युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन की रक्षा
गन्धमादन पर्वत स्थित कुबेर के महल में चार वर्ष व्यतीत करने के पश्चात पाण्डव वहाँ से चले। मार्ग में अनेक वनों में रुकते-रुकाते, स्थान-स्थान पर अपने शौर्य और पराक्रम से दुष्टों का दमन करते, ऋषियों और ब्राह्मणों के सत्संग का लाभ उठाते वे द्वैतवन पहुँचे और वहीं रहकर वनवास का शेष समय व्यतीत करने लगे। अब तक वनवास के ग्यारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे। पाण्डवों के द्वैतवन में होने की सूचना दुर्योधन तथा उसकी दुष्ट मण्डली[1] को मिली। वे एक बार फिर वहाँ जाकर पाण्डवों को मार डालने की योजना बनाने लगे। संयोगवश उन दिनों कौरवों की गौ-सम्पत्ति द्वैतवन में ही थी। अपनी गौ-सम्पत्ति अंकेक्षण, निरीक्षण आदि करने के बहाने दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से द्वैतवन जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। इस प्रकार दुर्योधन और उसकी दुष्ट मण्डली ने अपनी एक विशाल सेना के साथ द्वैतवन में पहुँचकर वहाँ अपना डेरा डाल दिया।[2]
वे अपने राजसी ठाट-बाट का प्रदर्शन कर पाण्डवों को जलाना चाहते थे, इसलिये बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित राजमहिलाओं को भी उन्होंने अपने साथ रख लिया था। एक दिन वे जलविहार करने के उद्देश्य से दुर्योधन अपनी मण्डली तथा राज महिलाओं के साथ द्वैतवन में स्थित मनोरम सरोवर में पहुँचा। किन्तु उस सरोवर में गन्धर्वराज चित्ररथ पहले से ही आकर अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे था। चित्ररथ के सेवकों ने दुर्योधन को सरोवर में उतरने से रोकते हुये कहा- "इस समय गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी पत्नियों के साथ इस सरोवर में जलक्रीड़ा कर रहे हैं, अतः उनके बाहर आने से पहले अन्य कोई भी सरोवर में नहीं उतर सकता।” सेवकों के इन वचनों को सुनकर दुर्योधन ने क्रोधित होकर कहा- "तू शायद जानता नहीं कि तू किससे बात कर रहा है। मैं हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र का महाबली पुत्र दुर्योधन हूँ। यह सरोवर हमारे राज्य की सीमा के अन्तर्गत आता है। तू जाकर चित्ररथ से कह दे कि इस राज्य का युवराज यहाँ जलविहार करने आया है और तुम्हें इस सरोवर से बाहर निकलने की आज्ञा दी है।”
दुर्योधन के दर्पयुक्त सन्देश को सुनकर गन्धर्वराज चित्ररथ के क्रोध का पारावार न रहा और उसने दुर्योधन तथा उसकी मण्डली के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। दुर्योधन के साथी और सेना कुछ समय तक तो युद्ध करते रहे, किन्तु चित्ररथ को अधिक बलवान पाकर वे सभी दुर्योधन एवं राजमहिलाओं को वहीं छोड़कर भाग खड़े हुये। चित्ररथ ने दुर्योधन और उन राजमहिलाओं को कैद कर लिया। दुर्योधन की भगोड़े सैनिकों को जब कुछ न सूझा तो वे वहाँ निवास करते हुए पाण्डवों के पास जाकर उनसे दुर्योधन और राजमहिलाओं की मुक्ति के लिये याचना करने लगे। उनकी याचना सुनकर भीम ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से कहा- "बड़े भैया! दुर्योधन अपने राजसी वैभव का हमारे सामने प्रदर्शन करने यहाँ आया था। गन्धर्वों ने दुर्योधन की दुर्दशा करके हमारे हित का काम किया है। आप कदापि उसे मत छुड़ाना।” इस पर युधिष्ठिर बोले- "भैया भीम! ये लोग हमारी शरण में आये हैं और शरण में आये लोगों की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म होता है। फिर दुष्ट स्वभाव का होने के बाद भी दुर्योधन आखिर हमारा भाई ही है। उसके साथ की राज महिलाएँ हमारे ही कुल की महिलाएँ हैं और उनका निरादर होने से हमारे ही कुल को कलंक लगेगा। इसलिये उचित यही है कि तुम और अर्जुन जाकर उनकी रक्षा करो।”[2]
अपने बड़े भाई की आज्ञा मानकर भीम और अर्जुन ने सरोवर के पास जाकर चित्ररथ को युद्ध के लिये ललकारा। उनकी ललकार सुनकर चित्ररथ क्रोधित होने के बजाय मुस्कुराते हुये अर्जुन के पास आया और बोला- "हे पार्थ! मैं तो तुम्हारा सखा ही हूँ। वास्तव में दुष्ट दुर्योधन अपनी सेना के साथ तुम लोगों का वध करने के लिये यहाँ आया था। इन्द्र को इस बात की सूचना मिल चुकी थी, इसलिये उन्होंने मुझे यहाँ भेजा था। हे सखा! नीति कहती है कि ऐसे दुष्टों को कभी क्षमा नहीं करना चाहिये, किन्तु अपने बड़े भ्राता की आज्ञा मानकर यदि तुम दुर्योधन को छुड़ाना ही चाहते हो, तो लो मैं इसे तथा इसके साथ की राजमहिलाओं को अभी छोड़ देता हूँ।" इतना कहकर चित्ररथ ने दुर्योधन सहित समस्त कैदियों को मुक्त कर दिया। वे सभी वहाँ से युधिष्ठिर के पास आये। ग्लानि से भरे दुर्योधन ने युधिष्ठिर को प्रणाम किया और लज्जा से सिर झुकाये अपने नगर की ओर चल दिया।
युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन की रक्षा |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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