मलंग
मलंग आमतौर पर अपनी ही धुन में रहने वाले मस्तमौला तबीयत के इन्सान को कहा जाता है, किंतु मलंग भी सूफ़ी दरवेशों का एक सम्प्रदाय है, जो रहस्यवादी होते हैं। लम्बा चोगा, लोहे के कड़े और कमर में जंजीर, लम्बे बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी और हाथ में कमण्डलनुमा भिक्षापात्र, जिसे 'कश्कोल' कहा जाता है, इनकी मुख्य पहचान है। साधारणत: मलंग मुस्लिम होते हैं। भारत आने के बाद कलंदरों और मलंगों पर नाथपंथी प्रभाव पड़ा और चिमटा, कनछेदन और भभूत जैसे प्रतीकों को इन्होंने भी अपना लिया। वैसे मलंग उसी फ़कीर को कहा जाता है, जो किसी सम्प्रदाय से संबद्ध न हो।
प्रभाव
वह संत या फ़कीर जिसका सम्प्रदाय और परंपरा के स्तर पर कहीं भी जुड़ाव न हो, उसे लापरवाह, बेपरवाह, निश्चिंत और मनमौजी कहा जा सकता है। इन्हें ही मस्त मलंग कहा जाता है। मलंगों के प्रभाव में कई हिन्दू वैरागी-विरक्त भी मलंग कहे जाने लगे थे। महाराष्ट्र की संत परंपरा में कई संतों के नाम के आगे मलंग शब्द लगता है। नाथपंथी 'नवनाथ अवतार' कहे जाने वाले प्रसिद्ध संत 'मत्स्येन्द्रनाथ' यानि 'मच्छिन्द्रनाथ'[1] को महाराष्ट्रवासी 'मलंगमच्छिंद्र' कहते हैं। कल्याण के पास समुद्र तट पर एक क़िला है, जिसे 'मलंगगढ़' कहा जाता है, जहाँ 'मलंगमच्छिंद्र' की समाधि है। यह जगह हिन्दू और मुस्लिम दोनों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। संत एकनाथ और पंढरीनाथ के साथ भी श्रद्धालु मलंग शब्द लगाते हैं। सूफ़ियों की तरह ही मलंगों के साथ भी संगीत परंपरा जुड़ी हुई है। कई कव्वालियों में मलंग शब्द 'मुरीद', 'भक्त' और 'शिष्य' के अर्थ में आता है।[2]
व्युत्पत्ति
हिन्दी-उर्दू में मलंग शब्द फ़ारसी भाषा के माध्यम से आया। संस्कृत, अवेस्ता, फ़ारसी के किसी संदर्भ में इस शब्द की ठीक-ठीक व्युत्पत्ति नहीं मिलती। इस्लाम का सूफ़ी रूप लगभग नौवीं सदी में आकार लेने लगा था। चीन का ताओवादी अध्यात्म इससे सदियों पहले का है। तब तक बौद्ध धर्म के कई भिक्षु भारत से मध्य एशिया और चीन की ओर जा चुके थे। इससे स्पष्ट है कि ताओवादी परंपराओं का ज्ञान भी बरास्ता सोग्दियाना होकर ईरान की धरती तक पहुँच चुका था। इसलिए मलंग का चीनी मूल दूर की कौड़ी नहीं है। आध्यात्मिक आदान-प्रदान में विचारों के साथ-साथ शब्दावली भी सहेजी जाती है।
जीवन-यापन
भारत में पंजाब में कई स्थानों पर मलंगों की दरगाहें हैं। फ़कीरों और कलंदरों की तरह ही मलंग भी मूलतः भिक्षावृत्ति पर ही निर्भर रहते हैं। अधिकतर मलंग एकाकी ही होते हैं और फक्कड़ बन कर यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं। कई मलंग पहुँचे हुए संतों की दरगाह पर भी पड़े रहते हैं। मलंग भी गृहस्थाश्रम में रहते हैं। ये वे मलंग हैं, जिन्होंने आजीविका के लिए सेवा संबंधी कोई पेशा अपना लिया है। आमतौर पर वैद्यकी इसके अंतर्गत आती है। इलाज के नाम पर मलग झाड़-फूँक, टोना-टोटका, काला-जादू और जड़ी-बूटी तक पर आज़माइश करते रहते हैं। यह काम इनके यहाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। मलंगों की अलमस्त जीवन शैली होती है। वे खूब भांग खाते हैं, चरस पीते हैं। शैवों की परंपरा में ये धूँनी भी रमाते हैं। कुछ विशिष्ट नारे भी इनके द्वारा लगाये जाते हैं, जैसे- "लला है दिले जान नसीबे सिकंदर..."। इनकी बोली में ठाठ से महादेवबाबा जैसे शब्द भी सुनने को मिल जाते हैं। चाहे वे मुस्लिम ही क्यूँ न हों।[2]
विभिन्न धारणाएँ
जॉन शेक्सपियर की अंग्रेज़ी-उर्दू डिक्शनरी के अनुसार मलंग मुहम्मदिया दरवेश होते हैं, जो लम्बा चोगा पहनते हैं और लम्बे बाल रखते हैं। इसी तरह की बात जॉन प्लैट्स की हिन्दी-उर्दू-अंग्रेज़ी डिक्शनरी में भी है, बस उसमें इनके फक्कड़, घुमक्कड़, यायावर, अबूझ और बेपरवाह शख्सियत का भी संकेत है। मोहम्मद ताहिर द्वारा संपादित 'इन्साइक्लोपीडिक सर्वे ऑफ़ इस्लामिक कल्चर' में सूफ़ी मत पर चीन के ताओवादी प्रभाव की चर्चा करते हुए अहमद अनानी मलंग की व्युत्पत्ति खोजते हुए इसे चीनी मूल का सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार यह ताओवादी 'मंग-लंग' से मिलकर बना है। ताओवादी शब्दावली में एक शब्द है- 'मंग', जिसमें महत्त्वपूर्ण या आदरणीय व्यक्ति जैसे भाव हैं। किंतु इस शब्द में यायावर, घुमक्कड़, दरवेश का भाव अधिक है। अनान इसका साम्य जिप्सियों से बैठाते हैं, जो घुमक्कड़ जनजाति है। इनकी समानता चमत्कारी योगियों, सूफ़ियों, कलंदरों से भी बताई गई है। लेखक हरबर्ट जिल्स की चीनी-अंग्रेज़ी डिक्शनरी के हवाले से ल्यियू-मेंग शब्द सामने लाते हैं। चीनी भाषा में 'ल्यियू' शब्द का अर्थ होता है- 'भ्रमणशील' अर्थात् 'घुमक्कड़'। इसी तरह चीनी शब्द 'लंग' का अर्थ होता है- 'आदरणीय', 'सम्मानित', 'प्रमुख' आदि। इस तरह मंग-लंग का अर्थ होता है, घुमक्कड़ संन्यासी या दरवेश।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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