योगाचार दर्शन

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योगाचार दर्शन(विज्ञानवाद)

परिभाषा

  • जो 'बाह्यार्थ सर्वथा असत हैं और एकमात्र विज्ञान ही सत है'- ऐसा मानते हैं, वे विज्ञानवादी कहलाते हैं।
  • ये दो प्रकार के होते हैं, यथा
  1. आगमानुयायी और
  2. युक्ति-अनुयायी।
  • आर्य असङ्ग, वसुबन्धु आदि आगमानुयायी तथा आचार्य दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि युक्ति-विज्ञानवादी हैं।
  • विज्ञानवादियों का एक भिन्न प्रकार से भी द्विविध विभाजन किया जाता है, यथा-
  1. सत्याकार विज्ञानवादी एवं
  2. मिथ्याकार विज्ञानवादी।
  • भोटदेशीय विद्वानों के मतानुसार आगमानुयायी और युक्ति-अनुयायी दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में सत्याकारवादी और मिथ्याकारवादी होते हैं।

आगमानुयायी

आर्य असङ्ग ने श्रावकभूमिशास्त्र, प्रत्येकबुद्ध-भूमिशास्त्र आदि नामों से पाँच भूमिशास्त्रों की रचना की है, जो इन भूमिशास्त्रों के आधार पर अपने पदार्थों की व्यवस्था करते हैं और आलयविज्ञान, क्लिष्ट मनोविज्ञान आदि की सत्ता स्वीकार करते हैं, वे 'आगमानुयायी' कहलाते हैं।

युक्तिअनुयायी

दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय एवं धर्मकीर्ति के सात (सप्तवर्गीय) प्रमाणशास्त्रों के आधार पर जो पदार्थ मीमांसा की स्थापना करते हैं तथा घट, पट आदि पदार्थों को बाह्यार्थत्व से शून्य सिद्ध करते हुए आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान का खण्डन करते हैं, वे 'युक्ति-अनुयायी' कहलाते हैं।

सत्याकारवादी

ज्ञानगत नीलाकार, पीताकार आदि को जो ज्ञान स्वरूप (ज्ञान स्वभाव) स्वीकार करते हुए उनकी सत्यत: (वस्तुत:) सत्ता स्वीकार करते हैं, अर्थात जो यह मानते हैं कि उनकी सत्ता कल्पित नहीं हैं, वे 'सत्याकारवादी' कहलाते हैं।

मिथ्याकारवादी

ज्ञान में उत्पन्न (ज्ञानगत) नीलाकार, पीताकार आदि ज्ञानस्वरूप नहीं है, अत: उनकी वस्तुत: (सत्यत:) सत्ता नहीं है, अपितु वे वासनाजन्य एवं नितान्त कल्पित हैं। इस प्रकार जिनकी मान्यता है, वे 'मिथ्याकारवादी' कहलाते हैं।

सत्याकार विज्ञानवादियों के भेद

  • सत्याकारवादी तीन प्रकार के होते हैं, यथा-
  1. ग्राह्य-ग्राहक समसंख्यावादी,
  2. अर्धाण्डाकारवादी एवं
  3. नाना अद्वयवादी।

ग्राह्य-ग्राहक समसंख्यावादी-जिस प्रकार किसी चित्रपट में विद्यमान नील, पीत आदि पांच वर्ण द्रव्यत: पृथक्-पृथक् अवस्तित होते हैं, उसी प्रकार उस चित्रपट के ग्राहक ज्ञान भी नीलाकार, पीताकार आदि भेद से द्रव्यत: पृथक्-पृथक् पांच प्रकार के होते हैं।

अर्धाण्डाकारवादी— नील, पीत आदि अनेकवर्ण वाले चित्रपट में विद्यमानसभी वर्ण द्रव्यत: पृथक्-पृथक् होते हैं, किन्तु उस चित्रपट का ग्रहक चक्षुर्विज्ञान उतनी संख्या में पृथक्-पृथक् न होकर द्रव्यत: एक ही होता है।

नाना अद्वयवादी— जैसे नाना वर्ण वाले चित्रपट को जानने वाले चक्षुर्विज्ञान में वर्ण के अनुसार द्रव्यत: पृथग्भाव (नानाभाव) नहीं होता, अपितु वह एक होता है, वैसे चित्रपट में विद्यमान नाना वर्ण भी द्रव्यत: पृथक् नहीं होते, अपितु तादात्म्यरूप से वे एक और अभिन्न होते हैं।

मिथ्याकार विज्ञानवादियों के भेद

  • मिथ्याकार विज्ञानवादी भी दो प्रकार के होते हैं-

समल विज्ञानवादी— इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में भी द्वैत प्रतिभास होता है।

विमल विज्ञानवादी— इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में द्वैत प्रतिभास सर्वथा (बिल्कुल) नहीं होता, क्योंकि बुद्ध की चित्त सन्तति में मल का लेश भी नहीं होता।

पदार्थमीमांसा

  • विज्ञानवाद के अनुसार प्रमेयों को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं, यथा-
  1. परिकल्पित लक्षण,
  2. परतन्त्र लक्षण तथा
  3. परिनिष्पन्न लक्षण।

परिकल्पित लक्षण— लक्षण को स्वभाव भी कहते हैं, अत: इसे परिकल्पित स्वभाव भी कहा जा सकता है। स्वग्राहक कल्पना द्वारा आरोपित होना परिकल्पित स्वभाव का लक्षण है। रूप, शब्द आदि बाह्य एवं जड़ पदार्थों में तथा इन्द्रिय, विज्ञान आदि आन्तरिक धर्मों में विकल्पों (कल्पनाओं) द्वारा ग्राह्य-ग्राहक की पृथक् द्रव्यसत्ता एवं बाह्यार्थता का आरोपण किया जाता है, वही बाह्यार्थारोप या ग्राह्य-ग्राहकद्वैत का आरोप 'परिकल्पित लक्षण' है। यहाँ जिस परिकल्पितलक्षण का प्रतिपादन किया जा रहा है, वह परिनिष्पन्नलक्षण या धर्मनैरात्म्य का निषेध्य होता है।

परतन्त्र लक्षण— हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न होना परतन्त्र स्वभाव का लक्षण है। समस्त चित्त-चैतसिक एवं उनमें आभासित रूप आदि धर्म परतन्त्र लक्षण हैं। उदाहरणार्थ रूप और रूपज्ञ चक्षुर्विज्ञान दोनों स्वभावत: अभिन्न और परतन्त्र लक्षण हैं, क्योंकि दोनों एक ही वासना बीज के फल हैं, एक ही काल में उत्पन्न होते हैं और एक ही काल में निरुद्ध होते हैं।

परनिष्पन्नलक्षण— रूप आदि परतन्त्र धर्मों में आरोपित बाह्यार्थत्व एवं अभिधेयस्वलक्षणत्व परिकल्पित लक्षण हैं, जो परतन्त्र धर्मों में नितान्त असत हैं। परतन्त्र धर्मों में परिकल्पित लक्षण की वस्तुत: अविद्यमानता या रहितता ही 'परिनिष्पन्न लक्षण' है और विज्ञानवादी शास्त्रों में यही (परिनिष्पन्न लक्षण) धर्मधातु, तथता, भूतकोटि, परमार्थ सत्य आदि शब्दों से निर्दिष्ट है। यह परिनिष्पन्न लक्षण परतन्त्र लक्षण से न भिन्न होता है और न अभिन्न। वह स्वभावत: अभिन्न और व्यावृत्तित: भिन्न होता है।

प्रमाण और प्रमाणफल व्यवस्था

  • बौद्धन्याय के मत में भी दो प्रमाण और प्रत्यक्ष के चार प्रकार वैसे ही माने जाते हैं, जैसे सौत्रान्तिक मानते हैं।

प्रमाण

अविसंवादकता और अपूर्वगोचरता प्रमाण का लक्षण है। अर्थात वही ज्ञान प्रमाण कहला सकता है, जिसमें यह सामर्थ्य हो कि अपने द्वारा दृष्ट वस्तु को प्राप्त करा सके तथा जो अपने बल से वस्तु को जाने, अन्य पर निर्भर होकर नहीं।

प्रामाण्य

ज्ञान की अविसंवादकता और अपूर्वगोचरता स्वत: सिद्ध होती है। या परत: अर्थात अन्य प्रमाणों से? यदि स्वत: प्रामाण्य निश्चित होता है तो किसी भी व्यक्ति को प्रमाण और अप्रमाण के विषय में कभी अज्ञान ही नहीं होगा। यदि परत: दूसरे प्रमाण से प्रामाण्य निश्चित होता है तो उस दूसरे प्रमाण के प्रामाण्य के लिए अन्य तीसरे प्रमाण की आवश्यकता होगी। इस तरह अनवस्था दोष होगा?

समाधान

जितने प्रमाण होते हैं, वे सभी न तो एकान्त रूप से स्वत: प्रमाण होते और न परत: प्रमाण होते हैं उनमें कुछ स्वत: प्रमाण होते हैं और कुछ परत:।

प्रश्न— स्वत: प्रामाण्य और परत: प्रामाण्य क्या है? याने प्रमाण स्वबल से विषय का निश्चय करता है या विषयी का निश्चय करता है? अर्थात विषय के निश्चय से प्रामाण्य निश्चित होता है कि विषयी के निश्चय से?

समाधान— जो प्रमाण अपनी अविसंवादकता का निश्चय स्वत: अपने बल से कर लेता है, वह 'स्वत: प्रमाण' तथा जिसकी अविसंवादकता परत: दूसरे प्रमाण से निश्चित होती है, वह 'परत: प्रमाण' कहलाता है।

प्रश्न— यदि स्वत: या परत: प्रमाण का लक्षण उक्त प्रकार का है तो अनुमान स्वत: प्रमाण नहीं हो सकेगा, जब कि सिद्धान्तत: अनुमान स्वत: प्रमाण माना जाता है, क्योंकि चार्वाक का कहना है कि धूम हेतु से वह्नि को जानने वाला अनुमान अपनी अविसंवादकता का निश्चय स्वत: नहीं कर सकता?

समाधान— दोष नहीं है। यद्यपि चार्वाक पूछने पर यह कहेगा कि अनुमान प्रमाण नहीं है, फिर भी उसकी चित्त सन्तति में धूम से वह्नि को जानने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है और उससे वह जानता है कि पर्वत में वह्नि है और उस ज्ञान को वह सही ज्ञान भी समझता है। अत: अनुमान स्वत: प्रमाण सिद्ध होता है। सभी स्वसंवेदन स्वत: प्रमाण हैं, क्योंकि वे अपनी अविसंवादकता को स्वयं निश्चयपूर्वक जानते हैं। योगी प्रत्यक्ष स्वत: प्रमाण है। पृथग्जन का मानस प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। अभिज्ञा प्राप्त पृथग्जन योगी का मानस प्रत्यक्ष स्वत: प्रमाण होता है। आर्य का मानस प्रत्यक्ष भी स्वत: प्रमाण है। साधनप्रवृत्त, अपोहप्रवृत्त, सामान्यलक्षण, सविकल्प, निर्विकल्प इत्यादि का स्वरूप एवं विचार सौत्रान्तिकों के समान ही इस मत में भी मान्य हैं।

  • ज्ञान सात प्रकार के होते हैं, यथा-
  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. अधिगत विषयक ज्ञान,
  4. मनोविचार,
  5. प्रतिभास-अनिश्चयाक,
  6. मिथ्याज्ञान एवं
  7. सन्देह।
  • 1.और 2. स्पष्ट है।
  • चक्षुर्विज्ञान आदि ज्ञान अपने उत्पादन के द्वितीय क्षण से लेकर जब तक उनकी धारा समाप्त नहीं होती, 'अधिगत विषयक ज्ञान' हैं।
  • जो ज्ञान सम्यक लिङ्ग पर आश्रित (अनुमान) नहीं होता तथा अनुभवात्मक (प्रत्यक्ष) भी नहीं होता, किन्तु अपने विषय का बिना संशय के ग्रहण करता है, ऐसा अध्यावसायात्मक ज्ञान 'मनोविचार' कहलाता है। इसके तीन प्रकार हैं-

अहेतुक मनोविचार— बिना किसी हेतु के और बिना संशय के यह जानना कि 'शब्द अनित्य है' या 'सर्वज्ञ होता है'- यह 'अहेतुक मनोविचार' कहलाता है।

अनैकान्तिक मनोविचार— 'शब्द अनित्य है, - क्योंकि वह प्रमेय है'- इस प्रकार के अनैकान्तिक प्रमेय हेतु से उत्पन्न शब्दनित्यता का ज्ञान 'अनैकान्तिकि मनोविचार' है।

विरुद्ध मनोविचार— 'शब्द अनित्य है, क्योंकि अकृतक है'- इस प्रकार के विरुद्ध हेतु से उत्पन्न शब्दानित्यता का ज्ञान 'विरुद्ध मनोविचार' है।

  • प्रतिभास-अनिश्चायक- विषय का प्रतिभास होने पर भी जब निश्चय नहीं होता, तो ऐसे ज्ञान को 'प्रतिभास -अनिश्चायक' कहते हैं। उदाहरणार्थ दूर से आते हुए अपने गुरु का ज्ञान में प्रतिभास होने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि प्रतिभासित व्यक्ति गुरु ही है तथा अन्यगतमानस पुद्गल का श्रोत्रविज्ञान और पृथग्जन का रुपज्ञ, शब्दज्ञ आदि मानस प्रत्यक्ष 'प्रतिभास-अनिश्चायक' ज्ञान है।
  • 6.और 7. स्पष्ट है।
  • सभी मनोविचार अविसंवादी ज्ञान नहीं होते, क्योंकि वे संशय एवं विपर्यय आदि मिथ्या विप्रतिपत्तियों का निरास कर विषय का स्पष्ट परिच्छेद (अवबोध) नहीं करते। अविसंवादी ज्ञान होने के लिए विप्रतिपत्तियों का निरास करना आवश्यक है। अन्यथा परवादी द्वारा संशय पैदा किया जा सकता है।

प्रमाणफल

  • इसकी दो प्रकार से व्यवस्था की जाती है, -

बाह्यार्थवादी-साधारण— नीन प्रमेय में अनधिगत अविसंवादी नीलाकार ज्ञान प्रमाण ता विप्रतिपत्तिनिरास पूर्वक नील-परिच्छेद (अवपिरीत अवबोध) प्रमाणफल है।

असाधारण— प्रज्ञप्त नील प्रमेय में अनधिगत अविसंवादी ज्ञान प्रमाण तथा प्रज्ञप्त नील का परिच्छेद 'प्रमाणफल' हैं।

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