मधुसूदन दास
मधुसूदन दास माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् 1839 में 'रामाश्वमेधा' नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंध काव्य बनाया, जो सब प्रकार से गोस्वामी जी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध, अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन, इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिल्कुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी हैं।
- भाषा सौष्ठव
पदविन्यास और भाषा सौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामी जी की प्रणाली के अनुसरण में मधुसूदन दास जी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्वशक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्चकोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्ता गोस्वामी जी चौपाइयों में बेखटक मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टिवाले भाषा मर्मज्ञों को केवल थोड़े ही से ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की भाषा होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलों पर गोस्वामी जी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामी जी के मेल का है। -
सिय रघुपति पद कंज पुनीता। प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता॥
मृदु मंजुल सुंदर सब भाँती। ससि कर सरिस सुभग नख पाँती॥
प्रणत कल्पतरु तर सब ओरा। दहन अज्ञ तम जन चित चोरा॥
त्रिविधा कलुष कुंजर घनघोरा। जगप्रसिद्ध केहरि बरजोरा॥
चिंतामणि पारस सुरधेनू। अधिक कोटि गुन अभिमत देनू॥
जन-मन मानस रसिक मराला। सुमिरत भंजन बिपति बिसाला॥
निरखि कालजित कोपि अपारा। विदित होय करि गदा प्रहारा॥
महावेगयुत आवै सोई। अष्टधातुमय जाय न जोई॥
अयुत भार भरि भार प्रमाना। देखिय जमपति दंड समाना॥
देखि ताहि लव हनि इषु चंडा। कीन्ही तुरत गदा त्रय खंडा॥
जिमि नभ माँह मेघ समुदाई। बरषहिं बारि महा झरि लाई॥
तिमि प्रचंड सायक जनु ब्याला। हने कीस तन लव तेहि काला॥
भए विकल अति पवन कुमारा। लगे करन तब हृदय बिचारा॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 257-58।
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