महापरिनिर्वाण
महापरिनिर्वाण (अंग्रेज़ी: Mahaparinirvana) एक संस्कृत है जिसका अर्थ है- 'मुक्ति' या 'अंतिम मृत्यु'। सिद्धार्थ ही गौतम बुद्ध थे। जो आगे चलकर [बौद्ध धर्म]] के प्रवर्तक बने। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिंहली अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर भगवान बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई. पूर्व स्वीकार की गयी है। भगवान बुद्ध को 'तथागत' भी कहा जाता है।
बुद्ध
बुद्ध का जन्म शाक्य वंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं। सिद्धार्थ की मां मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थीं। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे या फिर एक महान साधु। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो व्यक्ति उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।
गौतम बुद्ध की मृत्यु 483 ई. में पूर्व कुशीनारा में हुई थी। उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं। लेकिन उनकी मृत्यु के मत में बौद्ध बुद्धिजीवी और इतिहासकार एकमत नहीं हैं।
विभिन्न मत
बौद्ध ग्रंथ 'महापरिनिर्वाण सूक्त' में पाली भाषा में उल्लेखित है, 'उस वर्ष बारिश से पहले बुद्ध राजगृह में थे। वहां से वे भिक्षु संघ के साथ यात्राएं करते वैशाली पहुंचे। यहां पास के बेल्ग्राम में उन्होंने वर्षावास किया। यहां वे बीमार हो गये। स्वस्थ होने पर वे फिर अम्बग्राम, भंडग्राम, जम्बूग्राम, भोगनगर आदि की यात्रा करते पावा नामक ग्राम में पहुंचे। वे यहां चुंद कम्मारपुत्र नामक एक लुहार के आमों के वन में ठहरे। उसने खाने में उन्हें मीठे चावल, रोटी व मद्दव दिया। बुद्ध ने मीठे चावल व रोटी तो औरों को दिलवा दिए पर मद्दव इसलिए किसी को नहीं दिया क्योंकि उन्होंने समझ लिया था, यह कोई अन्य पचा नहीं सकेगा। स्वयं उन्होंने भी जरा सा खाया। शेष जमीन में गड़वा दिया। इसको खाते ही वे बीमार हो गये थे और उनकी मृत्यु हो गई।
संभव है कि एक ग्रामीण व्यक्ति के घर कुछ खाने के कारण उनके पेट में दर्द शुरु हो गया था। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कुशीनारा चल दिये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, 'आनंद इस संधारी के चार तह करके बिठाओ। मैं थक गया हूं, लेटूंगा। आनंद मेरे लिए कुकुत्था नदी से पानी ले आओ। बुद्ध ने फिर उस कुकुत्था नदी में स्नान किया। उसके बाद वहीं रेत पर चीर बिछा कर लेट गए। कुछ देर आराम करने के बाद वह अब चलने लगे। रास्ते में उन्होंने हिरण्यवती नदी पार की। अंत में कुशीनारा पहुंचे। यहां उनका कहना था कि, 'मेरा जन्म दो शाल वृक्षों के मध्य हुआ था, अत: अन्त भी दो शाल वृक्षों के बीच में ही होगा। अब मेरा अंतिम समय आ गया है।'
आनंद को बहुत दु:ख हुआ। वे रोने लगे। बुद्ध को पता लगा तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और कहा, 'मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि जो चीज उत्पन्न हुई है, वह मरती है। निर्वाण अनिवार्य और स्वाभाविक है। अत: रोते क्यों हो? बुद्ध ने आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मानकर मत चलना। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राहुल भी भिक्षु हो गये थे। पर बुद्ध ने उन्हें कभी कोई महत्व प्राप्त नहीं होने दिया। बुद्ध की पत्नी यशोधरा अंत तक उनकी शिष्या नहीं बनीं। उनके मरने पर 6 दिनों तक लोग दर्शनों के लिए आते रहे। सातवें दिन शव को जलाया गया। फिर उनके अवशेषों पर मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्यों और वैशाली के विच्छवियों आदि में भयंकर झगड़ा हुआ। जब झगड़ा शांत नहीं हुआ तो द्रोण नामक एक व्यक्ति ने समझौता कराया कि अवशेष आठ भागों में बांट लिये जाएं। ऐसा ही हुआ। आठ स्तूप आठ राज्यों में बनाकर अवशेष रखे गये। बताया जाता है कि बाद में अशोक ने उन्हें निकलवा कर 84,000 स्तूपों में बांट दिया था।
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