रसूना सैद

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रसूना सैद

हज्जह रंगकायो रसूना सैद (अंग्रेज़ी: Hajjah Rangkayo Rasuna Said, जन्म- 14 सितंबर, 1910; मृत्यु- 2 नवंबर, 1965) दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सक्रिय महिला जांबाजों में से एक थीं। दूसरे विश्वयुद्ध में लड़ने वाली महिलाओं की सूची में रसूना सैद एक अपवाद हैं, क्योंकि युद्ध के दौरान वह दुश्मन देशों के साथ कम से कम मामूली तौर से ही मिली हुई थीं। वह इंडोनेशिया की स्वतंत्रता के संघर्ष का एक बड़ा चेहरा थीं। उनके दुश्मनों में जापानी नहीं थे, बल्कि इंडोनेशिया के डच उपनिवेशवादी थे।

  • रसूना सैद बेहद कम उम्र में ही राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गई थीं।
  • उन्होंने 'इंडोनेशियाई मुस्लिम एसोसिएशन' नाम से एक राजनीतिक पार्टी बना ली थी। 'पेरमी' नाम का यह दल उन्होंने अपनी उम्र के बीसवें दशक की शुरुआत में ही बना लिया था। यह संगठन उनके मजहब और राष्ट्रीयता पर आधारित था।
  • रसूना सैद जबरदस्त तरीके से भाषण देती थीं। उनकी एक बायोग्राफी में कहा गया है कि वह जब बोलती थीं तो दिन में जैसे बिजलियां कड़कती थीं।
  • डच कॉलोनियल अधिकारियों की आलोचना करने का रसूना सैद का साहस ही वह वजह था, जिससे उनका नाम शेरनी पड़ गया था।
  • डच अफ़सर अक्सर रसूना सैद के भाषणों को बीच में ही रुकवा देते थे और एक बार तो उन्हें पकड़कर 14 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया।
  • जब जापानियों ने 1942 में आर्चिपेलागो पर हमला किया तो रसूना सैद एक जापान समर्थक संगठन से जुड़ गईं, लेकिन उन्होंने इसका इस्तेमाल अपनी स्वतंत्रता की गतिविधियों को चलाने के लिए किया।
  • इंडोनेशिया के मामले में जापानियों की हार के बाद भी जंग नहीं थमी। डच अधिकारियों ने फिर से अपना शासन मजबूत करने की कोशिश की। पहले उन्होंने इसके लिए ब्रिटिश मदद ली और इससे चार साल का लंबा खूनी संघर्ष शुरू हो गया।
  • सन 1949 में जब डच लोगों ने इंडोनेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता दी, तभी जाकर यह जंग खत्म हो पाई।
  • इस जंग में रसूना सैद की भूमिका को बखूबी याद किया जाता है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता की एक मुख्य सड़क का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
  • रसूना सैद लैंगिक समानता और महिलाओं की शिक्षा की बड़ी समर्थक थीं।
  • इंडोनेशिया की उन कुछ महिलाओं में रसूना सैद शामिल हैं, जिन्हें नेशनल हीरो का दर्जा हासिल है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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