मौर्यकालीन धर्म

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मौर्यकालीन भारत में वैदिक धर्म और गृह कृत्य प्रधान थे। वैदिक धर्म के अतिरिक्त इस समय एक अन्य प्रकार के धार्मिक जीवन का चित्र भी मिलता है, जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। हिन्दुओं के ब्रह्मा, इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित, इत्यादि देवताओं का भी उल्लेख हुआ है।

समाज में धार्मिक कर्म

मेगस्थनीज़ के अनुसार ब्राह्मणों का समाज में प्रधान स्थान था। दार्शनिक यद्यपि संख्या में कम थे, किन्तु वे सबसे श्रेष्ठ समझे जाते थे और यज्ञ आदि के कार्य में लगाए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार 'त्रयी' अर्थात् तीन वेदों, के अनुसार आचरण करते हुए संसार सुखी रहेगा और अवसाद को प्राप्त नहीं होगा। तदनुसार राजकुमार के लिए 'चोलकर्म', 'उपनयन', 'गोदान', इत्यादि वैदिक संस्कार निर्दिष्ट किए गए थे। ऋत्विक, आचार्य और पुरोहित को राज्य से नियत वार्षिक वेतन मिलता था। वैदिक ग्रंथों और कर्मकाण्ड का उल्लेख प्रायः तत्कालीन बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। कुछ ब्राह्मणों को जो वेदों में निष्णात थे, वेदों की शिक्षा देते थे तथा बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। पालि ग्रंथों में 'ब्राह्मणनिस्साल' कहा गया है। वे अश्वमेध, वाजपेय इत्यादि यज्ञ करते थे। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से कर मुक्त भूमि दान में मिलती थी। 'अर्थशास्त्र' में ऐसी भूमि को 'ब्रह्मदेय' कहा गया है और इन यज्ञों की इसलिए निंदा की गई है कि इनमें गौ और बैल का वध होता था, जो कृषि की दृष्टि से उपयोगी थे।

वैदिक धर्म की प्रधानता

इस समय धार्मिक दृष्टि से वैदिक धर्म प्रधान था, किन्तु कर्मकाण्ड प्रधान वैदिक धर्म अभिजात ब्राह्मण तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। उपनिषदों का अध्यात्म जीवन, चिन्तन तथा मनन का आदर ख़त्म नहीं हुआ था। 'सुत्तनिपात' में ऐसे ऋषियों का उल्लेख है, जो पंचेन्द्रिय सुख को त्यागकर इद्रियसंयम रखते थे। विद्या और पवित्रता ही इनका धन था। वे भिक्षा में मिलने वाले व्रीहि से यज्ञ करते थे। यूनानी लेखकों ने भी इन वानप्रस्थियों का उल्लेख किया है। इन लेखकों के अनुसार ये वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले ब्राह्मण कुटियों में निवास करते थे। वहाँ संयम का जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन और मनन करते थे। वे अपना समय गहन प्रवचनों को सुनने और विद्या दान में बिताते थे। मेगस्थनीज़ ने मंडनि कौर सिकन्दर के बीच वार्तालाप का जो वृत्तांत दिया है, उससे मौर्यकालीन ब्राह्मण ऋषियों की जीवनचर्या पर प्रकाश पड़ता है।

देवताओं की पूजा

मौर्य काल में वैदिक धर्म के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार के धार्मिक जीवन का चित्र भी मिलता है, जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। ब्रह्मा, इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित, इत्यादि देवताओं का भी उल्लेख हुआ है। इनमें से बहुत से देवताओं के मन्दिर थे। स्थानीय तथा कुल देवताओं के मन्दिर भी होते थे। इन देवताओं की पूजा पुष्प तथा सुगन्धित पदार्थों से होती थी। नमस्कार, प्रणतिपात या उपहार से देवताओं को संतुष्ट किया जाता था। इन मन्दिरों में मेले और उत्सव होते थे। यह जन साधारण का धर्म था। देवताओं की पूजा के साथ भूत-प्रेत तथा राक्षसों के अस्तित्व में उनका विश्वास था। इन्हें अभिचार विद्या में कुशल व्यक्तियों की सहायता से संतुष्ट किया जाता था। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के जादू-टोनों का भी प्रयोग किया जाता था। अक्षय धन, राजकृपा, लम्बी आयु, शत्रु का नाश आदि उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक अभिचार क्रियाएँ की जाती थीं। चैत्यवृक्षों तथा नागपूजा का प्रचलन जन-साधारण में था।

मांगलिक कार्य

मौर्य सम्राट अशोक ने भी अपने नवें शिलालेख में लोगों द्वारा किए जाने वाले मांगलिक कार्यों का उल्लेख किया है। ये मांगलिक कार्य बीमारी के समय, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा यात्रा के अवसर पर किए जाते थे। मौर्य सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रन्थों के साथ-साथ आजीवकों का भी उल्लेख किया है। राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में अशोक ने बराबर की पहाड़ियों में उन्हें दो गुफ़ाएँ प्रदान की थीं। सम्पूर्ण मौर्य काल में आजीवकों का प्रभाव बना रहा। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुन की पहाड़ियों में कुछ गुफ़ाएँ आजीवकों को भेंट कर दी थीं।


इन्हें भी देखें: मौर्यकालीन कला, मौर्यकालीन भारत एवं मौर्य काल


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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