मीर
मीर
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पूरा नाम | ख़ुदा-ए-सुखन मोहम्मद तक़ी |
अन्य नाम | मीर तक़ी मीर |
जन्म | 1723 ई. |
जन्म भूमि | आगरा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 1810 ई. |
मृत्यु स्थान | लखनऊ |
अभिभावक | रशीद |
कर्म-क्षेत्र | शायर |
मुख्य रचनाएँ | कुल्लियात-ए-मीर, ज़िक्र-ए-मीर |
विषय | उर्दू शायरी |
भाषा | उर्दू और फ़ारसी भाषा |
अद्यतन | 16:31, 4 मई 2012 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
मीर अथवा 'तक़ी मीर' (जन्म- 1723 ई.; मृत्यु- 1810 ई.) फ़ारसी तथा उर्दू महान् कवि थे। मीर का वास्तविक नाम 'ख़ुदा-ए-सुखन मोहम्मद तक़ी' था। साथ ही मीर का एक उपनाम 'तख़ल्लुस' भी मिलता है। इन्होंने अपना जीवन चरित्र स्वयं ही 'ज़िक्रे-मीर' नामक एक फ़ारसी पुस्तक में लिखा था।
जीवन परिचय
मीर का जन्म 1723 ई. में आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पितामह का नाम 'रशीद' था, जो 'अकबराबाद' आगरा में फ़ौजदार हुआ करते थे। लेकिन 50 वर्ष की आयु में ही वे बीमार पड़ गये। पूर्णत: निरोग होने के पूर्व ही उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा, जहाँ कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। मीर के पितामह के दो बेटे थे। बड़े विक्षिप्त थे और भरी जवानी में ही मर गये। मीर के पिता ने दो शादियाँ की थीं। पहली स्त्री से मुहम्मद हसन और दूसरी से मुहम्मद तक़ी और मुहम्मद रज़ी पैदा हुए थे, लेकिन बाद में पिता ने भी फ़क़ीरी ग्रहण कर ली और संसार में रहते हुए भी संसार का त्याग कर दिया।
बचपन
मीर जब दस-ग्यारह वर्ष के ही थे कि तभी बाप का साया इनके सिर से उठ गया। सौतेले बड़े भाई मुहम्मद हसन सामाजिक थे और मीर तक़ी से जलते थे। उन्होंने बाप की सम्पत्ति पर तो अधिकार कर लिया और क़र्ज़ का भुगतान मीर के ऊपर छोड़ दिया। लेकिन मीर तक़ी में स्वाभिमान बचपन ही से था। उन्होंने किसी से सहायता की याचना नहीं की, किंतु एक दैवीय सहायता यह मिली कि इनके पिता के एक अभिन्न मित्र मुरीद (शिष्य) सय्यद मुकम्मलख़ाँ ने अपने गुरु और मीर के पिता के मैत्री-सम्बंधों का ख़याल करके उनके पास 500 रुपये की एक हुंडी भेज दी। इन्होंने उसमें से 300 क़र्ज़ख़्वाहों को देकर जान छुड़ाई और छोटे भाई को घर छोड़कर नौकरी की तलाश में दिल्ली चले गये। वहाँ कुछ दिन भटकते रहे। संयोग से अमीर-उल-उमरा नवाब समसामुद्दौला के भतीजे ख़्वाजा मुहम्मद बासित को मीर पर दया आई। उन्होंने मीर को नवाब के सामने पहुँचा दिया। नवाब इनके बाप अली मुत्तक़ी को जानते थे। उनकी मृत्य़ु का समाचार सुनकर बहुत अफ़सोस किया और मीर के गुज़ारे के लिए एक रुपया रोज़ मुक़र्रर कर दिया।
व्यक्तित्व
मीर साहब के आख़िरी ज़माने का हुलिया मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद इन शब्दों में बयान करते है- 'मीर साहब दुबले-पतले, गंदुमी[1] रंग के थे। मीर अपना हर काम मतानत[2] और आहिस्तगी के साथ किया करते थे। मीर की आवाज़ में नरमी और मुलाइमियत थी। मीर साहब की नाजुक-मिज़ाजी और क्रोधी स्वभाव के क़िस्से बहुत मशहूर हुए हैं। लेकिन मीर की बद-दिमागी सिर्फ़ अपने से छोटों या बराबर वालों तक ही सीमित नहीं थी। मिज़ाज बिगड़ने पर वे अपने आश्रयदाताओं तक को खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते थे। मीर साहब ने जुगल किशोर को इतना सुनाया, फिर भी जुगल किशोर ने मीर साहब को अपनी ग़ज़लें दिखाई तो मीर ने सब फाड़कर फेंक दीं। मीर साहब के इस सलूक के बाद भी जुगल किशोर उनके साथ रहे। नवाब आसफ़ उद्दौला का दबदबा बड़ा मशहूर था; लेकिन मीर साहब उनसे बिल्कुल बराबरी की हैसियत से बात करते थे।
एक बार मीर नवाब के पास बैठे हुए थे। दोनों के बीच में एक किताब रखी हुई थी। नवाब साहब ने कहा "मीर साहब जरा यह किताब उठा दीजिए।" मीर साहब ने किताब उठाकर देने में भी अपनी बैइज़्ज़ती समझी और चोबदार से कहा "देखो तुम्हारे आक़ा क्या कहते हैं। नवाब बेचारे इतने अप्रतिभ[3] हुए कि खुद बढ़कर किताब उठा ली। नवाब आसफ़ उद्दौला के मरने पर नवाब सआदत अली ख़ाँ का राज हुआ। नवाब आसफ़ उद्दौला के मरने के बाद मीर साहब ने दरबार में जाना छोड़ दिया। दरबार से भी बुलावा न आया। एक दिन नवाब की सवारी निकल रही थी। मीर तहसीन की मसजिद में बैठे हुए थे। सवारी आने पर सब उठ खड़े हुए, लेकिन मीर बैठे रहे। नवाब ने अपने मुसाहिबों से पूछा कि यह कौन है। मालूम हुआ यह 'मीर' हैं। नवाब ने वापस आकर चोबदार के हाथों ख़िलअत और एक हज़ार रुपया भेजा। मीर साहब ने उसे वापस कर दिया। नवाब को और आश्चर्य हुआ। उन्होंने सय्यद 'इंशा' को भेजा।
पूछने पर मीर साहब ने कहा कि पहले तो नवाब साहब मुझे भूले रहे और अब याद भी किया तो इस तरह कि दस रुपये के नौकर के हाथ ख़िलअत भेजा। वह अपने मुल्क के बादशाह हैं तो मैं अपने मुल्क का। मुझे भूखों मर जाना मंजूर है, लेकिन यह बैइज़्ज़ती नहीं मंजूर। किसी न किसी तरह इंशा मीर को समझा-बुझाकर किसी तरह दरबार में ले गये। नवाब साहब ने उनकी बेहद ख़ातिर की और आख़िर तक करते रहे। लोगों की एक बड़ी भारी कमज़ोरी यह होती है कि वह गुण-अवगुण को अपनी जगह ठीक जगह रखकर नहीं देख पाते। जो प्यारा होता है उसकी बुराइयाँ भी प्यारी और जिससे हमारा मतभेद है, उसकी अच्छाइयाँ भी बुरी। मीर के व्यवहार को, जिसे अभद्रता के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता, आलोचकगण उसे 'आत्म-सम्मान' कहते हैं। जिस मुहल्ले में दो-चार व्यक्ति भी इतना आत्म-सम्मान रखने वाले हों, वहाँ कम से कम मेरे लिए तो दो चार दिन रहना भी मुसीबत हो जाय।' मीर' में निस्संदेह आत्म-सम्मान बहुत था, लेकिन जब आत्म-सम्मान अपनी हद से बढ़कर दूसरों का अपमान करने में परिपूर्ण हो जाता है तो उसे 'अविनय और अभद्रता कहते हैं।' मीर की मनोवृत्ति निस्संदेह इसी कोटि की थी। कुछ आलोचकों ने मीर के इस कटु व्यवहार का कारण उनके जीवन में पड़ने वाली कठिनाइयों और संघर्षों को बताया है। अपनी बात के सबूत में वे 'मीर' साहब ही का बंद पेश करते हैं-
"हालत तो यह कि मुझको ग़मों से नहीं फ़राग़
दिल सोजिशे-दरुनी से जलता है ज्यूं चिराग़
सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग़
है मजलिसों में नाम मेरा 'मीरे-बेदिमाग़'
अज़बसब कि कम-दिमाग़ी ने पाया है इश्तहार।
कटु स्वभाव
'मीर' साहब के अपने कहे के अनुसार उनके बारे में राय कैसे बनायी जा सकती हैं? तटस्थ रुप से देखने पर दिखाई देता है कि मीर पर बचपन और जवानी के दिनों में ज़रुर मुसीबतें पड़ी, लेकिन प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापे में उन्हें बहुत सुख और सम्मान मिला। जिन लोगों के साथ ऐसा होता है, वे साधारण दूसरों के प्रति और अधिक सहानुभूति रखने वाले मृदु-भाषी और गंभीर हो जाते हैं। 'मीर' की कटुता उनके अंत समय तक न गई। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसका एक ही कारण हो सकता है। वह यह कि 'मीर' प्रेम के मामले में हमेशा असफल रहे और जीवन के इस बड़े भारी प्रभाव ने उनके अवचेतन मस्तिष्क में घर करके उनमें असाधारण और कटुता भर दी। उन्हें एक बार उन्माद भी हुआ था। उससे वे अच्छे हो गये। लिकिन यह असंभव नहीं है कि दवाओं की प्रतिक्रिया ने उनके मिज़ाज में असाधारण रुप से गर्मी भर दी हो। वरना यह समझ में नहीं आता कि सूफ़ी फ़क़ीर का बेटा, जिसे शुरु ही से विश्व के कण-कण से प्रेम करने की शिक्षा दी गयी हो, इतनी कटुता का बोझ ज़िन्दगी भर किस तरह ढोता रहा। मालूम होता है कि 'मीर' को शुरु के कटु अनुभवों और उसके बाद असफल प्रेम का मानसिक झटका लगने से साधारण जनों की सदाशयता ही में नहीं उनकी समझ पर भी अविश्वास हो गया था। वे किसी और मनुष्य को अपना प्रेम न दे सके और इसकी पूर्ति मीर ने बिल्ली, कुत्ता, बकरी, मुर्गा आदि पालकर और उन पर अपना सारा प्रेम उँडेल कर की। इन जानवरों पर उन्होंने कई नज़्में लिखी हैं।
आलोचक कहते हैं कि 'मीर' साहब ने यह ख़ुराफ़ात लिखकर अपनी प्रतिष्ठा कम की है। वे बेचारे नहीं जानते कि इन्हीं जानवरों की मुहब्बत ने 'मीर' साहब को ज़िन्दा रखा, वरना उन जैसा संवेदनशील आदमी प्रेम के नितांत प्रभाव में ज़िन्दा ही नहीं रह सकता था। समाज से 'मीर' साहब को कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई देती। वे इस समाज से ऊबे हुए थे। मीर चाहते थे कि लोग जितनी चाहें उतनी मूर्खता करते रहें, बस उनसे कोई छेड़ छाड़ न करे। फ़िज़ूल का मिलना-जुलना उन्हें पसंद नहीं था। ज़बर्दस्ती मेल बढ़ाने वालों को मीर अक्सर दुत्कार दिया करते थे। मीर हमेशा अपनी धुन में मस्त रहते थे। एक दिन इसी हालत में मीर साहब टहल रहे थे और यह मिसरा गुनगुना रहे थे- 'अब के भी दिन बहार के यूंही गुज़र गये।' एक साहब मीर से उसी समय मिलने गये। सलाम किया, बैठे रहे और उठकर चले भी आये। मीर साहब ने ध्यान भी न दिया कि कौन आया था, क्यों आया कब चला गया।
उच्च मानदंड
फिर मीर साहब का मानदंड़ भी इतना ऊँचा था कि ख़ुदा की पनाह लखनऊ में किसी ने पूछा कि आपकी नज़र में कौन-कौन शायर हैं। मीर कहने लगे "दो, एक सौदा और दूसरा मैं।" कुछ देर ठहर कर बोले "और आधे ख़्वाजा मीर दर्द।" पूछने वाले ने कहा "और मीर सोज़?" भवें टेढ़ी करके बोले "मीर सोज़ भी शायर हैं?" उसने कहा, "आख़िर नवाब आसफ़ उद्दौला के उस्ताद हैं।" बोले, ख़ैर, तो पौने-तीन सही। मीर चाहते थे कि सत्पात्र ही उनसे काव्य-चर्चा करें और उस ज़माने के फ़ैशन के अनुसार हर व्यक्ति काव्य-चर्चा करता था। इससे उन्हें चिढ़ होती थी। अंग्रेज़ हाकिम, यहाँ तक कि गवर्नर-जनरल तक लखनऊ आने पर इन्हें बुलाते थे, लेकिन ये उनसे मिलने कभी न जाते थे। मीर कहते थे "मुझसे जो कोई मिलता है तो या मुक्त फ़क़ीर के ख़ानदान के ख़याल से या मेरे कलाम के सबब से मिलता है। मीर साहब को ख़ानदान से ग़रज नहीं, मेरा कलाम समझते नहीं। अलबत्ता कुछ इनाम देंगे। ऐसी मुलाक़ात में ज़िल्लत के सिवा क्या हासिल?" लेकिन सत्पात्र से वे खुले दिल से मिलते भी थे। शाद अज़ीमाबादी 'नवाए-वतन' में लिखते हैं-
"जब शैख़ रासिख उनसे मिलने गये तो 'मीर' ने कहला भेजा 'मियां, क्यों सताने आये हो ?' शैख़ साहब ने ठीकरी पर यह शेर लिखकर भेजा-
ख़ाक हूँ पर तूतिया हूँ चश्मे-मेहरो-माह का।
आँख वाला रुत्बा समझे मुझ ग़ुबारे-राह का॥
"मीर साहब फ़ौरन घर से निकल आये, गले लगाया और कहा, 'मिज़ाज मुबारक कहाँ से आये हो? क्यों मुझ ग़रीब को सरफ़राज किया?"
प्रौढ़ावस्था आने पर शेरो-शायरी के अलावा किसी बात से कोई संबंध न रखते थे। एक नवाब साहब उन्हें अपने यहाँ रहने को ले गये और ऐसा मकान दिया, जिसकी खिड़कियाँ एक बाग़ की तरफ़ खुलती थीं। संयोग से 'मीर' साहब जिस दिन आये, खिड़कियाँ बंद थीं। मीर साहब ने उन्हें खोला भी नहीं और कई बरसों तक उन्हें पता भी न चला कि इधर बाग़ भी है। एक बार एक मित्र ने बताया तो उन्हें मालूम हुआ। मित्र ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि बरसों से उन्हें बाग़ का पता भी नहीं है तो अपनी ग़ज़लों के मसविदों की तरफ़ इशारा करके मीर साहब बोले "मैं तो इस बाग की फ़िक्र में ऐसा लगा हूँ कि बाग़ की ख़बर भी नहीं।"
आत्माभिमान
मीर साहब का आत्माभिमान आरंभ में अभिमान और उद्दंडता की सरहदें छू लेता था। दिल्ली में एक मुशायरे में उन्होंने एक मसनवी 'अज़धर-नामा' पढ़ी, जिसमें उन्होंने अपने को अजगर और दूसरे कवियों में किसी को चूहा किसी को बिच्छू, किसी को कनखजूरा आदि के रुपक में पेश करके अपने को उनसे कहीं बड़ा साबित करने की कोशिश की। इसके कारण उनके पीछे और कवि पड़ गये और मीर कि बड़ी मिट्टी पलीद हुई। इसी स्वाभिमान के अतिरिक्त में वे सौदा और उस ज़माने के एक दूसरे शायर बका से भिड़ जाते थे। यह दोनों निंदा-काव्य के विशेषज्ञ थे। फलस्वरूप उनकी खूब धज्जियाँ इन लोगों ने उड़ायीं और ऐसे-ऐसे शेरे लिखे गये-
पगड़ी अपनी संभालिएगा 'मीर'।
और बस्ती नहीं, ये दिल्ली है॥
लेकिन बाद में उनके मिज़ाज में गंभीरता भी दिखाई देती है। अपनी पुस्तक 'नुकातुश्शोअरा' में उन्होंने पुराने और समकालीन कवियों की अच्छी-ख़ासी प्रशंसा की है, अपनी ग़ज़लों के शेरों में 'सौदा' की प्रशंसा भी की है। हाँ अपात्र का अपने साथ मिलना-जुलना उन्होंने अंत समय तक बर्दाश्त नहीं किया और यह असहिष्णुता इस हद तक बढ़ी हुई थी कि उसे उनकी विशेष परिस्थितियों की द्दष्टि से क्षम्य तो कहा जा सकता है, किंतु श्लाघ्य नहीं।
मीर का काव्य
डॉक्टर एजाज़ हुसैन ने 'मीर' की कला की व्याख्या निम्नलिखित थोड़े से शब्दों में कर दी है। मीर की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वे सीधे-सादे शब्दों में अपने भाव व्यक्त करते हैं, जिससे उनकी कविता बड़ी प्रभावोत्पादक हो जाती है। वे करुणा के कवि हैं। करुणा का प्रभाव भारी-भरकम शब्दों और पेचीले ढंग से बात करने में उतना नहीं पड़ता, जितना साफ़ और सीधे शब्दों में।
स्वर्गीय डॉक्टर अमरनाथ लिखते हैं- "उनकी शैली उन महाकवियों की है, जो बग़ैर प्रयास के शानदार शैली अपना लेते हैं। वे अपनी सरलता में अत्युच्च हैं। उनकी रचनाएँ पढ़ते समय प्राचीन ढंग की अभिव्यक्ति को हम भूल जाते हैं। अप्रचलित मुहावरों पर ध्यान नहीं देते और उनके विचार या शब्द चित्र पर, जो शब्द चमत्कार से अवरुद्ध या धुंधला नहीं होता है, हमारा ध्यान केन्द्रित हो जाता है।
उपर्युक्त दोनों महान् आलोचकों के कथन के बाद 'मीर' के काव्य की विशिष्टता के बारे में कुछ कहना नहीं रह जाता है। दरअसल 'मीर' का काव्य व्याख्या करने की चीज़ नहीं, अनुभव करने की चीज़ है। उनका मुख्य विषय दु:ख और करुणा है। इन दोनों की व्याख्या करने की ज़रुरत नहीं है। कौन ऐसा है, जिसे जीवन में कुछ न कुछ ये अनुभूतियाँ न हुई हों। लेकिन जिस सफलता से 'मीर' ने इन भावों का चित्रण किया है, वह औरों के बस का रोग नहीं है। उनके हर शेर से, हर मिसरे से, हर शब्द और शब्दों की करुणा की तानें उठती हैं। मुख्य पुस्तक में तो ये शेर मिलेंगे ही, यहाँ भी नमूने के तौर पर दो-चार शेर दिये जाते हैं, जिनसे 'मीर' की तबीयत का अंदाजा हो जाएगा-
हम 'मीर' तेरा मरना क्या चाहते थे लेकिन
रहता है हुए बिन कब जो कुछ कि हुआ चाहे।
अहदे- जबानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूदं
यानी रात बहुत जागे थे, सुबह हुई आराम किया।
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है।
करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूं करोगे तो क्या करोगे
जो यह अलस है दर्दमंदो कहां तलक तुम दवा करोगे।
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है।
कहता था किसू से कुछ तकता था किसू का मुंह
कल 'मीर' खड़ा था यां सच है कि दिवाना था।
आँखें पथराई, छाती पत्थर है
वह ही जाने जो इंतज़ार करे।
शुद्ध करुणा के अतिरिक्त 'मीर' के यहाँ कुछ और भी विषय हैं, यथा 'तसव्वुफ़' (सूफ़ी दर्शन) प्रेमी का आत्म विश्वास और कुछ फूहड़ विषय भी। लेकिन ये सब उनके मुख्य विषय दु:ख और करुणा से इतने दब गये हैं कि व्याख्या करना व्यावहारिक द्दष्टि से बेकार है।
मीर की भाषा
'मीर' के ज़माने की उर्दू आज की उर्दू से कुछ भिन्न थी। व्याकरण की द्दष्टि से क्रियाओं के बहुवचन आज से कुछ भिन्न दिखाई देते हैं, जैसे- आतीं जातीं के बजाय आतियाँ जातियाँ। अक्सर जगह 'ने' का प्रयोग उड़ा दिया जाता है, जैसे- "इक रोग मैं बिसाहा जी को कहाँ लगाया।" कुछ शब्दों के लिंग भेद में भी आज से अंतर है, जैसे 'जान' को पुल्लिंग करके प्रयोग करना, "जान अपना जो हमने मारा था।" 'ने' के पहले 'उन्हों' की बजाय 'उन' का प्रयोग वे धड़ल्ले से करते हैं। "तेज़ पंजा किया न उनने कभू।" 'पास' के पहले 'के' का प्रयोग ज़रुरी नहीं था, जैसे "था कुत्ते का बच्चा इक दरवेश पास।" इसी तरह के कुछ और प्रयोग हैं, जो 'मीर' के ज़माने की भाषा में पाये जाते हैं, लेकिन आजकल निषिद्ध हैं। व्याकरण के प्रयोगों में भित्रता के साथ ही उस ज़माने में कुछ शब्द बहुत अधिक प्रचलित थे, जो आज प्रयोग में नहीं लाये जाते, जैसे 'ज़रा' की बजाय 'टुक' 'पास' की बजाय 'कने', 'आ' की जगह 'आन' 'किसी' की बजाय 'किसू' 'कभी' की बजाय 'कभू' इसी तरह के बीसियों दूसरे शब्द हैं, जिनका चलन 'मीर' के ज़माने में बहुतायत से होता था।
हिन्दी शब्दों का प्रयोग
अठारहवीं शताब्दी की उर्दू में हिन्दी शब्दों का प्रयोग बहुतात से मिलता है। उर्दू के प्रमुख कवि वली ज़माने में तो प्रियतम के लिए 'साजन' 'मोहन' आदि का भी प्रयोग होता था, जो 'मीर' के ज़माने में छोड़ दिया गया। फिर भी 'मीर' के ज़माने में सैकड़ों हिन्दी शब्द ऐसे प्रयुक्त होते थे, जिन्हें बाद में उर्दू में छोड़ दिया गया। ख़ास तौर से 'मीर' ने अपनी करुणा की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी के कोमल शब्दों को डटकर प्रयुक्त किया है। 'कुढब', 'दोष', 'नगर', 'बचन', 'बासन', 'बान', 'जोग', 'सुमरन', 'निपट', 'संसार', 'गुन', 'स्वर', 'भसम', आदि सैकड़ों शब्द हैं, जिन्हें 'मीर' ने अपने समकालीन कवियों की अपेक्षा भी अधिक प्रयोग किया है और बड़ा सफल प्रयोग किया है।
'मीर' भावों के क्षेत्र में तो अपनी मिसाल आप हैं ही, साथ ही भाषा के बनाने में भी उन्होंने काफ़ी योग दिया। पुराने प्रयोगों को उन्होंने बहुत कुछ काटा-छाँटा और नये प्रयोग भी किये। इनमें एक प्रयोग फ़ारसी मुहावरों को उर्दू में अनुदित करने लेने की कोशिश भी है। उदाहरण के लिए फ़ारसी में 'बू करदन' सूँघने को कहते हैं। 'मीर' ने इसे 'बास करना की सूरत में ले लिया। उनका शेर है-
गुल को महबूब हम क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया
इसी तरह फ़ारसी का एक मुहावरा है 'तू गोई'। इसका इस्तेमाल बात में ज़ोर पैदा करने के लिए किया जाता है। इसका प्रयोग इसी तरह होता है, जैसे हम लोग करते हैं 'समझे आप'। मीर ने 'तू गोई' को 'तू कहे' या 'कहे तू' करने लेने की कोशिश की है। उदाहरणार्थ यह शेर देखिए-
अब कोफ़्त से हिजरां की जहां दिल पे रखा हाथ
जो दर्दो-अलम था सो कहे तू कि यहीं था।
इसमें कोई शक नहीं कि 'मीर' के इन प्रयोगों में से बहुत से प्रयोग बाद में असफल सिद्ध हुए, फिर भी भाषा के विकास की द्दष्टि से इन प्रयोगों का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसके साथ ही 'मीर' ने उर्दू के स्थानीयकरण का भरसक प्रयास किया। उनकी मसनवियों आदि में तो स्थानीय कथाएँ स्थानीय रंग में दिखाई ही देती हैं, ग़ज़लों में भी जिनमें स्थानीयकरण की ज़्यादा गुंजाइश नहीं होती है, उन्होंने भारतीय कथाओं आदि का सहारा अपने ढंग से लेने की कोशिश की। उदाहरणार्थ निम्नलिखित शेर देखिए-
आतिशे-इश्क़ ने रावन को जलाकर मारा
गर्चे लंका सा था उस देव का घर पानी में
सुभे-चमन का जल्बा हिन्दी बुतों में देखा
संदल भरी जबीं है होटों की लालिय़ाँ
'मीर' चाहते थे कि भारतीय आधार भूमि में ईरानी ढंग को अपनाकर एक स्वस्थ स्थानीय साहित्य की रचना की जाय।
- तबईयत में फ़ारसी के जो मैंने हिन्दी शेर कहे
- सारे तुरुक बचे ज़ालिम अब पढ़ते हैं ईरान के बीच
उर्दू के विकास ने बाद में अठारहवीं शताब्दी में जो फ़ारसीकरण की राह पकड़ी उसने 'मीर' के इन सद्प्रयत्नों को लगभग बेकार सा कर दिया, लेकिन आज की स्थिति में यह देखना मुश्किल नहीं है कि मीर की राह ही सही राह थी।
मीर की रचनाएँ
मीर ने लम्बी ज़िन्दगी पाई और सारी ज़िन्दगी काव्य साधना के अतिरिक्त और कुछ भी न किया। फलस्वरूप उनकी रचनाओं की संख्या और मात्रा बहुत अधिक है। नीचे इनका कुछ परिचय दिया जाता है-
- मीर के कुल्लियात में 6 बड़े - बड़े दीवान ग़ज़लों के हैं। इनमें कुल मिलाकर 1839 ग़ज़लें[4] और 83 फुटकर शेर हैं। इनके अलावा आठ क़सीदे, 31 मसनवियाँ, कई हजवें[5], 103 रुबाइयां, तीन शिकारनामें आदि बहुत सी कविताएं हैं। कुछ वासोख़्त[6] भी हैं। इस कुल्लियात का आकार बहुत बड़ा है।
- इसके अतिरिक्त एक दीवान फ़ारसी का है जो दुर्भाग्यवश अभी अप्रकाशित है।
- कई मर्सिए भी लिखे हैं जो अपने ढंग के अनूठे हैं।
- एक पुस्तक फ़ारसी में 'फ़ैज़े-मीर' के नाम से लिखी है। इसमें अंत में कुछ हास्य-प्रसंग और कहानियाँ हैं। इनमें कुछ काफ़ी अश्लील हैं। इनसे तत्कालीन समाज की रुचि का अनुमान किया जा सकता है।
- फ़ारसी ही में उर्दू शायरों की एक परिचय पुस्तक 'नुकातुश्शोअपा' है जिसमें अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों का उल्लेख किया है।
- आत्म-चरित 'ज़िक्र-ए-मीर' फ़ारसी में लिखा है। इस में अपने साहित्य पर प्रकाश नहीं डाला है बल्कि अपने निजी जीवन की घटनाओं के साथ ही तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और लड़ाइयों का उल्लेख है। यह पुस्तक इतिहास के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है।
फ़ारसी दीवान को छोड़कर उपर्युक्त सभी पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं। किंतु इस समय भारत के बाज़ारों में प्राप्य नहीं हैं। यहां तक कि उर्दू कुल्लियात भी पुस्तकालयों के अलावा कहीं देखने को नहीं मिलता। अब मालूम हुआ है कि लखनऊ का 'राम कुमार भार्गव प्रेस' कुल्लियात को फिर से छपाने का प्रबंध कर रहा है। उर्दू के महानतम कवि की रचनाओं की यह दशा दु:ख का विषय है।
ज़िक्र-ए-मीर
'मीर' ने अपना जीवन चरित्र स्वयं ही 'ज़िक्र-ए-मीर' नामक एक फ़ारसी पुस्तक में लिख दिया है। यह पुस्तक बहुत दिनों तक अप्राप्य थी, लेकिन कुछ वर्ष पहले 'अंजुमने-तरक़्क़ी-ए-उर्दू' के मंत्री अब्दुल हक़ ने इसकी खोज करके इसे प्रकाशित करवा दिया है, जिससे काल निरूपण तथा तथ्यों की विश्वसनीयता में बड़ी मदद मिली है।
निधन
मीर की मृत्यु की तिथि 'नासिख़' द्वारा कही गई तारीख़ "वावेला मुर्द शहे-शायरां" से 1810 ईसवी है।
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