भ्रमरानंद का पचड़ा -विद्यानिवास मिश्र
भ्रमरानंद का पचड़ा -विद्यानिवास मिश्र
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लेखक | विद्यानिवास मिश्र |
मूल शीर्षक | भ्रमरानंद का पचड़ा |
प्रकाशक | ज्ञान गंगा |
प्रकाशन तिथि | 2 मार्च, 2002 |
ISBN | 81-88139-21-1 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 99 |
भाषा | हिंदी |
विधा | निबंध संग्रह |
विशेष | विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। |
भ्रमरानंद का पचड़ा हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।
सारांश
शंकरजी ने पल्ला झाड़ लिया कि धर्म के बिना हमारा काम नहीं चलेगा, हम अलग ही रह कर सरकार को समर्थन देगें। हमने तरह-तरह के लोगों को समर्थन दिया है। उससे कभी-कभी गड़बड़ भी हुई है। उस समर्थन से रावण-बाणासुर फूले-फले हैं। मैं अपने गण आप को देता हूँ कि इन्हें अपनी सरकार में, पुलिस में भर्ती कर लें। चाहे तो सेना में भरती कर सकते हैं। ये बड़े समदर्शी हैं और इन्हें किसी का कोई लिहाज नहीं है। इन्हें देखते ही आतंक भी आतंकित रहता हैं।’ विष्णु भगवान ने कहा कि ‘साल में चार महीना सोते हैं, अब पाँच साल सो लेगें। एक दिन जाएगें, केवल यह देखने सुनने के लिए कि सरकार के नक्शे कदम क्या है। ‘इन्द्र ने कहा कि मैं सेकुलर तो हो सकता हूँ, लेकिन जनतन्त्र में मेरी कोई आस्था नहीं हैं। कुछ समय तक जनतन्त्र चल जाए, तब मैं सरकार में शामिल होने की बात सोचूँगा। कुबेर ने कहा कि ‘मैंनें तो खजाना सँभाला है। पहले राजतन्त्र का संभालता था, अब जनतन्त्र का सँभालूँगा। मेरे गण दो प्रकार के हैं-यक्ष हैं, जो जगह-जगह निधियों की रक्षा करते हैं और चोरी करने वालों को तत्काल पकड़कर हाथ-पाँव तोड़ देते हैं; गंधर्व हैं, जो संस्कृति रीति के परिचालन करते हैं। इन्द्र के हुकूम से अब तक नाचते-गाते थे; अब जो नेता होगा, उसके हुकूम से नाचेंगे-गाएँगे।’ पवनदेव ने कहा कि ‘मैं सरकार में शामिल होने के लिए तैयार हूँ। जनतन्त्र तो स्वयं अपने आप में हवा है, मुझे अनुकूल पड़ेगा। सेकुलर भी अंतरिक्षी व्यापार ही है। दोनों मुझे स्वीकार हैं। नेता तो नहीं बनूँगा, विदेश मंत्री का पद सँभाल सकता हूँ।’ अग्नि ने कहा, ‘सेकुलर सरकार में यह तो होंगे नहीं, हमारे लिए और बकरे के लिए खाने-पीने की पूरी व्यवस्था हो जाए तो मैं किसी सरकार का साथ देने के लिए तैयार हूँ।’
पुस्तक के कुछ अंश
पचड़े का पचड़ा
बहुत पहले कभी ‘भ्रमरानंद के पत्र’ नाम से एक संकलन आया था और वे एक तरह से लुप्त ही हो गए थे। इधर ‘हिन्दुस्तान ’ के साप्ताहिक संस्करण के काम देखने वाले श्री शंभुनाथ सिंह के माध्यम से उसके संपादक ने अनुरोध किया, और मैंने उसके रविवासरीय अंक के लिए स्तंभ लिखना शुरू किया। मुझे तब अंदाज़नहीं था कि भ्रमरानंद का पचड़ा इतना लंबा खिंचेगा कि पुस्तक बन जाएगा। पर लोगों की अभिरुचि का तगादा हुआ और पचड़ा फैलता गया। इस पचड़े को फैलाने में हिन्दी के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्क लेखक श्री गोपाल चतुर्वेदी की प्रेरणा का बहुत बड़ा योगदान है। हास्य-व्यंग्य के बारे में कुछ विशेष न कहकर वर्षों पूर्व कविता लिखी थी, हँसी पर, वह मैं दुहरा देता हूँ-
हँसी उठ गई है
मेरे जीवन में हँसी उठ गई है
वैसे कोई दुर्दिन आया नहीं दिखता,
न कोई उदास होने की ख़ास वजह दिखती है,
न कोई खतरा दिखता है, न खौफ
बस यों ही हँसना अर्थहीन हो गया है।
एक-दो बेतुकी बातें हों तो हँसी आती है
पर जब सारी-की-सारी बातें बेतुकी हो गई हों
बेतुकापन जिंदगी की पीठ तक
नाप चुका हो,
तब सिर नवाकर बेतुकेपन को नया अवतार मानना होता है
तब बेतुकेपन पर हँसा नहीं जाता,
तब हँसना ही कुछ बेतुका हो जाता है।
डरना, तड़पना, रूठना, मचलना, मनना, मनाना
मरना, मारना प्यार में या नफरत से
जाने कब से चले आ रहे हैं,
जानवर या वहशी था आदमी, तब से
पर हँसना किसी एक दिन यकायक उसने सीखा
शायद उसी दिन उसने बोलना सीखा
बात और हँसी बाँटे बिना नहीं चलता,
आज बाँटते-बाँटते आदमी इतना बँट गया है
कि चलता है बाँटने हँसी और बाँट देता है जहर
हँसी और जहर दोनों घुल-मिल गए हैं न,
और आदमी का ध्यान बँटा रहता है
कि चलता है पर्त खोलने कुछ बातों की
और चुप्पी की तह-की-तह उघड़ी जाती है।
शायद हँसना-बोलना
दोस्तों या दुश्मनों के बीच ही मुमकिन है, न दुश्मनी
जेठ की घूरती हुई सुबह की रोशनी
मन के आसमान से दोस्ती के उभार को
सपाट करने लगी है,
दुश्मनी की रेघारियों को पाटने लगी है
दोस्त कहीं हैं तो अदृश्य हैं
दुश्मन कहीं हैं तो आस-पास, छिपे हुए घात में।
ऐसे में क्या बात होगी,
क्या हथमिलौवर होगी
क्या हँसी-ठट्ठा होगा,
हँसी की कोर मर गई है,
क्योंकि दोस्ती और दुश्मनी का पानी मर गया है,
महज दँतनिपोरी रह गई है।
मुझे किसी से शिकवा-शिकायत नहीं
मेरी हँसी किसी ने चुराई नहीं
मेरी हँसी पर कोई डाका नहीं पड़ा
मैं झूठमूठ किस पर तोहमत लगाऊँ,
जमाने ही ग़रीब को क्यों कोसूँ
कितने तो मौके दे रहा हूँ हँसने को
हँसी न आए तो जमाना क्या करे।
मायूसी न होते हुए भी
एकदम खाते-पीते हँसी कहीं चली गई है,
हँसी नहीं आती
इस बात पर भी नहीं कि
आदमी हँसना भूल गया है।
नहीं-नहीं अंग्रेजी में एक जानवर है जो हँसता है
वह लकड़बग्घे की हँसी हँसना सीख गया है।
अकेले मैं हूँ जिसे कोई भी हँसी नहीं आती।
इस कविता से पाठक आतंकित न हों, न इसे गंभीरता से लें। आप भ्रमरानंद के पचड़े में तो न पड़ें, पर पचड़े का रस लें। निहायत ही उदास जमाने में भ्रमरानंद ही एक गनीमत हैं। उनके चाहक पाठक भी गनीमत हैं। -विद्यानिवास मिश्र[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भ्रमरानंद का पचड़ा (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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