिकारियों ने विदेशों में रहकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़ाई लड़ी। प्रथम चरण के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समय ही क़ाबुल (अफ़ग़ानिस्तान) में राजा महेन्द्र प्रताप ने जर्मनी के सहयोग से दिसम्बर, 1915 में 'अंतरिम भारत सरकार' की स्थापना की। मंत्रिमण्डल के अन्य सहयोगी सदस्यो में मौलाना अब्दुल्लाह, मौलाना बशीर, सी. पिल्लै, शमशेर सिंह, डॉक्टर मथुरा सिंह, खुदा बक्श और मुहम्मद अली प्रमुख थे। बरकतुल्लाह अस्थाई सरकार में प्रधानमंत्री थे। इसी दौरान राजा महेन्द्र प्रताप अपनी सरकार के समर्थन के लिए लेनिन से मिले थे। फ़रवरी, 1905 में भारत से बाहर लन्दन की धरती पर श्यामजी कृष्ण वर्मा के द्वारा 'इण्डियन होमरूल सोसायटी' की स्थापना की गई। इसे 'इण्डिया हाउस' की संज्ञा दी जाती है। अब्दुल्लाह सुहारवर्दी इसके उपाघ्यक्ष थे। 'इण्डियन होमरूल सोसायटी' ने 'इण्डियन सोसिआलाजिस्ट' नामक पत्रिता भी निकाली। शीघ्र ही 'इण्डिया हाउस' लन्दन में निवास करने वाले भारतीयों के लिए आन्दोलन का केन्द्र बन गयी। इस संस्था के अन्य सदस्य थे- लाला हरदयाल, मदन लाल धींगरा, विनायक दामोदर सावरकर आदि।

'इण्डिया हाउस' के सदस्य मदन लाल धींगरा ने 1 जुलाई, 1909 को भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार विलियम हंट कर्जन वाइली की गाली मारकर हत्या दी। धींगरा को गिरफ्तार कर फाँसी दे दी गयी। श्यामजी कृष्ण वर्मा की एक अन्य सहयोगी मैडम भीकाजी कामा थीं। यह महाराष्ट्र के पारसी परिवार से सम्बन्धित थीं। इन्होंने 1902 में भारत छोड़ दिया तथा यूरोप के विभिन्न देशों में भारत में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध प्रचार किया। इन्होंने 1907 में स्टुटगार्ट (जर्मनी) में अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में भारत की ओर से भाग लिया। यहीं उन्होंने भारत का राष्ट्रीय तिरंगा ध्वज फहराया। मैडम कामा को 'मदर ऑफ़ इण्डियन रिवोल्यूशन' कहा जाता है। 1908 ई. में 'इण्डिया हाउस' ने 1857 ई. की क्रांति की स्वर्ण जयंती मनाने का निश्चय किया। सावरकर ने इस विद्रोह को 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' की संज्ञा दी। यह विचार उन्होंने अपनी पुस्तक 'द इंडियन वार ऑफ़ द इंडिपेंडेंस' में व्यक्त किया। 'द ग्रेव वार्निग' नामक पुस्तक की प्रतियाँ भी लंदन में बांटी गयीं।

1913 ई. में अनेक भारतीय लोगों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में सैन फ़्राँसिस्को (अमेरिका) में 'ग़दर पार्टी' की स्थापना की। इसके अध्यक्ष सोहन सिंह थे। लाला हरदयाल इस पार्टी के प्रचार विभाग के सचिव थे। इस संगठन ने 'युगांतर प्रेस' की स्थापना कर 1 नवम्बर, 1913 से 'गदर' नामक साप्ताहिक (बाद में मासिक) पत्र का सम्पादन किया। यह समाचार पत्र हिन्दी, गुरुमुखी, उर्दू एवं गुजराती भाषा में निकाला जाता था। ग़दर समाचार पत्र में छपने वाली कविताओं को 'ग़दर की गूंज' शीर्षक से प्रकाशित किया जाता था। इस दल के अन्य नेता थे- रामचन्द्र, बरकतुल्ला, रास बिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, अब्दुल रहमान एवं मैडम कामा आदि। प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी एवं ब्रिटेन के आमने-सामने होने के कारण जर्मनी ने भारतीय क्रान्तिकारियों कों आर्थिक एवं अस्त्र-शस्त्र का सहयोग देने के लिए एक 'इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी' की स्थापना की। मौलवी उबेदुल्ला सिंधी द्वारा कुछ पत्र महमूद हसन को पीली सिल्क पर फ़ारसी भाषा में लिखा गया। बाद में पत्रों के पकड़े जाने पर इसे 'सिल्क पेपर षड़यंत्र' के नाम से जाना गया।

कलकत्ता अधिवेशन (1906 ई.)

कांग्रेस का 'कलकत्ता अधिवेशन' 1906 ई. में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में नरम दल तथा गरम दल के बीच जो मतभेद थे, वह उभरकर सामने आ गये। इन मतभेदों के कारण अगले ही वर्ष 1907 ई. के 'सूरत अधिवेशन' में कांग्रेस के दो टुकड़े हो गये और अब कांग्रेस पर नरमपंथियों का क़ब्ज़ा हो गया।

सूरत अधिवेशन (1907 ई.)

कांग्रेस का 'सूरत अधिवेशन' 1907 ई. में सूरत में सम्पन्न हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से यह अधिवेशन अति महत्त्वपूर्ण था। गरम दल तथा नरम दल के आपसी मतभेदों के कारण इस अधिवेशन में कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गई। इसके बाद 1916 ई. के 'लखनऊ अधिवेशन' में पुन: दोनों दलों का आपस में विलय हुआ।

मुस्लिम लीग की स्थापना

1 अक्टूबर, 1906 ई. को एच.एच. आगा ख़ाँ के नेतृत्व में मुस्लिमों का एक दल वायसराय लॉर्ड मिण्टो से शिमला में मिला। अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसपल आर्चबोल्ड इस प्रतिनिधिमण्डल के जनक थे। इस प्रतिनिधिमण्डल ने वायसराय से अनुरोध किया कि प्रान्तीय, केन्द्रीय व स्थानीय निर्वाचन हेतु मुस्लिमों के लिए पृथक् साम्प्रादायिक निर्वाचन की व्यवस्था की जाय। इस शिष्टमण्डल को भेजने के पीछे अंग्रेज़ उच्च अधिकारियों का हाथ था। मिण्टो ने इनकी मांगो का पूर्ण समर्थन किया। जिसके फलस्वरूप मुस्लिम नेताओं ने ढाका के नवाब सलीमुल्ला के नेतृत्व में 30 दिसम्बर, 1906 ई. को ढाका में 'मुस्लिम लीग' की स्थापना की।

मार्ले मिण्टो सुधार

जब लॉर्ड मिण्टो भारत का गवर्नर बना, तब उस समय समूचा भारत राजनीतिक अशान्ति की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ रहा था। लॉर्ड मिण्टो ने इस अशान्ति के बारे में स्वयं लिखा था कि "ऊपर से शांत दिखने वाली सतह के नीचे राजनीतिक अशान्ति का गुबार छिपा था और उनमें से बहुत कुछ नितांत न्यायोचित था।" तत्कालीन भारत सचिव जॉन मार्ले एवं वायसराय लॉर्ड मिण्टो ने सुधारों का 'भारतीय परिषद एक्ट, 1909' पारित किया, जिसे 'मार्ले मिण्टो सुधार' कहा गया। 25 मई को विधेयक पारित हुआ तथा 15 नवम्बर, 1909 को राजकीय अनुमोदन के बाद लागू हो गया। इस एक्ट के अन्तर्गत केंद्रीय तथा प्रन्तीय विधानमण्डलो के आकार एवं उनकी शक्ति में वृद्धि की गई।

राजद्रोह सभा अधिनियम

मार्ले मिण्टो सुधारों पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उग्रवादी संगठनों ने अपनी क्रान्तिकारी गतिविधयों को काफ़ी तेज कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1911 ई. में 'राजद्रोह सभा अधिनियम' पारित करके उग्रवादी दल के नेता लाला लाजपत राय एवं अजीत सिंह को गिरफ्तार कर आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया।

दिल्ली दरबार

1911 ई. में ही दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन इंग्लैण्ड के सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मेरी के स्वागत में किया गया। उस समय भारत का वायसराय लॉर्ड हार्डिंग था। इस दरबार में बंगाल विभाजन को रद्द करने की घोषणा हुई और साथ ही बंगाली भाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाया गया। राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित करने की घोषणा हुई, यद्यपि राजधानी का दिल्ली में विधिवत स्थानान्तरण 1912 ई. में ही संभव हो सका।

कामागाटामारू प्रकरण

कामागाटामारू प्रकरण 1914 ई. में घटा। इस प्रकरण के अंतर्गत कनाडा की सरकार ने उन भारतीयों पर कनाडा में घुसने पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया, जो भारत से सीधे कनाडा न आया हो। कामागाटामारू जहाज़, जिस पर 376 यात्री सवार थे, उसे कनाडा में घुसने नहीं दिया गया। जब ये जहाज़ 'याकोहामा' पहुँचा, तब उससे पहले ही प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया। इसके बाद जब जहाज़ 'बजबज' पहुँचा तो यात्रियों व पुलिस में झड़पें हुईं। इसमें 18 यात्री मारे गये और जो शेष बचे थे, वे जेल में डाल दिये गए। हुसैन रहीम, सोहन लाल पाठक एवं बलवंत सिंह ने इन यात्रियो की लड़ाई लड़ने के लिए 'शोर कमटी' (तटीय समिति) की स्थापना की।

लखनऊ अधिवेशन (1916 ई)

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन अम्बिकाचरण मजूमदार की अध्यक्षता में 1916 ई. में लखनऊ में सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में ही गरम दल तथा नरम दल, जिनके आपसी मतभेदों के कारण कांग्रेस का दो भागों में विभाजन हो गया था, उन्हें फिर एक साथ लाया गया। लखनऊ अधिवेशन में 'स्वराज्य प्राप्ति' का भी प्रस्ताव पारित किया गया। कांग्रेस ने 'मुस्लिम लीग' द्वारा की जा रही 'साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व' की मांग को भी स्वीकार कर लिया।

होमरूल लीग आन्दोलन

'होमरूल लीग आन्दोलन' का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहते हुए संवैधानिक तरीक़े से स्वशासन को प्राप्त करना था। इस लीग के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक एवं श्रीमती एनी बेसेंट थीं। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए तिलक ने 28 अप्रैल, 1916 ई. को बेलगांव में 'होमरूल लीग' की स्थापना की थी। इनके द्वारा स्थापित लीग का प्रभाव कर्नाटक, महाराष्ट्र (बम्बई को छोड़कर), मध्य प्रान्त एवं बरार तक फैला हुआ था।

मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट

ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जॉर्ज ने भारतीय जनता को सांत्वना देने के विचार से एडविन मांटेग्यू को भारत का सचिव नियुक्त किया। मांटेग्यू को भारतीय राष्ट्रीय भावनाओ का समर्थक माना जाता था। ब्रिटिश संसद में मांटेग्यू ने कहा था कि "शिक्षित भारतीयो की मांग निःसन्देह उनका अधिकार है तथा उन्हें उत्तरदायित्व संभालने और आत्मनिर्णय का अवसर दिया जाना चाहिए।"

भारत सचिव मांटेग्यू द्वारा द्वारा 20 अगस्त, 1917 ई. को ब्रिटेन की 'कामन्स सभा' में एक प्रस्ताव पढ़ा गया, जिसमें भारत में प्रशासन की हर शाखा में भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व दिये जाने की बात कही गयी थी। इसे 'मांटेग्यू घोषणा' कहा गया। मांटेग्यू घोषणा को उदारवादियों ने 'भारत के मैग्नाकार्टा की संज्ञा' दी। नवम्बर, 1917 में मांटेग्यू भारत आये और यहाँ उन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड से व्यापक विचार विमर्श के बाद 1919 ई. में 'मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट' को जारी किया। 'मांटेग्यू घोषणा' और 'मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट' के अधार पर निर्मित 'भारत सरकार अधिनियम 1919' को मांटेग्यू ने संसद द्वारा निर्मित सरकार और भारत के जनप्रतिनिधियों के बीच सेतु की संज्ञा दी। 1919 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम' के नाम से प्रसिद्ध इस एक्ट से प्रान्तो में 'द्वैध शासन' की व्यवस्था की गई।

लोकमान्य तिलक ने इस अधिनियम को असन्तोषजनक और निराशाजनक तथा 'एक बिना सूरज का सबेरा' बताया। 1919 ई. के कांग्रेस के 'अमृतसर अधिवेशन' में कांग्रेस ने इन सुधारों को अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशाजनक बताया। 1919 ई. के सुधारों को लेकर मतभेद के कारण ही कांग्रेस में द्वितीय विभाजन हुआ। 1918 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में उदारवारी नेताओ ने मांटेग्यू सुधारों का स्वागत किया तथा कांग्रेस से अलग होकर 'अखिल भारतीय उदारवादी संघ' की स्थापना की। 1919 ई. के अधिवेशन का संवैधानिक सुधार 1921 ई. में लागू हुआ। इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तीय विषय पहली बार आरक्षित और हस्तांतरित में विभाजित हुये। पहली बार भारतीय विधानमण्डल को बजट पास करने सम्बन्धित अधिकार मिला तथा पहली बार 'लोक सेवा आयोग' की स्थापना का प्रवधान किया गया। 1919 ई. के अधिनियम की दस वर्ष बाद समीक्षा के लिए एक वैधानिक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान था, बाद में यह आयोग 'साइमन आयोग' के नाम से जाना गया।

रौलट एक्ट

रौलट एक्ट 8 मार्च, 1919 ई. को लागू किया गया। भारत में क्रान्तिकारियों के प्रभाव को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने न्यायाधीश 'सर सिडनी रौलट' की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की। कमेटी ले 1918 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कमेटी द्वारा दिये गये सुझावों के अधार पर केन्द्रीय विधानमण्डल में फ़रवरी, 1919 ई. में दो विधेयक लाये गये। पारित होने के उपरान्त इन विधेयकों को 'रौलट ऐक्ट' या 'काला क़ानून' के नाम से जाना गया।

जलियांवाला बाग़ हत्याकांड

जलियांवाला बाग़, अमृतसर, पंजाब

पंजाब के अमृतसर नगर में जलियाँवाला बाग़ नामक स्थान पर अंग्रेज़ों की सेनाओं ने भारतीय प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर बड़ी संख्या में उनकी हत्या कर दी। यह घटना 13 अप्रैल, 1919 ई. को घटित हुई। इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने 1920-1922 के 'असहयोग आंदोलन' की शुरुआत की। उस दिन वैशाखी का त्योहार था। 1919 ई. में भारत की ब्रिटिश सरकार ने रॉलेट एक्ट का शांतिपूर्वक विरोध करने पर जननेता पहले ही गिरफ्तार कर लिए थे। इस गिरफ्तारी की निंदा करने और पहले हुए गोली कांड की भर्त्सना करने के लिए जलियाँवाला बाग़ में शांतिपूर्वक एक सभा आयोजित की गयी थी। 13 अप्रैल, 1919 को तीसरे पहर दस हज़ार से भी ज़्यादा निहत्थे स्त्री, पुरुष और बच्चे जनसभा करने पर प्रतिबंध होने के बावजूद अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में विरोध सभा के लिए एकत्र हुए थे।

हन्टर समिति

'हन्टर समिति' की स्थापना ब्रिटिश सरकार द्वारा 1 अक्टूबर, 1919 ई. को की गई थी। लॉर्ड हन्टर को इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। देश में जलियांवाला बाग़ के हत्याकांड को लेकर जो उग्र प्रदर्शन आदि हुए, उससे विवश होकर अंग्रेज़ सरकार ने घटना की जाँच करने के लिए 'हन्टर समिति' की स्थापना की। इस समिति ने जलियांवाला बाग़ के सम्पूर्ण प्रकरण पर लीपा-पोती करने का प्रयास किया। ब्रितानिया अख़बारों में घटना के लिए ज़िम्मेदार जनरल डायर को 'ब्रिटिश साम्राज्य का रक्षक' और 'ब्रिटिश साम्राज्य का शेर' आदि कहकर सम्बोधित किया गया।


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