भारतीय संस्कृति के आधार -विद्यानिवास मिश्र
भारतीय संस्कृति के आधार -विद्यानिवास मिश्र
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लेखक | विद्यानिवास मिश्र |
मूल शीर्षक | भारतीय संस्कृति के आधार |
प्रकाशक | प्रभात प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2006 |
ISBN | 81-7315-581-X |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 152 |
भाषा | हिंदी |
विधा | निबंध संग्रह |
विशेष | विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। |
भारतीय संस्कृति के आधार हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।
सारांश
भारतीय संस्कृति जीवन के रस का तिरस्कार नहीं हैं, नकार नहीं है, पर एक अलग ढंग का स्वीकार है। भारतीय संस्कृति जीवन को केवल भोग्य रुप में ही नहीं देखती है; वह जीवन को भोक्ता के रुप में भी देखती है; बल्कि ठीक-ठीक कहें तो जीवन को भाव के रुप में, अव्यय भाव के रुप में, न चुकने वाले भाव के रुप में देखती है; अंग-अंग कट जाय, तब भी मैदान न छूटे-ऐसे सूरमा के भाव के रूप में देखती है। इस जीवन में मृत्यु नहीं होती, होती भी है। तो वह जीवन का पुनर्नवीकरण के रुप में होती है। आनंद क्या भोग में नहीं है, भोग प्रस्तुत करने में नहीं है ? खजुराहो में एक म्रियमाण माँ की मूर्ति देखी थी। वह बच्चे को दूध पिला रही है, शायद अपने रूप की अंतिम बूँद दे रही है। एकदम कंकाल है, पर चेहरे पर अद्भुत आह्वाद है। सूली के ऊपर सेज बिछाने में क्या मीरा को कम आनंद मिलता है। आनंद क्या इसमें है कि मुझे कुछ मिल गया या इसमें है। कि मैं कहीं खो गया ! यदि मनुष्य के जीवन में चरम आनंद है तो प्यार तो खोना ही है, पाना कहाँ हैं; हाँ, जो है, उससे कुछ अलग होना है; पर वह होना खोने के बिना कब संपन्न होता है।
संक्षिप्त भूमिका
संस्कृति पर केंद्रित लेखों का यह संग्रह आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र के उन सरोकारों को रेखांकित करता है, जिनके लिए वे आजीवन कटिबद्ध होकर के उन सरोकारों को रेखाकिंत करता है, जिनके लिए वे आजीवन कटिबद्ध होकर समर्पित रहे। उनके लिए संस्कृति समग्र जीवन के स्पंदन के रूप में रची बसी प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक वस्तुवादी दृष्टि की नजर नहीं लगी है। संस्कृति इस अर्थ में विलक्षण है कि वह देश काल से जुड़ी भी है और उसका अतिक्रमण भी करती है। अनुभव में बिंधी संस्कृति इस अर्थ में परंपराजीवी है कि वह अतीत और भविष्य के बीच सेतु बनाती चलती है। मनुष्य की रचनाधर्मिता के प्रमाण के रूप में संस्कृति चेतना के नए-नए प्रतिमान गढ़ती है, पर उसके उपादान आस-पास पसरे नए- पुराने भौतिक और वैचारिक स्रोत होते हैं। पंडितजी ने सजग बौद्धिक निर्भीकता के साथ भारतीय जीवन दृष्टि को उभारने का प्रयास किया है, जो निरंतरता, परिपूरकता परस्पर संबद्धता पर बल देती है। यह दृष्टि व्यक्ति और समष्टि के बीच तालमेल बिठाती है और सर्व की चिंता करती है।
बड़े ही सटीक शब्दों में पंडितजी ने धर्म को उन छद्म आवरणों से अलग कर जीवन के स्वभाव के रूप में प्रतिष्ठित किया है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही नहीं अपितु लोक-जीवन के प्रसंगों की सहायता से पंडितजी सहजता से यह दरशाते हैं कि धर्म बाँटता नहीं है, तोड़ता नहीं है, न ही वह विरोध में खेमे खड़े करता है। धर्म की शक्ति ही है सबको धारण करना। इस संग्रह में एक लेख आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी पर है, जो यह दिखाता है कि अपनी रचना-कर्म में सबको समेटने वाली व्यापक भारतीय दृष्टि को द्विवेदी जी किस तरह प्रयोग में लाते थे। मिश्रजी ने उसे संघिनी-शक्ति कहा है और दरशाया है कि किस तरह व्यापक प्रयोजन के लिए द्विवेदीजी विभिन्न तथ्यों, स्रोत्रों का रचनात्मक उपयोग करते थे, जो एक सीमा तक चमत्कारी लगता है। इस संग्रह के कई निबंध पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे और कुछ अप्रकाशित थे। इस रूप में प्रस्तुत करने के पहले ही पंडितजी हम सब को अचकचाया छोड़ विदा ले लिये। उनकी रचनाएँ पाठकों तक पहुँचें, इस दृष्टि से हम सभी स्रोत्रों से उन्हें एकत्र कर रहे हैं। भाई डॉ. दयानिधि मिश्र ने बड़े श्रम से इस कार्य का बीड़ा उठाया है। इस संग्रह को तैयार करने में उमाकांत त्रिपाठी तथा अभिलाषा ने विशेष योगदान दिया है, उनका आभार।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मिश्र, गिरीश्वर। भारतीय संस्कृति के आधार (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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