मेघदूत

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मेघदूत
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कवि महाकवि कालिदास
मूल शीर्षक मेघदूत
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी 2005
ISBN 81-7182-947-3
देश भारत
भाषा संस्कृत (मूल)
विधा काव्य-ग्रंथ
विशेष मेघदूत विप्रलम्भ श्रृंगार का संस्कृत साहित्य में साहित्य में सर्वोत्कृष्ट काव्य कहा जा सकता है।
टिप्पणी समीक्षकों ने इसे न केवल संस्कृत जगत् में अपितु विश्व साहित्य में श्रेष्ठ काव्य के रूप में अंकित किया है।

मेघदूत महाकवि कालिदास की अप्रतिम रचना है। अकेली यह रचना ही उन्हें 'कविकुल गुरु' उपाधि से मण्डित करने में समर्थ है। भाषा, भावप्रवणता, रस, छन्द और चरित्र-चित्रण समस्त द्दष्टियों से मेघदूत अनुपम खण्डकाव्य है। सहृदय रसिकों ने मुक्त कण्ठ से इसकी सराहना की है। समीक्षकों ने इसे न केवल संस्कृत जगत् में अपितु विश्व साहित्य में श्रेष्ठ काव्य के रूप में अंकित किया है। मेघदूत में कथानक का अभाव सा है। वस्तुत: यह प्रणयकार हृदय की अभिव्यक्ति है।

  • मेघदूत के दो भाग हैं -
  1. पूर्वमेघ एवं
  2. उत्तरमेघ।

विषयवस्तु

अलका नगरी के अधिपति धनराज कुबेर अपने सेवक यक्ष को कर्तव्य-प्रमाद के कारण एक वर्ष के लिए नगर - निष्कासन का शाप दे देते हैं। वह यक्ष अलका नगरी से सुदूर दक्षिण दिशा में रामगिरि के आश्रमों में निवास करने लगता है। सद्यविवाहित यक्ष जैसे - तैसे आठ माह व्यतीत कर लेता है, किंतु जब वह आषाढ़ मास के पहले दिन रामगिरि पर एक मेघखण्ड को देखता है, तो पत्नी यक्षी की स्मृति से व्याकुल हो उठता है। वह यह सोचकर कि मेघ अलकापुरी पहुँचेगा तो प्रेयसी यक्षी की क्या दशा होगी, अधीर हो जाता है और प्रिया के जीवन की रक्षा के लिए सन्देश भेजने का निर्णय करता है। मेघ को ही सर्वोत्तम पात्र के रूप में पाकर यथोचित सत्कार के अनंतर उससे दूतकार्य के लिए निवेदन करता है। रामगिरि से विदा लेने का अनुरोध करने के पश्चात् यक्ष मेघ को रामगिरि से अलका तक का मार्ग सविस्तार बताता है। मार्ग में कौन-कौन से पर्वत पड़ेंगे जिन पर कुछ क्षण के लिए मेघ को विश्राम करना है, कौन-कौन सी नदियाँ जिनमें मेघ को थोड़ा जल ग्रहण करना है और कौन-कौन से ग्राम अथवा नगर पड़ेंगे, जहाँ बरसा कर उसे शीतलता प्रदान करना है या नगरों का अवलोकन करना है, इन सबका उल्लेख करता है। उज्जयिनी, विदिशा, दशपुर आदि नगरों, ब्रह्मावर्त, कनखल आदि तीर्थों तथा वेत्रवती, गम्भीरा आदि नदियों को पार कर मेघ हिमालय और उस पर बसी अलका नगरी तक पहुँचने की कल्पना यक्ष करता है। उत्तरमेघ में अलकानगरी, यक्ष का घर, उसकी प्रिया और प्रिया के लिए उसका सन्देश- यह विषयवस्तु है।

मेघदूत की टीकायें

  • डॉ. एन. पी. उन्नि ने मेघूदत पर लिखी 63 टीकाओं का विवरण दिया है। इनमें सुप्रसिद्ध टीकाकार दिनकर मिश्र, पूर्ण सरस्वती[1], मालतीमाधव आदि प्रबन्धों पर विश्रुत टीका लिखने वाले जगद्धर[2], परमेश्वर[3], सारोद्धारिणी का अज्ञात नामा लेखक[4], महिमसंघगणि[5], सुमतिविजय[6], विजयसूरिगणि[7], भरतल्लिक [8], कृष्णपति[9] आदि की टीकायें उल्लेखनीय हैं।

टीकाकारों द्वारा मेघदूत का समीक्षण

नायक-विचार -
  • टीकाकारों ने मेघदूत के विषय में सूक्ष्म उद्भावनाओं तथा तात्त्विक विश्लेषण के साथ कृति का गहन अनुशीलन प्रस्तुत किया है। कालिदास ने अपने इस काव्य में नायक यक्ष का कहीं भी नाम निर्दिष्ट नहीं किया और न उसकी प्रिया यक्षिणी का ही। काव्य का पहला ही पद 'कश्चित' है- 'कोई' अनाम यक्ष इसका नायक है। इस 'कश्चित' पद के पीछे निहित कवि के तात्पर्य पर अनेक टीकाकारों ने विचार किया है। टीकाकार सुमतिविजय ने तो 'कश्चित' पद के पीछे यक्ष के अपराध के प्रति भर्त्सना का भाव पाया है और प्रमाण के लिए निम्नलिखित प्राचीन पद्य उद्धत किया है-

भर्तुराज्ञां न कुर्वंति ये च विश्वासघातका:।
तेषां नानापि न ग्राह्मं काव्यारम्भे विशेषत:॥[10]

  • टीकाकार कृष्णपति का भी यहीं मत है कि अपना स्वयं का, गुरुजन का तथा अभिशप्त व्यक्ति का नाम नहीं लिया[11] जाना चाहिये - इस विधान का पालन करने के लिये कवि ने यक्ष का नाम नहीं लिया।
  • टीकाकार हरगोविन्द ने भी इसी मत को दोहराते हुए भरतमुनि की यह कारिका भी उद्धत की है, जिसका स्रोत अनुसन्धेय है-

खण्डकाव्यमुखं कुर्यात कश्चिदित्यादिभि: पदै:।
सर्गबन्धेवश्यं तु नाम कार्य सुशोभनम॥

  • तदनुसार खण्डकाव्य में नायक का नाम निर्देश न करके 'कश्चित' आदि पदों का प्रयोग करना चाहिये। हरगोविन्द ने वैकल्पिक रूप से यह समाधान भी दिया है कि अभिशप्त या दु:खित पात्र का नामग्रहण नहीं करना चाहिये।[12]
  • टीकाकार भरतमल्लिक ने 'कश्चित' पद की व्याख्या में छ: मत प्रस्तुत किये हैं, जिनमें तीन मत तो उक्त टीकाकारों के ही हैं।
  • चौथे मत व्याख्या में छ: मत प्रस्तुत किये हैं, जिनमें तीन मत तो उक्त टीकाकारों के ही हैं। चौथे मत के अनुसार अस्ति कश्चिद वाग्विशेष; विद्योत्तमा की इस उक्ति का अनुरोध ही कश्चित पद के प्रयोग का कारण है।
  • पाँचवें मत के अनुसार मेघदूत की कथावस्तु का प्रख्यात न होकर कल्पित होना इस सर्वनाम के प्रयोग का हेतु है।[13]

मेघदूत के स्रोत

मेघदूत के स्रोत के विषय में इन टीकाकारों ने विशद विचार किया है। दक्षिणावर्तनाथ का कथन है कि रामायण से सीता के प्रति हनुमान के मुख से राम के द्वारा प्रेषित सन्देश को मन में रख कर उसके पात्रों का मेघदूत के पात्रों के रूप में उपस्थित करते हुए कवि कालिदास ने इस काव्य की रचना की - इल खलु कवि: सीतां प्रति हनूमता हारित सन्देश हृदयेन, समुद्वहन तत्स्थानीयनायकाद्युत्पादनेन सन्देशं करोति।[14]

  • मल्लिनाथ ने दक्षिणावर्तनाथ की व्याख्या का आधार स्वीकार करते हुए रामायण की प्रेरणा मेघदूत की रचना में पृष्ठभूमि माना है। पर रामायण के पात्रों और मेघदूत के पात्रों के अध्यवसान का उन्होंने न समर्थन किया है, न विरोध ; जबकि पूर्णसरस्वती ने रामायण से कालिदास को प्रेरित मानते हुए दक्षिणावर्तनाथ की इस मान्यता का कड़ा विरोध किया है कि यक्ष - यक्षिणी - वृत्तांत में राम - सीता - वृत्तांत की समाधि है। उनका तर्क है कि यदि मेघदूत में सीता - राघववृत्त का अध्यवसान होता तो कवि उसका उपमान के रूप में या अन्यथा पृथक् उल्लेख क्यों करता?[15]
  • पर इसके साथ ही पूर्णसरस्वती ने कालिदास को 'रामायण रसायन परायण महाकवि' कह कर उनके कई पद्यों में रामायण की छाया निदर्शित की है। पूर्णसरस्वती ने मेघदूत पर महाभारत का भी प्रभाव माना है। स्थूणाकर्ण नामक यक्ष को कुबेर द्वारा शाप दिये जाने की महाभारतोक्त कथा को उन्होंने विस्तार से साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव नामक यक्षों के शापग्रस्त होने का वृत्तांत भी मेघदूत की रचना में प्रेरक हो सकता है।[16]
  • तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेघदूत की रचना प्रक्रिया में आदि कवि वाल्मीकि की सर्वातिशायी प्रतिभा और सीताराघव वृत्तांत तथा हनुमत्सन्देश प्रकरण की प्रेरणा आद्यंत बनी रही है। दक्षिणावर्तनाथ तथा पूर्णसरस्वती आदि टीकाकरों ने तो अनुसन्धानपूर्वक रामायण के ऐसे अनेक स्थल मेघदूत के पद्य की व्याख्या में उद्धत किये हैं, जिनका अप्रस्तुत विधान, कल्पना या भाव लेकर कवि ने अन्यच्छाया योनि काव्य का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण मेघदूत में प्रस्तुत किया है। मेघदूत की यक्षिणी के लिये कवि ने उपमा उत्कृष्ट उदाहरण मेघदूत में प्रस्तुत किया है। मेघदूत की यक्षिणी के लिए कवि ने उपमा दी है - यक्ष को लगता है कि उसकी प्रिया शिशिर में मुरझाई पद्मिनी जैसी हो गयी होगी।[17]
  • पूर्णसरस्वती के अनुसार यह उत्प्रेक्षा रामायण में सीतावर्णन के निम्नलिखित पद्य पर आधारित है-

हिमहतनलिनीव नष्टशोभा व्यसनपरम्परया निपीङ्यमाना।
सहचररहितेव चक्रवाकी जनकसुता कृपणां दशा प्रपन्ना॥[18]

  • इसी प्रकार यक्षिणी के वर्णन में कवि ने प्रेम की अनन्यनिष्ठ भावोत्तानता की जो कारुणिक छवि अंकित की है, उसका भी आधार रामायण में हनुमान के द्वारा सीता के दर्शन के समय की गयी इस अभिव्यक्ति में पूर्णसरस्वती ने पाया है-

नैषा पश्यति राक्षस्यों नेमान पुष्पफलद्रुमान।
एकस्थहृदया नूनं राममेवानुपश्यति।
नैव दंशांश्च मशकान न कीटान न सरीसृपान
राघवापनयेद गात्रात त्वदगतेनांतरात्मना॥

  • इसी प्रकार यक्ष जब कहता है- हे मेघ तुम्हारी सखी यक्षिणी का मन मेरे लिये स्नेह से लबालब भरा है[19], तो पूर्णसरस्वती इसमें सीता की प्रेममयता प्रतिबिम्बित पाते हैं-

'अन्योन्या राघवेणाहं भास्कर प्रभा यथा।'

  • इसी प्रकार दक्षिणावर्तनाथ तथा पूर्णसरस्वती ने मेघदूत के अनेक पद्यों में रामायण से भावसाम्य तथा रामायण की प्रेरणा का दिग्दर्शन कराया है। उदाहरणार्थ-

त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या
मीनक्षोभाच्चलकुवलय श्रीतुलामेष्यतीति॥

  • मछली के उछलने से हिलते नीलकमल का नेत्र के लिए यह उपमान वाल्मीकि ने विरह-विधुरा सीता के लिए सदृश प्रसंग में प्रयुक्त किया- 'प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या मीनाहतं पद्मममिवातिताम्रम।

अगले छन्द में कालिदास ने यक्ष के मुख से पुन: उत्प्रेक्षा करायी है-
यास्यत्यूरु: सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम।'
यहाँ भी वाल्मीकि की इस अभिव्यक्ति की छाया इन टीकाकारों ने देखी है-
'प्रस्पन्दमान: पुनरुरस्था राम: पुरस्तात स्थितमाचचक्षे।'
वस्तुत:दूतकाव्य की परम्परा का मूल वैदिक संहिताओं में है, जिस पर 'सन्देशकाव्य विषयक अध्याय में विचार किया गया है।

कथा की पृष्ठभूमि

मेघदूत में महाकाव्य - खण्डकाव्यादि के समान कथा कहना कवि का लक्ष्य नहीं है। कथा का संकेत पहले पद्य में बहुत सूक्ष्म रूप से करके वह यक्ष की मनोदशाओं की गहन मीमांसा तथा तज्जन्य रससिद्धि में तल्लीन हो जाता है। कुछ टीकाकारों ने योगवासिष्ठ में एक पक्ष के शापग्रस्त होने की कथा को मेघदूत के कथानक की इस भूमिका का आधार माना जाता है। तो जैन टीकाकारों ने अलग-अलग रूप में इस कथा का प्रतिपादन किया है। एक कथा में कुबेर को पूजा के लिए सद्योविकसित कमलपुष्प देने के स्थान पर एक दिन पूर्व तोड़े गये बासी पुष्प देने पर यक्ष शापग्रस्त होता है। अन्य कथा में कुबेर के उद्यान का द्वार असावधानी से खुला छोड़ देने पर ऐरावत के द्वारा घुस कर उद्यान तहस-नहस कर दिये जाने के कारण। अन्य कथा में कुबेर के लिए यक्ष ने जो पुष्पशय्या बनायी थी, उस पर स्वयं सो जाने के अपराध के कारण उसे दण्ड विधान दिलाया गया है। एक अन्य कथा में वह पूजा के लिये निर्मित माला पहले अपनी प्रिया को पहना देता है। वस्तुत: मेघदूत में यक्ष की भावाकुलता और यक्ष - यक्षिणी के प्रगाढ़ अनुराग के चित्रण के आधार पर टीकाकारों ने अपने-अपने ढंग से इस प्रकार की कथाओं की कल्पना कर डाली है।[20]

बौद्ध साहित्य में मेघदूत का कथा-स्रोत

कतिपय आधुनिक विद्वानों ने मेघदूत की कथाभूमि का आधार प्राचीन बौद्ध वांगमय में माना है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि त्रिपिटक साहित्य में कुछ ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें दौत्य तथा प्रणायिनी के प्रति करुण सन्देश का निरूपण है। कालिदास के लिए ये प्रसंग प्रेरक थे अथवा नहीं यह विचारणीय है। दीघनिकाय के सक्कपन्हसुत्त[21] में सक्क नामक व्यक्ति बुद्ध के पास स्वयं न जाकर पंचशिख नामक गन्धर्व के द्वारा सन्देश भेजना है, और पंचशिख सन्देश में जो प्रस्तुत करता है, उनका विषय श्रृंगार तथा प्रेम है और भावधारा मेघदूत के सदृश है। बौद्धों की मान्यता है कि श्रृंगारित होते हुए भी इन गाथाओं में दार्शनिक अर्थ अंतर्निहित है। किंतु इन गाथाओं में पंचशिख तथा मद्दा सूरियवच्चसा के प्रणयानुराग का उद्घात भी हुआ है और पंचशिख के कथनों में यक्ष की अभिव्यक्ति से साम्य भी है।[22]

  • रायज डेविडस तथा चाइल्डर्स की यह भी मान्यता है कि कालिदास को अलकानगरी की परिकल्पना बौद्ध साहित्य में महापरिनिज्बानसुत्त में वर्णित देवों की राजधानी अलकनन्दा से मिली है।[23]

मेघदूत की आत्मकथात्मकता

  • कतिपय टीकाकारों ने मेघदूत में स्वयं कवि के द्वारा अपने स्वयं के सम्बन्ध में परोक्ष रूप से संकेत या सन्दर्भ दिये जाने की सम्भावना पर भी विचार किया है। अनुश्रुति है कि कालिदास ने विक्रमादित्य राजा की भगिनी और अपनी प्रणयिनी के विरह में यह काव्य लिखा था तथा इसके नायक वे स्वयं हैं।
  • चौदहवीं शताब्दी में केरल में मणिप्रवालम शैली में लिखित काकदूत नामक काव्य में कहा गया है-

स्वस्त्रे पूर्व महितनृपतेर्विक्रमादित्यनाम्न:
पोक्काञ्चक्रे तरुणजलदं कालिदास: कवीन्द्र:॥[24]

  • महाकवि क्षेमेन्द्र ने भी राजा विक्रमादित्य द्वारा कालिदास को प्रवरसेन के पास भेजे जाने तथा कवि द्वारा इस प्रवासावधि में 'कुंतलेश्वरदौत्य' की रचना करने का संकेत दिया है।
  • ऐसी स्थिति में टीकाकारों का मेघदूत के विविध वर्णनों तथा उल्लेखों में कवि के आत्मानुभव की छाया खोजने का प्रयास करना स्वाभाविक ही है। मेघदूत के पद्य में 'निचुल' तथा 'दिङ्नाग' इन दो शब्दों के प्रयोग के आधार पर टीकाकारों का अनुमान है कि कवि कालिदास ने यहाँ अपने समय के निचुल कवि तथा दिङ्नाग नामक पण्डित का उल्लेख किया है। दक्षिणावर्तनाथ का कथन है कि निचुल कवि कालिदास के मित्र थे, यहाँ तक कि निचुल कवि का बनाया एक पद्य भी दक्षिणावर्तनाथ ने उद्धत किया है। दिङ्नाग पण्डित अपने 'स्थूलहस्तावलेप' के साथ कालिदास की कटु आलोचना करते थे।[25] कवि ने इस पद में उन पर कटाक्ष किया है।[26]
  • दक्षिणावर्तनाथ का अनुगमन करते हुए मल्लिनाथ ने भी इस किंवदंती को मान्यता दी है।

रससृष्टि

मेघदूत विप्रलम्भ श्रृंगार का संस्कृत साहित्य में साहित्य में सर्वोत्कृष्ट काव्य कहा जा सकता है। विरह वेदना की तीव्रता, प्रेम की अनन्यता तथा भावैकतानता का ऐसा अनूठा चित्रण, वह भी गम्भीर जीवनदृष्टि तथा सांस्कृतिक मूल्यबोध के साथ, अन्यत्र नहीं मिलता। कवि ने अपना काव्य उस यक्ष की उस मनोदशा के चित्रण के साथ आरम्भ किया है, जब रामगिरि पर अभिशप्त जीवन व्यतीत करते-करते उसने किसी तरह आठ महीने तो बिता दिये हैं। मिलन का समय निकट आता जा रहा है, उसकी प्रिया के लिये चिंता और उससे मिलने की आतुरता बढ़ती जा रही है। यक्ष बावला और अर्धविक्षिप्त सा हो गया है। ऐसे में वह स्वप्न, कल्पना और अभिव्यक्ति के द्वारा अपने आप को जिलाये रखना चाहता है। उत्कृट जिजीविषा, भावसान्द्रता और मनुष्य के कल्पनालोक की रम्यता का बेजोड़ समवाय मेघदूत में हम अनुभव करते हैं। हृदय की सुकुमारता और प्रेम के प्रसार का भी बोध मेघदूत देता है, वह भारतीय साहित्य में सुदुर्लभ है। यक्ष का चित्त कामातुर है, पर प्रेम और विरह की आंच उसके कलुष को धोती चली गयी है। इस प्रकार मेघदूत की रससृष्टि में मनोविज्ञान और चित्त के संस्कार की प्रक्रिया को कविप्रतिभा ने बड़ी कुशलता से मेघदूत में पिरों दिया है।

छन्दोविधान तथा भाषाशैली

मेघदूत में आद्यंत केवल 'मन्दाक्रांता' छंद का ही प्रयोग है। इस छन्द की विशिष्ट लय तथा यति से यह समग्र काव्य वेदना, उच्छ्वास-नि:श्वास तथा मेघ की द्रुतविलम्बित गति का अनुभव देता है। वस्तुत: कालिदास के द्वारा इस छ्न्द के इतने सटीक प्रयोग के कारण ही आचार्य-परम्परा में यह मान्यता स्थापित हुई कि वर्षा, प्रवास तथा व्यसन के वर्णन के लिये 'मन्दाक्रांता छन्द' विशेष उपयुक्त है। क्षेमेन्द्र कालिदास के मन्दाक्रांता-प्रयोग की सराहना करते हुए कहते हैं -

प्रावृटप्रवास-व्यसने मन्दाक्रांता विराजते।[27]

इस छन्द की विशिष्ट संरचना गति, लय, त्वरा और मंथरता का एक साथ बोथ कराती है और कालिदास ने तदनुरूप की सारे काव्य में भाषा और पदावली का भी अनुकूल प्रयोग किया है, जिसमें यक्ष के अंतर्जगत तथा बाह्म जगत् उसके मन की आतुरता और गम्भीरता, व्यथा और विवेक तथा मेघ को शीध्र भेजने और त्वरिक गति के लिए उसका निर्देश, फिर भी सारे देश में प्रत्येक सुरम्य या पवित्र स्थल पर अटक-अटक कर उसे आगे ले जाने की चाह-इन सबका पर्यावरण इस विशिष्ट भाषा - शैली के द्वारा रचता चला गया है। त्वरा और मंथरता दोनों का भाव समेकित करती हुई शब्दावली भी सजल होकर कवि ने यहाँ गूंथी है - जो लघुगति: (16), गंतुमाशु व्यस्येत (23), वाहयेदध्वशेषम-मन्दायंते न खलु सुह्रदामभ्युपेतार्थकृत्या: (41), उत्पतोदङ्मुख: खम-आदि में पदावली की गत्यात्मकता और त्वरा की अभिव्यक्ति तथा 'खिन्न: खिन्न शिखरिषु पदं न्यस्य गंतासि यत्र, क्षीण: क्षीण: परिलघु पय: श्रोतसां चोपभुज्य - (13), स्थित्वा तस्मिन वनचरवधूमुक्तकुञ्जे मुहूर्तम - (19), कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते (23) नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो: (26), स्थातव्य ते नयनविषयं यावदत्येति भानु: (37), नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्र: (41), प्रस्थान ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि (44), नानाचेष्टैर्जलद ललितैर्निर्विशेस्तं नगेन्द्रम- (65) - ठहर-ठहर कर अटक-अटक कर आगे बढ़ने का भाव प्रकट करती चलती है। वस्तुत: मेघदूत छन्दोविधान और भाषा-शैली की दृष्टि से संस्कृत साहित्य की अनुपम निधि है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 14वीं-15वीं शताब्दी
  2. 14वीं शताब्दी
  3. 15वीं शताब्दी
  4. 1618 वि.सं.
  5. 1693 वि. सं.
  6. 17वीं शताब्दी
  7. 1709 वि. सं.
  8. 1700 वि.सं.
  9. 1777 वि.सं.
  10. मेघदूत: सं. नन्दरगीकर,पृ. 101 पर उद्धत।
  11. मेघदूत: कृष्णपतिकृत टीका, सं. गोपिकामोहन भट्टाचार्य, पृ.
  12. मेघदूत: सं. नन्दगीकर, पृ.101 तथा जतीन्द्रविमल चौधरी का सं., पृ. 25
  13. मेघदूत: सुबोध टीका, सं. जतीन्द्रविमल चौधरी, कलकत्ता, 1950, पृ.2
  14. मेघदूत: सुबोध टीका, सं. जतीन्द्रविमल चौधरी, कलकत्ता, 1950, पृ.1
  15. कवेर्यक्षवृत्तांते सीताराघववृत्तांतसमाधिरस्तीति केचित। तन्न सहृदयहृदयसंवादाय। कविनैव 'जनकतनयास्नान' इति, 'रघुपतिपदै:, इति चात्यंततटस्थतया प्रतिपादितत्वात उपरि च 'इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा इत्यत्रोपमानतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात। (विद्युल्लता, पृ.7)
  16. मेघसन्देश, विद्युल्लता टीका, सं. कृष्णमाचारियर, पृ.5-6
  17. 'जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम।'
  18. मेघसन्देश, विद्युल्लता टीका, सं. कृष्णमाचारियर, पृ.125-26
  19. 'जाने सख्यास्तव मयि मन: सम्भृतस्नेहम'
  20. विवरण के लिये द्र.- संस्कृत के सन्देश काव्य: रामकुमार आचार्य, पृ. 85-86
  21. दीघनिकाय 21।2
  22. कालिदास: हिज आर्ट एण्ड थाट, टी.जी. मईणकरण, 1962, पृ.121-24
  23. कालिदास: हिज आर्ट एण्ड थाट, टी.जी. मईणकरण, 1962, पृ.126-27
  24. मेघसन्देश: एन एसेसमेण्ट फ्रॉम द साउथ, एन. पी. उन्नि, दिल्ली, 1987 ई. में पृ.12 पर उद्धत।
  25. मेघदूत, पूर्वमेध पद्य 14
  26. मेघसन्देश: सं. एन. पी. उन्नि पृ.36 पर प्रदीप टीका।
  27. सुवृत्ततिलक, 3।21, काव्यमाला गुच्छक-2,पृ.52

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